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राष्ट्रपति चुनाव: हमें चाहिए ऐसा राष्ट्रपति

“संसदीय प्रणाली की राजनीतिक व्यवस्था का मुखिया ऐसा हो, जो संसद से बंधा न हो, सत्ता के खेल न खेलता...
राष्ट्रपति चुनाव: हमें चाहिए ऐसा राष्ट्रपति

“संसदीय प्रणाली की राजनीतिक व्यवस्था का मुखिया ऐसा हो, जो संसद से बंधा न हो, सत्ता के खेल न खेलता हो”

अब सारे पत्ते खुल गए और यह रहस्य भी कि विपक्ष के पास कोई पक्ष है ही नहीं! तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय राजनीति की सारी पहल अपने हाथ में समेटने की जो चतुराई दिल्ली आ कर दिखलाई थी, वह कोई रंग पकड़ती उससे पहले ही मामला सिरे से बदरंग हो गया। उनके तीनों विकेट धड़ाधड़ गिर गए। सबसे पहले शरद पवार, फिर फारूक अब्दुल्ला और फिर गोपालकृष्ण गांधी। ये तीनों विकेट इसलिए नहीं गिरे कि सामने से कोई सधी गेंदबाजी कर रहा था। तीनों राष्ट्रपति बनने को तैयार थे बशर्ते जीत की गारंटी हो! शरद पवार और फारूक अब्दुल्ला सत्ता की राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। भले उनकी सारी संभावनाएं खत्म हो चुकी हैं, उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा खत्म नहीं हुई है। इसलिए जिस खेल में न यश मिले, न जीत, ऐसा खेल खेलने से उन्हें इनकार करना ही था। गोपालकृष्ण गांधी अलग धारा के आदमी हैं। उन्होंने खुद ही कहा कि मेरे नाम पर सभी एकमत होते तो वे हार की फिक्र न कर, यह खेल खेल सकते थे। कम से कम यह अपेक्षा तो गोपाल गांधी जैसा व्यक्ति कर ही सकता था। और आप यह अपेक्षा भी पूरी न करें और चाहें कि गोपाल गांधी आपकी अपेक्षा पूरी करें, यह तो नितांत असभ्यता है।

विपक्ष ने ऐसे सर्वोच्च पद के लिए गोपाल गांधी का नाम पहली बार नहीं लिया न यह पहली बार हुआ कि विपक्ष उनके नाम पर आम सहमति नहीं बना सका। पिछली बार गोपाल गांधी ने इसी बिखरे विपक्ष की मान कर उप-राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा और पराजित हुए। गोपाल गांधी प्रशासक ही नहीं, भारतीय चिंतन और संस्कृति के गहन अध्येता हैं, देश के सार्वजनिक जीवन में मूल्याधारित चिंतन और कर्म के प्रतीक हैं। ऐसी हालत में गोपाल गांधी को जो करना चाहिए था वही उन्होंने किया और वैसी ही शालीनता से किया जिसके लिए हम उन्हें जानते हैं।

इतनी भद पिटने के बाद विपक्ष ने आम राय से यशवंत सिन्हा का नाम जाहिर किया। यह नाम भी तृणमूल कांग्रेस की तरफ से आया। तीन नामों के बदले यही एक नाम पहले आया होता तो प्रक्रिया की शालीनता और विपक्ष की प्रतिष्ठा, दोनों बनी रहती। लेकिन जैसा मैंने शुरू में लिखा, विपक्ष का अपना कोई पक्ष है ही नहीं, तो शालीनता-प्रतिष्ठा की फिक्र किसे है!

संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा

संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा

भारतीय जनता पार्टी ने अपनी समर्पित कार्यकर्ता द्रौपदी मूर्मू को राष्ट्रपति बनाना तय किया है। मुर्मू का चयन शालीनता और संयम से किया गया है। उनके समर्थन में प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा, वह भी बताता है कि निर्णय कितने करीने से हुआ। जब भाजपा जैसा बहुमत हो और यह निश्चिंतता भी कि आप जिसे चाहेंगे उसे राष्ट्रपति बना लेंगे, तब संयम और शालीनता साधना आसान होता है। लेकिन ऐसा कह कर भाजपा की राजनीतिक पटुता कम नहीं की जा सकती है।

