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विश्व जल दिवस पर एक सवाल: क्या अगली पीढ़ी को पानी मिलेगा?

जल, यह सरल, पारदर्शी द्रव्य, हमारे अस्तित्व का मूल आधार है। पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति से लेकर आज तक, जल...
विश्व जल दिवस पर एक सवाल: क्या अगली पीढ़ी को पानी मिलेगा?

जल, यह सरल, पारदर्शी द्रव्य, हमारे अस्तित्व का मूल आधार है। पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति से लेकर आज तक, जल ने न केवल हमारी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा किया है, बल्कि हमारी सभ्यताओं, संस्कृतियों और समाजों को भी आकार दिया है। भारतीय परंपरा में, जल को 'जीवन' के समकक्ष माना गया है। हमारे वेदों और पुराणों में जल की महिमा का वर्णन मिलता है, जहाँ नदियों को माता का दर्जा दिया गया है। गंगा, यमुना, सरस्वती जैसी नदियाँ हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, जो हमारी आध्यात्मिकता और धार्मिक आस्थाओं का केंद्र रही हैं।

आज, जब हम विश्व जल दिवस मना रहे हैं, यह आवश्यक है कि हम जल की इस महत्ता को पुनः समझें और वर्तमान में उत्पन्न हो रहे जल संकट पर गंभीरता से विचार करें। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में विश्व की लगभग 26% आबादी को स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता नहीं है। यह आंकड़ा हमें चेतावनी देता है कि यदि हमने समय रहते उचित कदम नहीं उठाए, तो भविष्य में यह संकट और भी विकराल रूप ले सकता है।

 

भारत, जो विश्व की 17% जनसंख्या का घर है, के पास विश्व के ताजे जल संसाधनों का केवल 4% ही है। यह असंतुलन हमारे जल संसाधनों पर अत्यधिक दबाव डालता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, देश के कई हिस्सों में भूजल स्तर में निरंतर गिरावट देखी जा रही है, जो हमारे लिए गंभीर चिंता का विषय है।

 

जल संकट का प्रभाव केवल पेयजल तक सीमित नहीं है। कृषि, जो हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जल पर अत्यधिक निर्भर है। यदि जल की उपलब्धता में कमी आती है, तो इसका सीधा प्रभाव हमारी खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। एक रिपोर्ट के अनुसार, जल संकट के कारण 2050 तक वैश्विक खाद्य उत्पादन का आधे से अधिक हिस्सा खतरे में पड़ सकता है, जिससे निम्न आय वाले देशों के सकल घरेलू उत्पाद में 15% तक की हानि हो सकती है।

 

यह संकट केवल भारत तक सीमित नहीं है। विश्व के कई देश, जैसे दक्षिण अफ्रीका, चीन, ऑस्ट्रेलिया, और मध्य पूर्व के देश भी गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में विश्व की लगभग 50% आबादी, अर्थात् चार अरब लोग, वर्ष में कम से कम एक महीने जल संकट का सामना करते हैं। यह आंकड़ा अगले 27 वर्षों में बढ़कर 500 करोड़ तक पहुँचने की संभावना है।

 

इस विकट परिस्थिति में, विभिन्न देशों की सरकारें और संस्थाएँ जल संरक्षण के लिए विभिन्न योजनाएँ और कार्यक्रम चला रही हैं। भारत सरकार ने भी इस दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। 'अटल भूजल योजना' (अटल जल) का शुभारंभ 2019 में किया गया, जिसका उद्देश्य सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से जल संकट वाले क्षेत्रों में भूजल संसाधनों के प्रबंधन में सुधार करना है। इस योजना के तहत 7 राज्यों के प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन सहित भूजल संसाधनों के प्रबंधन में सुधार करने के उद्देश्य से कार्य किया जा रहा है।

 

इसके अलावा, 'प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना' (पीएमकेएसवाई) का उद्देश्य खेत में पानी की भौतिक पहुँच बढ़ाना और सुनिश्चित सिंचाई के तहत खेती योग्य क्षेत्र का विस्तार करना है। 'जल शक्ति अभियान' के तहत, वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देने के लिए देश के सभी जिलों में विभिन्न गतिविधियाँ चलाई जा रही हैं।

 

समाज और स्कूलों की भूमिका भी इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है। जल संरक्षण की शिक्षा बचपन से ही दी जानी चाहिए। स्कूलों में जल संरक्षण के प्रति जागरूकता कार्यक्रम, वर्षा जल संचयन प्रणाली की स्थापना, और छात्रों को जल के महत्व के बारे में शिक्षित करना आवश्यक है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को जल के महत्व को समझना होगा और उसके संरक्षण के लिए सक्रिय भूमिका निभानी होगी।

 

केवल सरकारों या संस्थानों की नीतियाँ पर्याप्त नहीं हैं, जब तक जल संरक्षण आम नागरिक के जीवन का हिस्सा न बन जाए। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हर बार जब हम बेवजह नल खुला छोड़ते हैं, या RO से बहते अतिरिक्त पानी को बर्बाद करते हैं, तब हम सिर्फ पानी नहीं, आने वाली पीढ़ियों की उम्मीदों को भी बहा देते हैं। यह आवश्यक है कि हम घरों में रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम अपनाएँ, गाड़ियों को बाल्टी से धोएँ, और स्नान में जल की न्यूनतम खपत करें। छोटे-छोटे प्रयासों का सम्मिलित प्रभाव अत्यंत व्यापक हो सकता है।

 

विश्व के कई शहर पहले ही इस संकट की भयावहता झेल चुके हैं। दक्षिण अफ्रीका का केप टाउन 2018 में "डे ज़ीरो" के कगार पर पहुँच गया था, जब नगर प्रशासन ने यह घोषणा की कि अब शहर का जल भंडार शून्य हो सकता है। अमेरिका का फ्लिन्ट शहर भी जल प्रदूषण की गंभीर त्रासदी से गुज़रा, जहाँ पाइपलाइन से सीसा मिश्रित पानी की आपूर्ति ने हजारों लोगों को बीमार कर दिया। मेक्सिको सिटी और साओ पाउलो जैसे महानगर भी अब भूजल पर अत्यधिक निर्भरता के कारण गंभीर संकट की ओर बढ़ रहे हैं। यह स्पष्ट है कि अगर महानगरों में जल प्रबंधन नहीं सुधारा गया, तो 'डे ज़ीरो' कोई कल्पना नहीं, बल्कि वास्तविकता बन जाएगी।

 

भारत की पारंपरिक जल संरचनाएँ इस संकट का समाधान प्रस्तुत करती हैं। राजस्थान के जोहड़, महाराष्ट्र के कुंड, गुजरात की बावड़ियाँ, और हिमालयी क्षेत्रों के धाराएँ – ये सब स्थानीय बुद्धिमत्ता और पर्यावरण के अनुकूल सोच का प्रतीक थीं। आज ज़रूरत है इन्हें पुनः अपनाने की। बुंदेलखंड और शेखावाटी जैसे सूखा-प्रवण क्षेत्रों में इन उपायों को पुनर्जीवित कर सकारात्मक परिणाम देखे गए हैं। यदि शहरी योजनाओं में पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक को समाहित किया जाए, तो जल संकट से निपटने की दिशा में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है।

तकनीक भी इस दिशा में उपयोगी हो सकती है, बशर्ते उसे व्यापक स्तर पर अपनाया जाए। ग्रे वॉटर रीसायक्लिंग (grey water recycling), जिससे रसोई और स्नानघर के पानी का पुनः उपयोग संभव होता है, अब स्मार्ट सिटी योजनाओं का हिस्सा बन रहा है। इज़राइल जैसे देश समुद्री जल को मीठे पानी में बदलने (desalination) की तकनीक में अग्रणी हैं। सिंगापुर का ‘न्यू वॉटर प्रोजेक्ट’ पूरी दुनिया के लिए उदाहरण है, जहाँ सीवेज जल को शुद्ध कर पुनः पीने योग्य बनाया जाता है। भारत को भी अपने शहरों में इन नवाचारों को अपनाना होगा, तभी हम भविष्य के संकट से बच सकते हैं।

 

जल संकट केवल राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है, यह वैश्विक सहयोग की माँग करता है। दुनिया के कई देशों ने साझा नदियों के जल बँटवारे को लेकर संघर्ष देखे हैं। भारत और बांग्लादेश के बीच गंगा और तीस्ता जल विवाद, भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि, इथियोपिया और मिस्र के बीच नील नदी विवाद – यह सब दर्शाते हैं कि जल अब भू-राजनीतिक चुनौती बन चुका है। जल कूटनीति (Water Diplomacy) भविष्य की विदेश नीति का अहम हिस्सा बनने जा रही है। इसलिए आवश्यक है कि देश जल को युद्ध का कारण नहीं, सहयोग और समझौते का माध्यम बनाएँ।

 

इस लेख का उद्देश्य केवल भयावह तस्वीर प्रस्तुत करना नहीं है, बल्कि यह बताना भी है कि समाधान हमारे पास हैं – बस ज़रूरत है राजनीतिक इच्छाशक्ति, सामाजिक भागीदारी और व्यक्तिगत जागरूकता की। स्कूलों को चाहिए कि जल संरक्षण की शिक्षा को केवल एक अध्याय न मानें, बल्कि छात्रों को जल अभियानी (Water Ambassadors) के रूप में विकसित करें। समाज में स्वयंसेवी संगठन जल स्रोतों की सफाई और पुनर्जीवन का कार्य करें। पंचायतों को चाहिए कि स्थानीय तालाबों और कुओं को फिर से जीवित करें। जब तक यह संघर्ष जन आंदोलन नहीं बनेगा, तब तक प्रयास अधूरे रहेंगे।

आज जब हम 22 मार्च को 'विश्व जल दिवस' के रूप में मना रहे हैं, तो हमें एक वचन अपने-आप से देना चाहिए – हम जल का उपयोग ज़िम्मेदारी से करेंगे, इसकी एक-एक बूँद को बचाने का प्रयास करेंगे, और समाज में इसकी अहमियत को प्रचारित करेंगे। क्योंकि यह केवल एक संसाधन नहीं, जीवन का स्रोत है – और जीवन की रक्षा से बड़ा कोई धर्म नहीं।

(लेखक स्वतंत्र स्तंभकार है।लेखक के विचार निजी हैं।)

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