तीन साल बाद उसकी तीखी भविष्यवाणी सही साबित हुई और हमने 36 विमानों के लिए 8.78 बिलियन यूएस डॉलर का सौदा कर लिया। सच में कहें तो इस विमान को लेकर कोई समस्या नहीं है- यह बहुत बेहतर युद्धक विमान है। समस्या इसके अर्थशास्त्र को लेकर है- यह भारतीय रक्षा कवच और भारयी वायुसेना में दो इंजन वाले जेट को लेकर जुनून में यह सबसे बड़ा छेद है।
एक भी ऐसा भारतीय विश्वविद्यालय नहीं है जहां रक्षा अर्थशास्त्र पढ़ाया जाता है। कोई ब्यूरोक्रेट नहीं है, जिसके पास इस विषय में प्रशिक्षण या डिग्री होती है। समस्या यह है कि अन्य किसी भी अत्याधुनिक दो इंजनों वाले फाइटर की तरह ही राफेल बेहद महंगा और खर्चीला है। इसे खरीदने और इस्तेमाल करने के लिए बजट आकाश छूएगा। एक विमान की कीमत 244 मिलीयन यूएस डॉलर है। राफेल सौदा भारतीय वायुसेना के इतिहास में अब तक सबसे महंगा सौदा है। जब राफेल को 2012 में इस विमान की खरीद का कांट्रैक्ट मिला था, तब प्रति विमान कीमत 80 मिलीयन यूएस डॉलर आंकी गई थी। 126 विमान 10 बिलीयन यूएस डॉलर में खरीदे जाने थे। ताजा सौपा 300 फीसद ज्यादा कीमत के सौदे पर हुआ है। फिर भी सरकार तर्क दे रही है कि कठोर तरीके से सौदेबाजी कर ढेरों पैसा बचाया गया है।
इस सौदे में कई बातें संदेहजनक हैं। राफेल के लिए 244 यूएस डॉलर की कीमत यथार्थपरक है। ऐसे में यह कहना कि फ्रांस ने कीमत में 50 फीसद कमी की है- आर्थिक लिहाज से संभव नहीं लगता। इसके लिए सौदे में ऑफसेट्स शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जिसे हमारे ब्यूरोक्रेट्स मान रहे हैं कि कीमतों में 50 फीसद कमी की गई है। सौदे के तहत भारत सरकार जो भुगतान करेगी, उसका 50 फीसद का निवेश भारत के उद्योग में किया जाएगा।
ऑफसेट्स वाले सौदों में अनुभव बेहद खराब रहा है। इससे भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। देश को 200 फीसद ज्यादा भुगतान कर सौदा करना पड़ता है- इस उम्मीद में कि आधी रकम आफसेट्स के तौर पर वापस मिल जाएगी। इसी आधार पर पिछले दशक में जेट
एयरवेज और एयर इंडिया ने 777-300ईआर एयरलाइनर खरीदे थे। जेट एयरवेज को 150 फीसद ज्यादा चुकानी पड़ी, क्योंकि से आफसेट्स की जरूरत नहीं थी। एयरइंडिया ने भी 150 फीसद रकम ज्यादा चुकानी। लेकिन यह हिसाब अभी तक नहीं हो सका कि खरीद की शर्तों के अनुसार वह रकम आखिर इन्वेस्ट कहां की गई।
अब आईए जितने राफेल विमान खरीदे गए, उनकी बात की जाए। 36 विमान खरीदे गए। लड़ाई की स्थिति में सिर्फ दो-तिहाई का इस्तेमाल किया जा सकता है। बाकी को मेंटीनेंस के लिए रखना पड़ता है। इस लिहाज से 24 या 36 विमानों का जखीरा लड़ाई की स्थिति में खास कुछ नहीं कर पाएगा।
साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि क्या किसी लड़ाकू विमान को एमएमआरसीए प्रतियोगिता के लिए शार्टलिस्ट किया गया है या नहीं। पश्चिमी देश प्रणाली-दर-प्रणाली दृष्टिकोण के साथ काम करते हैं। इसके तहत युद्धक विमान एक सिरा की तरह होगा है। इसकी लड़ाकू क्षमता के तहत खुफिया तंत्र, संचार तंत्र और वायु सुरक्षा कांप्लेक्स को परखा जाता है। भारत में इस तरह का कुछ भी नहीं होता। दरअसल, राफेल हो या अन्य कोई पश्चिमी लड़ाकू विमान- उसका गेम-चेंजर होना सूचनाओं को ग्रहण करने की उसकी क्षमता पर निर्भर करता है, जैसे कि अवाक्स एयरक्राफ्ट, जमीन पर स्थित वायु सुरक्षा प्रणाली और कुछ मामलों में जमीन पर आगे बढ़ रही सेना। भारत ने 10 साल पहले एक इस्त्राइली कंपनी के साथ स्वदेशी डाटा-लिंक तैयार करने की परियोजना का करार किया था। यह कठिन काम था। क्योंकि इसके तहत न सिर्फ कई गीगाबाइट डाटा और वीडियो पलक झपकते ट्रांसमिट किए जाने थे, बल्कि वे डाटा दुश्मन के हाथ न लग पाएं- इसका भी इंतजाम करना था। इस्त्राइली कंपनी बुरी तरह फेल रही, क्योंकि इस तकनीक को इस्त्राइली मिसाइल तकनीक की तुलना में बेहद संवेदनशील माना गया। दरअसल, इस तकनीक को अमेरिका बेहद संवेदनशील मानता है और इसे अपने साथी देशों कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के साथ भी शेयर नहीं करना चाहता। बाद में यह कॉन्ट्रैक्ट डीआरडीओ को दिया गया, क्योंकि भारत के लिए कोई देश इसे विकसित नहीं करना चाहता था। इस काम में डीआरडीओ की कोई विशेषज्ञता नहीं है, इसलिए कहा जा सकता है कि इस दिशा में भी आगे कोई काम नहीं होने वाला।
बहरहाल, पश्चिमी देशों में एक लड़ाकू विमान अपने सेवाकाल में अपनी खरीद की कीमत का तीन गुना खर्च कराता है। इस लिहाज से राफेल विमान पर हमें अगले 30 साल में 35 बिलीयन यूएस डॉलर खर्च करने होंगे- यह ऐसे एक विमान के लिए होगा, जिसकी 70 फीसद क्षमताएं हमारी पहुंच के बाहर रहेगी और चीन या पाकिस्तान के खिलाफ हम इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। जाहिर है, इस सौदे को लेकर इस्लामाबाद में शैंपेन की बोतलें तो खुलेंगी ही।
(लेखक नई दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज के सीनियर फेलो हैं।)