ओडिशा में बीजू जनता दल के साथ मिल कर भाजपा ने जब सरकार चलाई थी तब मूर्मू उसमें मंत्री थीं। फिर वे झारखंड की राज्यपाल रहीं। दोनों ही भूमिकाओं में वे हिंदुत्व के दर्शन को मानने वाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की समर्पित कार्यकर्ता की अपनी छवि को मजबूत करती रहीं। इसके अलावा उनका दूसरा कोई गुण राष्ट्र ने अब तक देखा नहीं है। जन्मजात सरलता, कर्मठता व लोक संपर्क की महत्ता समझने वाली मुर्मू भारत की अगली राष्ट्रपति होंगी, यह तय है। जब राष्ट्रीय राजनीति के माहिर लोग फैसला इस आधार पर करते हों कि कौन उनके राज्य, उनकी जाति, उनकी भाषा का है, कौन अपनी तत्कालीन राजनीति में फिट बैठता है, तब मुर्मू जैसों की जीत निश्चित हो जाती है।

कहने वाले कहते हैं कि मुर्मू की जीत देश की आदिवासी, जनजाति को सशक्त करेगी, स्त्री की हैसियत मजबूत करेगी। क्या ऐसा होता है? हमने अब तक सारे इनसानों को ही तो राष्ट्रपति बनाया है, तो क्या देश में इनसानों की हैसियत मजबूत हुई है? हमने मुसलमान, दलित, औरत सभी को राष्ट्रपति बनाया है। तो क्या इन सबकी हैसियत मजबूत हुई? यह आत्मछल राजनीति को पचता है, राष्ट्र को नहीं।

मेरा सवाल है, मुर्मू जीत गईं तो क्या जीतेगा या यशवंत सिन्हा जीत गए तो क्या जीतेगा? इन दोनों में से कोई भी जीते, न संविधान जीतेगा, न देश को कोई राष्ट्रपति मिलेगा। उम्र के आठ दशक पार चुके यशवंत सिन्हा और छह दशक पार कर चुकीं मुर्मू उस धारा की प्रतिनिधि हैं जो दलीय राजनीति व सत्ता की ताकत ही ओढ़ती-बिछाती हैं। यशवंत सिन्हा ने तो उम्मीदवारी से पहले अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया ताकि संविधान की थोड़ी लाज रह जाए। भाजपा और मुर्मू ने उसकी भी जरूरत नहीं समझी।

संविधान की कल्पना यह है कि संसदीय प्रणाली की राजनीतिक व्यवस्था का मुखिया ऐसा व्यक्ति हो, जो संसद से बंधा न हो, सत्ता के खेल न खेलता हो। प्रधानमंत्री ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता क्योंकि वह तो दल व सत्ता के लिए सभी तरह के गर्हित खेल खेलता है और उसी बूते कुर्सी पर बैठा रहता है। महात्मा गांधी ने इसलिए ही तो ‘हिंद स्वराज्य’ में लिखा कि वे प्रधानमंत्री को देशभक्त मानने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि उसके किसी भी निर्णय का आधार देशहित नहीं होता। वह तो अपनी सत्ता को देशहित बता कर सारे धत्कर्म करता है। 

फिर बच जाता है राष्ट्रपति! हमारा संविधान एकदम सीधी-सी बात कहता है कि संसदीय राजनीति में अंपायर वही हो सकता है जो खुद किसी टीम की तरफ से खेलने न लगता हो। संविधान जुमलेबाजी नहीं है, लिखित दस्तावेज है। वह कहता है कि अंपायर का काम है खिलाड़ियों को खेलने देना और उन पर कड़ी नजर रखना ताकि सभी नियम से खेलें। ऐसा तटस्थ व्यक्ति खोजना व उसका मिलना संभव है? बिल्कुल। लेकिन तभी जब आप अपने दलीय व सत्तागत स्वार्थ के दायरे के बाहर देखने-खोजने लगें। आप ऐसा तभी कर सकेंगे जब आप संविधान को अपना मार्गदर्शक मानेंगे। संविधान की आड़ में मनमाना खेल खेलने वालों के लिए यह समझना मुश्किल है कि संविधान के सामने सर झुकाना एक अर्थहीन कसरत है, असल बात तो संविधान को सर में बिठाना है। आज हमें ऐसे राष्ट्रपति की जरूरत है। आजादी के बाद से हमने जिन 14 पूर्णकालीन राष्ट्रपतियों का चयन किया उनमें पहले, दूसरे, दसवें तथा ग्यारहवें राष्ट्रपति ही मेरी निगाह में इस पद के नाप के थे- सर्वश्री राजेंद्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, कोचेरिल रामन नारायणन तथा एपीजे अब्दुल कलाम। हमें आज ऐसा राष्ट्रपति चाहिए जिसमें इन चारों का समन्वय हो। ध्यान देने की बात यह है कि ये चारों दलीय राजनीति से दूर व विशिष्ट हैसियत रखने वाले लोग थे।

