"आजादी के 75वें वर्ष में क्या संसदीय लोकतंत्र का रूप ही बचेगा और उसकी अंतर्वस्तु से पल्ला छुड़ा लिया जाएगा"
देश ने कुछ ही दिन पहले पचहत्तरवां स्वाधीनता दिवस मनाया है। यह अवसर स्वाधीनता संघर्ष के मूल्यों की रक्षा करने का संकल्प लेने और देश की जनता द्वारा स्वयं को प्रदत्त संवैधानिक व्यवस्था को मजबूत बनाने की शपथ लेने का था। दुर्भाग्य से, यह अवसर ऐसे समय आया, जब संविधान द्वारा स्थापित संसदीय प्रणाली पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं और स्वयं प्रधान न्यायाधीश को इस बात पर अफसोस प्रकट करना पड़ रहा है कि संसद और विधानसभाओं में विधेयकों को बिना पर्याप्त बहस के पारित किया जा रहा है और इसके कारण न्यायपालिका पर दबाव बढ़ रहा है। संसद के वर्षाकालीन सत्र में लगभग 20 विधेयक बिना किसी चर्चा के केवल ध्वनि मत से पारित कर दिए गए। क्या यह लोकतंत्र की भावना के अनुरूप है? क्या संविधान निर्माताओं ने कभी ऐसे स्थिति की कल्पना की थी कि संसद और विधानसभाएं बिना किसी चर्चा के विधेयकों को पारित करके कानून की शक्ल दे देंगी?
साहित्यिक आलोचना में अक्सर कृति की अंतर्वस्तु और उसके रूप के बीच के संबंध पर चर्चा होती है और इनमें से किसे अधिक महत्व दिया जाना चाहिए, यह बहस का विषय बना रहता है। रूप को अधिक महत्व देने वालों को रूपवादी कहा जाता है लेकिन देखा यही गया है कि लेखक पाठक वर्ग के बीच अपनी कृतियों की अंतर्वस्तु के कारण ही स्वीकार्य और लोकप्रिय होता है। लिखने की कला और कहानी के शिल्प के लिहाज से प्रेमचंद भले ही अन्य अनेक लेखकों के मुकाबले उन्नीस ठहरते हों, लेकिन उनकी कृतियों की अंतर्वस्तु इतनी प्रभावशाली और जीवन के गहरे संश्लिष्ट अनुभवों से रची-बसी है कि अपनी मृत्यु के 85 साल बाद भी प्रेमचंद कथा साहित्य के शिखर पर आसीन हैं।
लोकतंत्र की अंतर्वस्तु कमजोर पड़ती जाएगी और केवल उसके रूप को बनाए रखने पर जोर दिया जाएगा, तो यह संविधान निर्माताओं के मूल मंतव्य और स्वाधीनता संघर्ष के बुनियादी मूल्यों के खिलाफ होगा। सभी जानते हैं कि संसद में जिस पक्ष का बहुमत होगा, वह सत्ता संभालेगा और इस बहुमत के आधार पर शासन करने के लिए आवश्यक कानून बनाएगा। उसके पास बहुमत है, इसलिए उसे इन कानूनों को बनाने में कोई अड़चन नहीं आएगी। फिर दुनिया के सभी लोकतंत्रों में सदन में चर्चा की व्यवस्था क्यों की गई है? उसकी जरूरत ही क्या है जब सत्ता पक्ष बहुमत के आधार पर विधेयकों को पारित करा ही लेगा?
