Advertisement

हिमालयी जन की पीड़ा

  “कुदरती आपदा का हल्ला कर देश के बुनियादी ढांचे को निजी हाथों में बेचने का मास्टरप्लान विनाश की...
हिमालयी जन की पीड़ा

 

“कुदरती आपदा का हल्ला कर देश के बुनियादी ढांचे को निजी हाथों में बेचने का मास्टरप्लान विनाश की जड़”

हिमालय हमारी प्रकृति की एक शानदार लेकिन जटिल वास्‍तविकता को पेश करता है। यह दुनिया की सबसे ऊंची चोटियों वाली सबसे युवा पर्वत प्रणाली है। यह क्षेत्र अपने अद्वितीय भूगोल और पारिस्थितिकी के कारण दुनिया के महत्वपूर्ण जैव-विविधता केंद्रों में एक है। यह पर्वत प्रणाली पश्चिम से पूरब तक लगभग 7.5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कवर करती है। इसकी लंबाई 3,000 किलोमीटर से ज्‍यादा है और औसत चौड़ाई 300 किलोमीटर तक है। ऊंचाई के मामले में यह निचली घाटियों से लेकर 8,000 मीटर से ज्‍यादा ऊपर तक है। पश्चिम में हिमालय उत्तरी पाकिस्तान से वाया नेपाल और भूटान भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र तक फैला हुआ है। इस शृंखला में तीन उतनी ही व्यापक उप-शृंखलाएं शामिल हैं, जिनमें सबसे उत्तरी और सबसे ऊंची शृंखला ग्रेट हिमालय या इनर हिमालय के नाम से जानी जाती है।

हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र बहुत नाजुक है। हिमालय की भू-विवर्तनिक (जियो-टेक्‍टोनिक) प्रकृति अच्छी तरह से ज्ञात है लेकिन उसे स्वीकार तो किया जाता है लेकिन ठीक से समझा नहीं जाता। हिमालय का भारतीय खंड अब तक बहुत बड़ी लंबाई तय कर चुका है- वर्तमान मेडागास्कर कहे जाने वाले क्षेत्र से लेकर तिब्बती क्रेटन (महाद्वीपीय स्‍थलमंडल का पुराना और स्थिर खंड, जो धरती की दो ऊपरी सतहों क्रस्‍ट और मेंटल से मिलकर बना होता है) तक, जिसके तले वह अब भी सिकुड़ रहा है। इसी वजह से यह एक जटिल, विविध और जोखिम भरी पारिस्थितिकी को जन्‍म देता है, जिससे “तीसरा ध्रुव” बनता है। उत्तर-दक्षिण के अक्ष पर सौ किलोमीटर से थोड़ा अधिक दूरी तक इसमें तेज बदलाव हुआ है, जिसने संपूर्ण ग्‍लेशियल भूभाग को सिंधु-गंगा के सपाट मैदानों में बदल डाला है। यही वह बदलाव है, जो हिमालय में चल रही गतिविधियों, खासकर बुनियादी ढांचे के विकास और उसके चरित्र पर गहरी समझदारी की मांग करता है।

भारतीय और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों की सीमा पर स्थित हिमालयी क्षेत्र का लिथोस्फेरिक सेटअप (स्‍थलमंडलीय ढांचा) बहुत ही जटिल है। हाल के एक अध्ययन के अनुसार, यूरेशियन प्लेट के सापेक्ष भारतीय प्लेट के उत्तर-पूर्वोत्तर में निर्देशित गति हिमालयी तंत्र और आसपास के हिस्सों के भीतर व्यापक टेक्टोनिक विकृति का मुख्य कारण है, जहां प्रतिवर्ष 15-20 सेंटीमीटर का औसत घटाव दर्ज किया गया है।

हिमालयी क्षेत्र में सतह का छोटा होना लगभग 4.5 करोड़ वर्ष पहले शुरू हुआ था, जो आज तक जारी है। इसने कई प्रमुख और क्षेत्रीय टेक्टोनिक फॉल्ट प्रणालियों को जन्‍म दिया है। इसके अलावा बड़ी टेक्‍टोनिक विकृतियां भी पैदा हुई हैं। कुछ प्रमुख टेक्‍टोनिक फॉल्‍ट का बाकायदा दस्‍तावेजीकरण किया गया है, जैसे हिमालयन फ्रंटल थ्रस्ट (एचएफटी), मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी), मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी), साउथ तिब्‍बतन डिटैचमेंट (एसटीडी), और इंडस-सांग्‍पो सुचर जोन (आइटीएसजेड)। ये सभी फॉल्‍ट हिमालय के पूरे दायरे में स्थित हैं (देखें चित्र)। इस क्षेत्र में अतीत में भूकंपों की प्रकृति (4.0 से ज्‍यादा एमएल) बताती है कि निचले और ऊपरी हिमालय में भूकंप का घनत्‍व ज्‍यादा रहा है। ये क्षेत्र क्रमश: एमबीटी और एमसीटी के उत्तर में हैं। एक सप्ताह में एक से ज्‍यादा छोटे भूकंप और प्रतिदिन एक सूक्ष्म भूकंप का औसत यहां लगभग आम है।

