“अर्ध-सत्य से सांप्रदायिक एजेंडे में दम भरने का प्रहसन है फिल्म द कश्मीर फाइल्स, पूरा सच तो इससे दीगर, फिल्म में उन्हें छूने तक की कोशिश नहीं”
कहते हैं, अर्ध-सत्य झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है। ऐसा ही एक सत्य यह भी है कि कुशिक्षित व्यक्ति अशिक्षित व्यक्ति से कहीं ज्यादा खतरनाक होता है। अभी जिस फिल्म का सत्ता-प्रेरित उन्माद फैलाया जा रहा है, द कश्मीर फाइल्स इसी सत्य का नवीनतम प्रमाण बन कर आई है। यह फिल्म है ही नहीं, सत्ता के राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए, सत्ता की शह और संभवत: उसके धन-सहयोग से किया गया कुशिक्षित व्यक्तियों का प्रहसन है। इसमें कलाकारों ने नहीं, सत्ता की अनुकंपा के प्यासे उसके ज्ञात पैदल सिपाहियों ने काम किया है और सबने मिल कर इतिहास का दरिद्रतम इस्तेमाल किया है। भाजपा शासित राज्य केंद्र के इशारे पर अपनी विचारधारा फैलाने के लिए सार्वजनिक धन का बेजा इस्तेमाल कर, इसे मनोरंजन-कर से मुक्त कर रहे हैं।
आइए, हम कश्मीर की फाइल खोलते हैं - उसी हद तक, जिस हद तक एक छोटे से लेख में ऐसा करना संभव है।
बात उस कश्मीर की है जो एक बड़ी नाजुक घड़ी में, बड़े नाजुक तरीके से नवजात स्वतंत्र भारत में शामिल हुआ था- उस भारत में जिसे दो टुकड़ों में बांट कर, लहूलुहान छोड़ दिया गया था; उस भारत में जो आपादमस्तक सांप्रदायिक विद्वेष की आग में जलता, छटपटा रहा था। तब मन से टूटा, प्रशासन से बिखरा और गृहयुद्ध की कगार पर खड़ा भारत अंधकार से अंधकार की तरफ जाने को अभिशप्त था। ऐसे में कश्मीर के हिंदू महाराजा हरि सिंह अपनी मुसलमान प्रजा को लेकर अचानक ही भारत के दरवाजे आ पहुंचे कि पाकिस्तानी फौज हमें रौंद डाले, इससे पहले हमें पनाह दीजिए। जो खुद कहीं पनाह ढूंढ रहा था, उस भारत से पनाह की मांग थी यह!
अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण न पाकिस्तान के मुहम्मद अली जिन्ना, न तब के हमारे आका अंग्रेज, न अमेरिका समेत यूरोप के अन्य दादा देश, न साम्यवादी रूस ही चाहता था कि कश्मीर भारत को मिले। हम भी और हमारी रियासतों का एकीकरण करने में जुटे हमारे सरदार वल्लभभाई पटेल भी कश्मीर को लेकर तब बहुत व्यग्र नहीं थे। इसलिए महाराजा हरि सिंह की याचना की अनदेखी की ही जा सकती थी। लेकिन देश का नेतृत्व तब मजबूत हाथों में था। इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में कश्मीर का मतलब, उसकी भौगोलिक स्थिति का रणनीतिक महत्व तथा पाक-ब्रिटिश-अमेरिकी त्रिकोण को अपनी सीमा पर जगह न बनाने देने की ठोस राष्ट्रीय समझ के कारण हरि सिंह की याचना को राजनीतिक शक्ल दी गई, उनसे विलय के संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करवाए गए। कश्मीरी जनमत के प्रतिनिधि शेख अब्दुल्ला और उनकी नेशनल कॉन्फ्रेंस को उसके साथ जोड़ा गया और फिर कहीं जा कर हमारी फौज ने वहां कदम रखा।
महाराजा हरि सिंह चालाकी में मात खा कर, लाचारी में हमारे पास आए थे लेकिन यह मौका गंवाने को हम तैयार नहीं थे। इसलिए उनके साथ विलय की संधि में ऐसी कुछ बातें भी स्वीकार की गईं जिनके कारण दूसरी रियासतों की तुलना में कश्मीर की विशेष राजनीतिक स्थिति बनी। जवाहरलाल नेहरू को अंदाजा था कि यह विशेष स्थिति आगे कुछ विशेष परेशानी पैदा कर सकती है। इसलिए दूरंदेशी से शेख अब्दुल्ला तथा उनके दूसरे नुमाइंदों को संविधान सभा का सदस्य बना कर देश की मुख्यधारा से जोड़ा गया और जिस संविधान सभा ने देश का संपूर्ण संविधान तैयार किया था, रियासतों के विलय को कानूनी जामा पहनाया था, उसे ही कश्मीर के वैधानिक विलय का माध्यम भी बनाया गया। अनुच्छेद 370 कश्मीरियों ने नहीं, भारत की संविधान सभा ने बनाई और पारित की। ये सब इतिहास के वे पन्ने हैं जिनका नारेबाजों द्वारा नहीं, अध्येताओं द्वारा गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए।
इस विलय को पहली चोट हिंदुत्ववादियों की तरफ इसकी सांप्रदायिक कुंडली लिखने का अभियान चलाकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने दी। कुछ इसकी प्रतिक्रिया में, कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण, जिसमें सांप्रदायिकता का थोड़ा तड़का भी लगता रहता था, इसे दूसरी चोट शेख अब्दुल्ला ने दी। जवाहरलाल ने अपने इस प्रिय मित्र को तत्क्षण जेल में डाल दिया। इसे तीसरी चोट सारे राज्यों को अपनी मुट्ठी में रखने की मूढ़तापूर्ण कांग्रेसी सोच ने दी। एक अकेले जयप्रकाश नारायण थे जिन्होंने उस दौर में हर पक्ष को झकझोरने और लोकतांत्रिक पटरी पर देश को रखने की जी तोड़ कोशिश की।
फिल्मी प्रहसन द कश्मीर फाइल्स में इन सबका का कोई लेश भी नहीं मिलता है। यह कोई दूसरा ही कश्मीर है जिसकी मनगढ़ंत कहानी सुनाई जा रही है। जहां तक कश्मीरी पंडितों का सवाल है, कश्मीर में उनका हजारों साल का इतिहास है। 1990 से पहले कभी, कहीं भी उन पर हिंदू होने के कारण जुर्म-ज्यादती का प्रकरण नहीं मिलता है। जिस राज्य में कोई 98 प्रतिशत मुसलमान हों, वहां 2-3 प्रतिशत हिंदू आबादी महफूज ही नहीं रही बल्कि महत्वपूर्ण आवाज बनकर रही, यही बताता है कि कश्मीर सच में ‘धरती पर स्वर्ग’ था। हम उस अभागे मुल्क के लोग हैं जिन्हें खून में सराबोर आजादी मिली। हिंदुत्ववादियों और इस्लामी ताकतों द्वारा सांप्रदायिकता को धर्म का जामा पहनाकर, देश को जब आग में झोंका जा रहा था, कश्मीर में सौहार्द बना रहा था। महात्मा गांधी ने वैसे ही नहीं कहा था कि इस अंधकार में कश्मीर उम्मीद की एक किरण है। जवाहरलाल, सरदार, जयप्रकाश, लोहिया जैसे सब लोगों ने यह बात रेखांकित की है कि कश्मीर भारत के सह-अस्तित्व का प्रमाण भी है और उसकी कसौटी भी। यह कश्मीर भी इसकी फाइल्स बनाने वालों को नहीं दिखाई दिया। उन्हें दिखाई दिया कश्मीरी पंडितों का पलायन और उसमें मुसलमानों की, कांग्रेसी राज्य की भूमिका। ऐसा भी कोई अध्ययन हो ही सकता है कि जो टुकड़ों से पूरी तस्वीर बनाना चाहे। तब सवाल इतना ही रहता है कि आपके अध्ययन में ईमानदारी है या तरफदारी? इस फिल्मी प्रहसन का ईमानदारी से कोई नाता है ही नहीं, वरना इसे पहली खोज तो यही करनी चाहिए थी कि 1990 में ऐसा क्या हुआ कि कश्मीरी पंडितों को वहां से भागना पड़ा?