राजेंद्र प्रसाद आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस का नेतृत्व करने वालों में एक थे। उस दौर की ऐसी कोई बड़ी हस्ती खोज पाना संभव नहीं है शायद, जो आजादी की लड़ाई का सिपाही भी हो लेकिन कांग्रेस से जुड़ा न हो। भारतीय गणराज्य के प्रथम अभिभावक की भूमिका में राजेंद्र प्रसाद इसलिए अनोखे हैं कि राष्ट्रपति कैसा हो, क्या करे-क्या न करे, क्या बोले-क्या न बोले, इन सबका निर्धारण उनका ही किया है। जैसे जवाहरलाल आजादी के बाद के प्रारंभिक वर्षों में इस देश के प्रधानमंत्री मात्र नहीं थे, संसदीय लोकतंत्र के मानकों के शिल्पकार थे, कुछ वैसी ही भूमिका राजेंद्र प्रसाद ने भी निभाई। जवाहरलाल की सरकार से वे कई मामलों में असहमत रहे। वह असहमति उन्होंने कभी दबाई-छिपाई भी नहीं। भारतीय राष्ट्रपति की संविधान सम्मत भूमिका की पहली गंभीर बहस उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में ही खड़ी की थी और उससे काफी हलचल पैदा हुई थी। वे अपने प्रधानमंत्री से कहीं अधिक प्रतिष्ठित कानूनविद् थे लेकिन वे इसके प्रति सदा सचेत थे कि वे राजेंद्र प्रसाद की नहीं, भारत के राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका के कील-कांटे बना रहे हैं जिस पर इस नवजात गणतंत्र को अपना ढांचा खड़ा करना है। भारत के हर राष्ट्रपति को यह उत्तरदायित्व राजेंद्र प्रसाद से विरासत में मिला है- कोई यह बोझ न उठा सके तो बात अलग है।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन उस दार्शनिक राष्ट्राध्यक्षों की श्रेणी में आते हैं जिसकी कल्पना दार्शनिक अरस्तू ने की थी। विद्वान राधाकृष्णन कभी मूक या रबरस्टांप राष्ट्रपति नहीं रहे। उन्होंने राष्ट्रपति का संवैधानिक दबाव जवाहरलाल पर और बाद में उनकी बेटी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर भी बनाए रखा। 1962 के चीनी हमले के बाद जवाहरलाल की प्रधानमंत्री पारी पूरी हुई, ऐसा मानने वालों में राधाकृष्णन थे और वे ही थे जिन्होंने राष्ट्रपति की विशेष रेलगाड़ी पटना जंक्शन पर रुकवा कर, जयप्रकाश नारायण को बुला भेजा था और उनसे सीधे ही कहा था कि अब देश की बागडोर संभालने में झिझकने का वक्त नहीं है। 

के.आर. नारायणन राजनयिक, अध्येता तथा अर्थशास्त्री थे। वे देश के पहले दलित राष्ट्रपति थे। वे कुशल व पैनी निगाह रखने वाले राष्ट्रपति थे। कलाम साहब अटलबिहारी वाजपेयी की पसंद थे लेकिन उन्होंने हर चंद कोशिश की कि वे दल की नहीं, देश की पसंद बनें। उन्होंने राष्ट्रपति पद और उसकी कार्यशैली को भी लोकतांत्रिक जामा पहनाया। वे विज्ञान से राजनीति की दुनिया में जब लाए गए तब राजनीति का अपना गणित रहा ही होगा लेकिन कलाम साहब ने कभी इनका या उनका खेल नहीं खेला। अटलबिहारी की हार के बाद बनी मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार से भी उन्होंने वैसा ही नाता रखा जिसमें मृदुता तो थी, समर्पण नहीं था। उन्हें ‘जनता का राष्ट्रपति’ कहा गया तो इसलिए कि वे न आतंकित करते थे, न आतंकित होते थे।

इन चारों के गुणों का समन्वय आज के राष्ट्रपति में इसलिए चाहिए कि संसदीय लोकतंत्र और राष्ट्र के रूप में भारत नाजुक दौर से गुजर रहा है। तब आजादी को अर्थपूर्ण स्वरूप देने की चुनौती थी, आज 75 साल पुराने संसदीय लोकतंत्र को पटरी पर बनाए रखने तथा विकास की संभावनाओं को पुख्ता करने की चुनौती है। संविधान पढ़ने भर से नहीं, संविधान पचाने से बात बनेगी। राष्ट्र को ऐसे राष्ट्रपति की जरूरत है जो राष्ट्र व संविधान से आगे की देखे, उससे पीछे न देखे न देखने दे।

हो सकता है भाजपा और विपक्ष को अपने उम्मीदवार में यह सब दिखाई देता हो क्योंकि वे अपने दल के आदमी को राष्ट्रपति पद पर बिठा रहे हैं ताकि आगे वह उनके दलीय व सत्ताहित में काम करे। आप ही बताइए, इसमें राष्ट्र कहां है?

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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