जुकरबर्ग का दावा है कि महाराष्ट्र में गणेश नाम के इस किसान ने कुछ दिन फेसबुक की फ्री बेसिक्स सेवा का ट्रायल लिया और इसके बाद जो कुछ हुआ उसे देखकर हरित क्रांति के पुरोधा भी शरमा जाएं। गणेश खेती के नए तरीके सीख गया है जिससे उसकी पैदावार दोगुनी हो गई। यही है फेसबुक की फ्री बेसिक्स सर्विस का प्रताप। इसके तहत फेसबुक और इससे जुड़ी कुछ बेसिक इंटरनेट सेवाएं निशुल्क मुहैया कराई जाती हैं जबकि बाकी वेबसाइटों के लिए डेटा चार्ज लगेगा। इसी पर बहस छिड़ी है कि क्या कुछ सेवाओं को तरजीह मिलने से 'नेट निरपेक्षता' का हनन नहीं होगा? फेसबुक का दावा है कि इस तरह वह इंटरनेट से वंचित लोगों के लिए नई संभावनाओं के दरवाजे खोलेगा। दरअसल, फेसबुक ने रिलायंस के साथ मिलकर भारत में फ्री बेसिक्स इंटरनेट की शुरु की थी. जिस पर टेलीकॉम नियामक ट्राई ने रोक लगा दी है। इसी के पक्ष में समर्थन जुटा रहे हैं जुकरबर्ग।
सवाल देश में फेसबुक की तरक्की का है। इसलिए उन्होंने अपनी मुहिम के लिए देश के गरीब किसान को चुना है। वैसे इस तरह की और भी इस प्रचार अभियान में शामिल हैं। शायद उन्हें किसी ने बता दिया कि 'इंडिया शाइनिंग' से लेकर अच्छे दिनों की आहट वाले तमाम प्रचार अभियान गरीब चेहरों पर लिपटी दिव्य मुस्कान के भरोसे ही आगे बढ़े हैं। यूं तो फेसबुक को भारत में कभी प्रचार की जरूरत नहीं पड़ी। बगैर प्रचार ही फेसबुक करीब 13 करोड़ लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन गया। फेसबुक के जरिये दोस्ती होने लगी, प्रेम और शादियां होने लगीं। ठगी, साजिश और हत्याओं में भी फेसबुक के एंगल तलाशे जाने लगे। हर आदमी रिपोर्टर, प्रकाशक क्या बना न्यूज ब्रेक भी यहीं होने लगे। जुकरबर्ग को तो खुश होना चाहिए भारतीयों को फेसबुक की काफी लत लग चुकी है और इस तलब के कम होने की फिलहाल कोई वजह भी नजर नहीं आती। लेकिन जुकरबर्ग इतने से संतुष्ट नहीं हैं। उनकी नजर उन 100 करोड़ भारतीयों पर है जो अभी इंटरनेट की पहुंच से बाहर हैं।
भारतीय जनता के नाम जुकरबर्ग के पत्र में किसान गणेश का इस्तेमाल किसानों को लेकर भारत के नीति-निर्माताओं द्वारा बरसों से अपनाई जा रही सोच का ही एक विस्तार है। पूरी उम्मीद है कि जुकरबर्ग के बजाय वह किसी भारतीय विज्ञापन एजेंसी की कल्पना से प्रकट हुआ है। इसलिए महाराष्ट्र में गणेश को खोजना बेमानी होगा। जुकरबर्ग लिखते हैं कि फ्री बेसिक इंटरनेट के इस्तेमाल से गणेश को मानसून की तैयारी के लिए मौसम की जानकारी मिलने लगी। उपज का सही दाम पाने के लिए बाजार भाव भी वह इंटरनेट पर खोजता है। इस तरह गणेश नई फसलों और मवेशियों में निवेश कर रहा है। लेकिन भारतीय कृषि की विडंबना देखिए, फेसबुक के चमत्कार के बावजूद भारतीय किसान का बच्चा नंगे पांव है।
कसूर जुकरबर्ग का नहीं है। पिछले 10-15 वर्षों के दौरान किसानों को मौसम व बाजार भाव की सही जानकारी पहुंचाकर उन्हें 'खुशहाल किसान' के पोस्टर तक ले जाने की तमाम सरकारी योजनाएं चलती रही हैं लेकिन लगात पर 50 फीसदी मुनाफा देने के चुनावी वादे को सरकार असानी से भूल जाती है। मिट्टी की सेहत की जांच के लिए करोड़ों मृदा कार्ड बन गए जो सरकारी रिपोर्ट कार्ड की शोभा बढ़ा रहे हैं। जबकि किसान अपनी सेहत की जांच के लिए एम्स, सफदरजंग के बरामदों में रेंग रहा है। हर साल 12-14 हजार किसान खुदकुशी को मजबूर हैं और जो जिंदा भी है उनकी जिंदगी कर्ज और महंगाई के बीच उलझी है। फिर भी 'खुशहाल किसान' का ये चेहरा तकरीबन हरेक सरकारी प्रचार का अभिन्न अंग रहा है।
कभी सोचा है, इस तरह के इस्तेहार देखकर किसान को कैसा लगता होगा?