उस दौर में वी.पी. सिंह की अल्पमत सरकार को साम्यवादियों और भाजपाइयों ने समर्थन दे कर खड़ा रखा था, ताकि कांग्रेस को किनारे रख कर, अपना एजेंडा पूरा करवाया जा सके। वी.पी. सिंह अपनी सत्ता बचाते हुए राष्ट्रीय धारा को सांप्रदायिकता से बचाने की कसरत करते रहे। अभी उनकी सरकार बनी ही थी कि उनके गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रूबाइया का अपहरण आतंकवादियों ने कर लिया। उन्होंने अपने 5 साथियों की रिहाई की शर्त पर गृह मंत्री की बेटी को छोड़ने की बात रखी। उनकी शर्त मान ली गई। एक अच्छा लेकिन कमजोर प्रधानमंत्री देश के लिए कितना बुरा हो सकता है, वी.पी. सिंह इसके उदाहरण बने। लेकिन यहां यह कहना भी जरूरी है कि भाजपा ने आतंकियों की सरकारी रिहाई के कायराना फैसले का कभी विरोध नहीं किया और इस मौके का फायदा उठा कर अपनी पसंद के राज्यपाल जगमोहन की नियुक्ति कश्मीर में करवा ली। यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि जगमोहन पहले कांग्रेस की पसंद से राज्यपाल बने थे।
रूबाइया-प्रकरण ने वह जमीन तैयार कर दी थी जिस पर खड़े होकर अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार ने कंधार में वही किया जो वी.पी. सिंह ने रूबाइया-प्रकरण में किया था। कश्मीर में जगमोहन का दूसरा कार्यकाल पहले से भी ज्यादा बुरा रहा। बुरा इस अर्थ में नहीं कि वे कश्मीर को संभाल नहीं सके, बल्कि इस अर्थ में कि वे कश्मीर को भाजपा के एजेंडे के मुताबिक सांप्रदायिकता से सराबोर कर गए। वे जगमोहन ही थे जिन्होंने मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को बर्खास्त करवाया; वे जगमोहन ही थे जिन्होंने आतंकियों के लिए कश्मीर को चारागाह बनने से रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया क्योंकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भाजपा की रणनीति थी; वे जगमोहन ही थे जिन्होंने डरे-घबराए कश्मीरी पंडितों को हिम्मत और संरक्षण देने के बजाए उन्हें कश्मीर छोड़ने की सलाह और सुविधा दी। कश्मीरी पंडितों को पलायन के बाद कितनी ही सुविधाओं का लालच दिखाया गया।
द कश्मीर फाइल्स वालों को यह सारा इतिहास दिखाई नहीं दिया क्योंकि यह सब दिखाना उनके एजेंडे में था ही नहीं। फिल्म को तो यह कहना चाहिए था कि 1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ अनेक मुसलमान कश्मीरी भी मारे गए। फिल्म नहीं बताती है कि मुहम्मद यूसुफ हलवाई कौन था और क्यों मारा गया? जी.एम. बटाली पर घातक हमला क्यों हुआ और फिर गुलशन बटाली कैसे मारे गए? एक मोटा अनुमान बताता है कि कश्मीर में कोई 25 हजार मुस्लिम मारे गए तथा 20 हजार ने पलायन किया। मारे गए कश्मीरी पंडितों की संख्या हजार भी नहीं है। अगर आम कश्मीरी मुसलमान, पंडितों के खिलाफ होता, तो यह संख्या एकदम उल्टी होनी चाहिए थी।
सच यह है कि कमजोर भारत सरकार और जहरीले इरादे वाले राज्यपाल के कारण तब पाकिस्तान ने आतंकवादियों की खूब मदद की। कश्मीरी पंडितों को घाटी में कोई रोकना नहीं चाहता था- पाकिस्तान भी नहीं, जगमोहन के आका भी नहीं। उन्हें बचाने कई मुसलमान सामने आए जैसे ऐसी कुघड़ी में हमेशा इंसान सामने आते हैं। और अधिकांश मुसलमान वैसे ही डर कर पीछे हटे रहे जैसे ऐसी कुघड़ी में आम तौर पर लोग रहते हैं। कितने हिंदू संगठित तौर पर मुसलमानों को बचाने गुजरात के कत्लेआम के वक्त आगे आए थे? सभी जगह मनुष्य एक-से होते है। कोई हिम्मत बंधाता है, आचरण के ऊंचे मानक बनाता है तो लोग उसका अनुकरण करते हैं। कोई डराता है, धमकाता है, फुसलाता है तो भटक जाते हैं। यह मनुष्य सभ्यता का इतिहास है। इसलिए खाइयां पाटिए, दरारें भरिए, जख्मों पर मरहम लगाइए, लोगों को प्यार, सम्मान व समुचित न्याय दीजिए। इससे इतिहास बनता है।
हम यह न भूलें कि हर इतिहास के काले और सफेद पन्ने होते हैं, कुछ भूरे व मटमैले भी। वे सब हमारे ही होते हैं। कितनी फाइलें खोलेंगे आप? दलितों-आदिवासियों पर किए गए बर्बर हमलों की फाइलें खोलेंगे? भागलपुर-मलियाना-मेरठ की फाइलें खोलेंगे? गुजरात दंगों की? सत्ताधीशों की काली कमाई की? स्विस बैंकों की? जैन डायरी की? जनता पार्टी की सरकार को गिराने की? दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की? संघ परिवार को मिले व मिल रहे विदेशी दानों की? भाजपा को मिल रहे पैसों की? कोविड-काल में हुए चिकित्सा घोटालों की? सीबीआइ और दूसरी सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल की? कठपुतली राज्यपालों की?
आप थक जाएंगे इतनी फाइलें पड़ी हैं! इसलिए इतना ही कीजिए कि अपने मन के अंधेरे-कलुषित कोनों को खोलिए और खुद से पूछिए : क्या सच्चाई की रोशनी से डर लगता है? डरे हुए लोग एक डरा हुआ देश बनाते हैं। कला का काम डराना व धमकाना नहीं, हिम्मत व उम्मीद जगाना है।
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)