इस प्रश्न का उत्तर लोकतंत्र की अंतर्वस्तु में छिपा है। लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही नहीं है। वह अपने आदर्श स्वरूप में ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जिसमें स्वस्थ विचार-विमर्श और बहस-मुबाहिसे के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं और एक-दूसरे के विचारों को सुनकर उनसे प्रभावित होने की गुंजाइश रहती है। इसीलिए सत्ता पक्ष द्वारा सदन में प्रस्तुत विधेयकों में कोई भी सदस्य या राजनीतिक दल संशोधन प्रस्तावित कर सकता है और सदन विधिवत चर्चा के बाद तय करता है कि संशोधन को स्वीकार किया जाए या नहीं। सदन में चर्चा के बिना विधेयकों को पारित कराना लोकतंत्र की आत्मा पर कुठाराघात है।
शायद बहुत अधिक लोग इस तथ्य से परिचित नहीं हैं कि भारत सरकार अधिनियम 1919 और 1927 के आधार पर स्थापित केंद्रीय और प्रांतीय असेम्बलियों ने स्वाधीनता आंदोलन की बहुत मदद की थी और मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, सत्यमूर्ति, मुहम्मद अली जिन्ना, विट्ठल भाई पटेल और सेठ गोविंद दास जैसे अनेक नेताओं ने इन असेम्बलियों में हुई बहस के दौरान तत्कालीन ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार की कड़ी आलोचना करके कई बार उसकी ओर से प्रस्तावित विधेयकों में बदलाव कराने में सफलता प्राप्त की थी। जब बाहर आंदोलन धीमा होता था, तब सदन के भीतर ये लोग जनता की भावनाओं और आकांक्षाओं को वाणी देते थे और असेम्बलियों को एक प्रभावी मंच की तरह इस्तेमाल करते थे। संसद का काम सिर्फ कानून बनाना ही नहीं है। वह ऐसा मंच है जिस पर लोकहित के पक्ष में आवाज उठाई जाती है। लेकिन सदन में चर्चा ही नहीं होगी, और सांसदों को मार्शलों के द्वारा मारपीट कराकर सदन से बाहर फेंका जाएगा, तो फिर संसदीय लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा?
आज जब हम संविधान सभा में हुई चर्चा पढ़ते हैं, तब हमें सदस्यों द्वारा की गई टिप्पणियों, उनके द्वारा उठाए गए सवालों और प्रस्तुत किए गए संशोधनों के आलोक में इस बात का पता चलता है कि अमुक प्रावधान किस मंशा से पेश किया गया था, उस पर सदस्यों की क्या प्रतिक्रिया थी और जब उसे अंतिम रूप देकर स्वीकार किया गया, तब संविधान सभा का उस प्रावधान को स्वीकार करते समय आशय क्या था। अदालतें जब कोई फैसला सुनाती हैं, तब वे इस बात को ध्यान में रखती हैं कि किसी प्रावधान विशेष के पीछे संविधान निर्माताओं का मंतव्य क्या था।
प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रामना ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि संसद में किसी विधेयक को चर्चा के बिना ही पारित कर दिया जाता है, तो अदालतें यह जानने से वंचित रह जाती हैं कि उस कानून को बनाने के पीछे संसद की मंशा क्या थी? इसे जाने बगैर उस कानून के सही या गलत अमल के बारे में फैसला करना अदालतों के लिए कठिन हो जाता है।
लेकिन इससे भी अधिक बुनियादी सवाल यह है कि संसद में विपक्षी सदस्य अपनी बात नहीं रख सकते तो फिर संसदीय सत्र बुलाने का क्या औचित्य है? जहां तक संसद की कार्यवाही ठप्प करने का सवाल है, विपक्ष में रहते हुए भारतीय जनता पार्टी ने इसे विरोध करने का वैध तरीका घोषित किया था। उस समय उसके नेता सत्र शुरू होने से पहले ही उसकी कार्यवाही को ठप्प करने के अपने इरादे की घोषणा कर दिया करते थे।
इस मुद्दे पर सत्ता पक्ष और विपक्ष—दोनों को ही गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए कि अपने संकीर्ण हित के लिए क्या वे संसदीय लोकतंत्र के रूप को ही बचाकर रखेंगे और उसकी अंतर्वस्तु से अपना पल्ला छुड़ा लेंगे?