हमें यह समझना चाहिए कि कोई भी मानवीय प्रयास इस स्थिति को बदल नहीं सकता। साथ ही यह भी समझना होगा कि पृथ्वी की गहराई में हुई गतिविधि सतह पर विविध बदलावों का कारण बनती है। इस मामले में नदी के किनारे वाले पहाड़ी छज्‍जे कहीं ज्‍यादा असुरक्षित हैं। यहां पुराने भूस्खलन से निकला मलबा फिर से सक्रिय हो सकता है और अगर भारी बारिश हुई, तो यह बेहद जोखिम भरा हो जाता है। ऐसे में जरूरत यह है कि हम अपनी गतिविधियों को भूवैज्ञानिक और जलवायु की वास्तविकता के अनुकूल अंजाम दें और अपनी अर्थव्यवस्था को भी उसी के इर्द-गिर्द बुनें।

चरम मौसमी घटनाएं

हिमालयी तंत्र की अपनी एक विशिष्ट जलवायु है। भारतीय उपमहाद्वीप और तिब्बती पठार की जलवायु पर इसका अत्यधिक प्रभाव है। हिमालय दक्षिण की ओर बहने वाली आर्कटिक की ठंडी, शुष्क हवाओं को रोकता है, जो इस उपमहाद्वीप को अन्य महाद्वीपों में समशीतोष्ण क्षेत्रों की तुलना में काफी गर्म रखता है। यह अवरोध मानसूनी हवाओं को उत्तर की ओर जाने से भी रोकता है जिससे हिमालय के तराई क्षेत्र में भारी बारिश होती है। इसी तरह, वे ईरान में पश्चिमी विक्षोभ को आगे बढ़ने से रोकते हैं जिसके परिणामस्वरूप कश्मीर में बर्फबारी होती है और पंजाब में वर्षा होती है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दुनिया भर में समान रूप से वितरित नहीं है। टेक्टोनिक, भू-आकृतिक, पारिस्थितिक और जलवायु कारकों की परस्‍पर क्रिया के कारण पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र पर्यावास और जलवायु में होने वाले बदलाव के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। हिंदू कुश हिमालय में पिछले 80 वर्षों में लगभग 1.3 डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि हुई है। यहां बर्फबारी में गिरावट आई है और ग्लेशियर भी सिमटे हैं। इसके भावी परिणामों के बारे में सोचना भी भयानक है क्योंकि संयुक्‍त राष्‍ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आइपीसीसी) के एक अध्ययन ने अनुमान लगाया है कि इक्‍कीसवीं सदी का अंत आते-आते हिंदू कुश हिमालय की सतह पर वार्षिक औसत तापमान में लगभग 5.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी, बर्फबारी में कमी आएगी और वार्षिक वर्षा में भी वृद्धि होगी।

बुनियादी ढांचे का बाजार

सड़क और पुल, बिजली, दूरसंचार, सीवेज और कचरा प्रबंधन जैसे ठोस ढांचे और स्वास्थ्य-शिक्षा जैसे सामाजिक ढांचे पहले सरकार का कर्तव्‍य हुआ करते थे, व्यापार-योग्य माल नहीं। सरकारी एजेंसियों का काम इन्हें सुचारू बनाना और प्रबंधन करना होता था। अर्थव्यवस्था के बढ़ते वित्तीयकरण के साथ लोगों के साथ जो चाल चली गई, वह यह थी कि इन आवश्यक सेवाओं को परिसंपत्तियों (ऐसेट) में बदल दिया गया। एक बार जब ये सेवाएं कानूनी रूप से संपत्ति में बदल जाती हैं, तब इनकी खरीद और बिक्री के लिए एक बाजार भी बन जाता है। फिर केंद्र सरकार “बुनियादी ढांचे की सम्मिलित सूची” में किसी भी चीज को “सार्वजनिक उद्देश्य” के नाम पर एक गतिविधि या संपत्ति बताकर डाल देती है, तो निजीकरण के माहौल में यह जबरदस्‍त लालच को जन्‍म देता है जिससे खनन, जल विद्युत परियोजनाओं, सड़कों, ट्रांसमिशन लाइनों और शहरी विकास योजनाओं के निर्माण में तेजी आ जाती है। ऐसे में बांध बनाने वाले निर्माण करते हैं, अपना मुनाफा बनाते हैं और किसी गलत डिजाइन या निर्माण के प्रति जवाबदेही से बचकर निकल लेते हैं।

हिमाचल के किन्नौर में बिलकुल यही हुआ, जहां एक विवादास्पद डेवलपर आधा अरब डॉलर की रकम लेकर चंपत हो गया, जबकि लोग आज तक उसका परिणाम भुगत रहे हैं। सड़क बनाने वाले और टोल मालिक खूब पैसा कूट रहे हैं और सरकारी एजेंसियों के मानदंडों का भी खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं। इसका सबसे बुरा पक्ष है ऐसे बुनियादी ढांचे का निर्माण, जिसकी कोई जरूरत नहीं है और जो लोगों के लिए कम से कम उपयोग का है, लेकिन कर्जदाताओं और डेवलपर्स के लिए बहुत फायदेमंद है। अंत में होता यह है कि गरीबों को ही उसकी कीमत चुकानी पड़ती है और अकसर इन परियोजनाओं को संकट से भी वे ही उबारते हैं, जब ये परिसंपत्तियां ‘गैर-निष्पादित संपत्ति’ (एनपीए) में तब्‍दील हो जाती हैं। बुनियादी ढांचे पर सरकार का जोर 13 खरब डॉलर के राष्ट्रीय मास्टरप्लान ‘गति शक्ति’ में दिखता है। राष्ट्रीय संपत्तियों के मौद्रीकरण की योजना का उद्देश्य सभी परिसंपत्तियों का निजीकरण है। जैसा कि सरकार की वेबसाइट कहती है, बुनियादी ढांचा ही देश को 26 ‌ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था तक पहुंचाने की कुंजी है!

चीन के साथ होड़

हमारी सरकार के अधिकांश बयानों में चीन को पछाड़ने और सीमा विवाद से जुड़ी जुमलेबाजी शामिल रहती है, जबकि उसके साथ भारत का 100 अरब डॉलर से अधिक का व्यापार घाटा है। हिमालय के संदर्भ में, सीमा के दोनों ओर का भूविज्ञान नाटकीय रूप से अलग है। इस बात को समझे बगैर हमारी सरकार यदि सड़क के बदले सड़क, बांध के बदले बांध और सुरंग के बदले सुरंग बनाती जाएगी तो नुकसान हमारा ही होगा। बिना दिमाग लगाए सड़कों को चौड़ा करने की मूर्खतापूर्ण कवायद किसी संकट के दौरान हमें और कमजोर बनाएगी। स्थानीय समुदाय की जरूरतों पर विचार नहीं करने से हम और कमजोर होंगे। सीमावर्ती इलाकों के लोगों में जो असंतोष पैदा होगा, सो अलग।

पर्यावरण का राजनीतिक अर्थशास्‍त्र

हिमालयी क्षेत्र की नाजुक स्थिति को लोग अगर संवेदनशील ढंग से मोटे तौर पर समझ भी लें, तब भी हमारे नीति-निर्माता या तो वास्तविकता की अनदेखी कर देते हैं या नीतियां बनाते वक्‍त और कानून को लागू करते वक्‍त उनके निहित स्‍वार्थ भारी पड़ जाते हैं। उस मंत्री का ही उदाहरण लें, जिसने चारधाम यात्रा के लिए पर्यावरणीय मंजूरी में देरी पर “नाखुशी” जताई थी। एक शक्तिशाली मंत्री की नाराजगी उचित जांच-पड़ताल की प्रक्रिया की अनदेखी तय कर सकती है। उन्‍हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तथाकथित “विकास” परियोजना के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों को समझने में कितना समय लगेगा। ऐसा ही उदाहरण उस मुख्यमंत्री का है, जिसने पर्यावरण संबंधी चिंताओं को दूर करने की मांग उठाई थी ताकि नदी का बेतरतीब खनन किया जा सके। इस अड़चन को दूर करने का उसने बाकायदा श्रेय भी लिया था। आज उन्‍हीं नदियों पर बनाए गए पुल बाढ़ में बह रहे हैं।

इसका सबसे सटीक उदाहरण चंडीगढ़ से मनाली का एनएच 21 है। पर्यावरणीय निगरानी से बचने के लिए इस हाइवे को सौ किलोमीटर से भी छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया गया। गोविंदसागर अभयारण्य को डी-नोटिफाई कर दिया गया। स्‍थानीय लोगों ने अंधाधुंध मलबा डालने से नदी धाराओं को अवरुद्ध करने के विनाशक परिणामों पर लगातार सत्ता के गलियारों और न्यायपालिका तक आवाज उठाई। नतीजा यह हुआ कि जो लोग सत्ता को आईना दिखा रहे थे, उन्‍हें ही सत्ता की मार झेलनी पड़ी। 

हिमालय की भू-विवर्तनिक स्थिति के बारे में सारा ज्ञान उपलब्‍ध है, इसके बावजूद चरम मौसमी घटनाओं के बढ़ते दुहराव, वैश्वीकरण और विकास के मौजूदा स्‍वरूप के मिलेजुले परिणामों पर प्रकृति को दोष देना सबसे आसान काम है। सरकार यही हल्‍ला कर रही है और इसके बहाने एक ऐसा नैरेटिव गढ़ रही है जिससे आपदा कार्रवाई के नाम पर खर्च को और बढ़ाया जा सके। इस बीच, वे सभी लोग जिन्हें उनके गलत कामों के लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए था, अपनी अगली परियोजना और वित्तीय विकास की योजनाएं बनाने में व्यस्त हैं। भुगत कौन रहा है? आम लोग, और वे लोग ज्‍यादा भुगत रहे हैं जो हिमालय को सबसे ज्‍यादा समझते हैं यानी पहाड़ के लोग।

श्रीधर राममूर्ति

(लेखक भू-विज्ञानी हैं और एनविरॉनिक्‍स ट्रस्‍ट से सम्‍बद्ध हैं)

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad