नेहरू एक बार फिर चर्चा में हैं। विकीपीडिया में उनके पृष्ठ के साथ छेड़छाड़ की गई है। विकीपीडिया में इसकी छूट है कि कोई भी चाहे तो किसी सामग्री में कुछ जोड़-घटा सकता है। इस वजह से उसे अकादमिक जगत में विश्वसनीय नहीं माना जाता, फिर भी पढ़े-लिखे लोग कई बार आरंभिक जानकारियों के लिए विकीपीडिया का सहारा लेते हैं। यानी,यह जानकारी का एक लोकप्रिय स्रोत बन गया है। विकीपीडिया में कई विषयों के संपादक भी हैं और वे पृष्ठों पर नज़र रखते हैं तथा भरसक हर नई तब्दीली की छानफटक करते रहते हैं।
जवाहरलाल नेहरू वाले पृष्ठ के साथ की गई यह छेड़खानी इसलिए गंभीर मानी जा रही है कि यह जिस कंप्यूटर से की गई उसका पता एक सरकारी विभाग का बताया जा रहा है। नेहरू हिंदू नहीं थे, उनके पूर्वज मुसलमान थे और अंग्रेजों से बचने के लिए हिंदू नाम रख लिया था आदि, जैसी जानकारी इस छेड़छाड़ के जरिये उपलब्ध कराई गई थी। सवाल है, क्या यह काम किसी सरकारी कर्मचारी ने किया या उसके कंप्यूटर का उपयोग किसी और ने किया? यह भी इत्तफाक है कि यह घटना उस वक्त हुई जब गाजे बाजे के साथ ‘डिजिटल सप्ताह’ का श्रीगणेश हो रहा था और कहा जा रहा था कि साइबर-सुरक्षा के लिए हमें सन्नद्ध होना चाहिए। सरकारी महकमे ही जब असुरक्षित हों तो बाकी जगह के लिए क्या उम्मीद!
कांग्रेस पार्टी ने इस पर उचित ही रोष व्यक्त किया है लेकिन अन्य राजनीतिक दलों और अकादमिक दुनिया के लोगों ने इस घटना को इस लायक नहीं माना कि प्रतिक्रिया जाहिर की जाए, मानो,नेहरू कांग्रेस पार्टी की ही चीज़ हों। लेकिन जनस्मृति में नेहरू की छवि को विकृत करने का यह कोई पहला प्रयास नहीं।
नेहरू की अनेक जीवनियां मौजूद हैं जो गहन शोध के बाद लिखी गई हैं। लेकिन उनके अलावा जनश्रुतियाँ भी हैं। उनकी जो तस्वीर जनमानस में नक्श है, वह अधिकतर अफवाहों से बनाई गई है। आप साधारण जन से बात करें तो उनकी छवि एक आरामतलब,ऐय्याश,धोखेबाज,भाई-भतीजावादी नेता और कमजोर प्रशासक की ही उभरती है। वह ऐसा इंसान है जिसने गांधी को मोह लिया और ‘सच्चे’ गांधीवादियों’ के कंधे पर पांव रखकर प्रधानमंत्री बन गया। इस अफवाहबाजी के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनौपचारिक प्रचार तंत्र तो है ही, लोहियावादी समाजवादी और गांधीवादियों का भी हाथ है।
नेहरू के कपड़े पेरिस से धुल कर आते थे, यह सुनते हुए हम सब बड़े हुए। लेकिन यह तो उनके जीवनकाल में ही बहुप्रचारित था। लोहिया ने प्रधानमंत्री नेहरू की एक कप चाय के खर्चे को लेकर जो हंगामा किया था उसने नेहरू को एक शाहखर्च के रूप में बदनाम करने में खासी भूमिका निभाई। इसकी फुर्सत शायद ही किसी को हो कि प्रधानमंत्री नेहरू के दस्तावेजों को पढ़े, जिससे यह मालूम हो कि वह बार-बार संबंधित विभाग को यह कह रहे थे कि उनका बिजली का खर्च कम होना चाहिए और तीन मूर्ति भवन में उनके रहने की जगह विस्तृत होने की कोई आवश्यकता नहीं। उनके पास ढेरों कपडे नहीं थे और उन्हें अपने फटे मोज़े खुद सिलते हुए लोगों ने प्रधानमंत्री निवास में ही देखा है। नेहरू मूलतः सादगी पसंद व्यक्ति थे लेकिन वह शालीन सादगी थी। यह उन्होंने अपने प्रिय गुरु गांधी से ही सीखा होगा जिनकी भव्यता को उनकी आधी धोती ने उभारा है।
भारतीय राजनीतिक और सामाजिक जीवन में एक नेहरू-ग्रंथि शुरू से काम कर रही है। एक तरह की ईर्ष्या अनेक कारणों से अलग-अलग तबकों में नेहरू के प्रति पाई जाती है। बंगाली अवचेतन सुभाषचंद्र बोस को वाजिब हक से महरूम कर देने के लिए उन्हें जवाबदेह मानता है। यह लगभग मान ही लिया गया कि गांधी को लुभाकर उन्होंने पटेल का पावना यानी प्रधानमंत्री की कुर्सी हथिया ली। कायस्थों की समझ है कि अगर वह न होते तो राजेंद्र प्रसाद या जय प्रकाश नारायण प्रधान मंत्री हुए होते। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को भी गांधी का उत्तराधिकारी मानेवालों की संख्या कम नहीं है।
जिन्ना को अगर वह प्रधानमंत्री बन जाने देते तो देश का बंटवारा न होता, यह तो ऐसा सहज बोध है जिसे आप काट नहीं सकते, चाहे इसके लिए कितने ही ऐतिहासिक दस्तावेज क्यों न जुटा लें। गांधीवादी भी कभी गांधी को क्षमा न कर पाए कि उन्होंने राजेंद्र प्रसाद, पटेल, राजगोपालाचारी जैसे पक्के गांधीवादियों के रहते एक अपेक्षाकृत कम गांधीवादी को अपना उत्तराधिकारी चुन लिया।
मेरे पिता ने मुझे एक दिलचस्प किस्सा सुनाया: 1961 में लोहिया एक जनसभा को संबोधित करने आसनसोल के करीब एक छोटे कस्बे, बराकर गए। वहां शाम को अनौपचारिक गोष्ठी में उन्होंने शिकायत के अंदाज में कहा कि गांधी ने वर्णवादी होने के कारण ब्राह्मण नेहरू को अपना उत्तराधिकारी चुना। लोहिया का ख्याल था कि उनकी ‘हेठी’ जाति के कारण प्रधानमंत्रीत्त्व की उनकी प्रतिभा को नज़रअंदाज कर दिया गया। हिन्दीवादियों का ख्याल है कि नेहरू न होते तो भारत में हिंदी का राज होता। बराकर वाली इस गोष्ठी में ही जब लोहिया से पूछा गया कि अगर वह प्रधानमंत्री होते तो क्या करते तो उन्होंने उत्तर दिया: भारतमाता को उसकी जुबान दिला देता, यानी हिंदी!
नेहरू से परेशानी की वजहें कई थीं। 1950 के दशक के मध्य में महाराष्ट्र के सतारा में शिवाजी की प्रतिमा के अनावरण के लिए नेहरू को आमंत्रित किया गया। इसपर भारी विरोध होने लगा जिसमें मराठी बुद्धिजीवी भी शामिल थे। उनका कहना था कि नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में शिवाजी की विकृत छवि प्रस्तुत की है, इसलिए उन्हें शिवाजी की प्रतिमा के अनावरण का अधिकार नहीं है। और तो और नेहरू को विरोध पत्र लिखने वालों में कम्युनिस्ट श्रीपाद अमृत डांगे भी थे। नेहरू ने स्पष्ट किया कि वह किताब उन्होंने जेल में रहते हुए सीमित स्रोतों के आधार पर लिखी थी और बाद के संस्करणों में संशोधन कर लिया गया है लेकिन विरोध कम न हुआ। नेहरू ने आखिरकार अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया। लेकिन उसका कारण नैतिक था: उन्होंने कहा कि चूंकि आम चुनाव करीब हैं, मैं नहीं चाहता कि यह मूर्ति अनावरण एक विशेष सामाजिक तबके को आकर्षित करने के प्रयास के रूप में देखा जाए।
नेहरू से सबसे बड़ी नाराजगी भारत को हिन्दू राष्ट्र न बनने देने के कारण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और प्रायः हिन्दुओं की रही है। अगर नेहरू न होते तो मुसलमानों को पूरी तरह भगाया जा सकता था, यह ख्याल अब तक भीतर-भीतर घूम रहा है। गांधी को तो फौरन रास्ते से हटा दिया गया लेकिन असली कांटा नेहरू रह ही गया। पटेल और राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेता एक हिन्दू राष्ट्र भारत का स्वागत ही करते, ऐसा विचार भी अनेक लोगों का है। नेहरू को ही मारना उचित था, अवचेतन में बसी यह इच्छा अनुकूल अवसर मिलते ही पिछले साल शासक दल के एक नेता के मुंह से व्यक्त हो ही गई थी।
उन्नीस सौ सत्तावन के लोक सभा चुनाव के पहले पूरी दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक शाखा जनसंघ ने पोस्टर लगवाए जिनमें नेहरू हाथ में तलवार लिए गायों को बूचड़ खाने की ओर हाँकते दिखाए गए। नेहरू ने ब्लिट्ज के सम्पादक आर.के.करंजिया को दिए गए इंटरव्यू में इसका जिक्र किया और कहा और मुझे आधा मुसलमान और आधा क्रिस्तान कहा जाता है।
सारे दुष्प्रचार के बावजूद भारतीय जनमन से नेहरू को अपदस्थ करने में उनके जीवनकाल में उनके विरोधी सफल न हुए। लेकिन नेहरू से एक चिढ़ खासकर भारतीय शिक्षित वर्ग को थी। नेहरू उन्हें चुनौती देते मालूम पड़ते थे: क्या तुम आधुनिक शिक्षा के बल पर एक कॉस्मोपॉलिटन इंसान बन सकते हो, जाति, धर्म,राष्ट्र की संकीर्णताओं से ऊपर उठते हुए? क्या तुम सोचने का नया तरीका अपना सकते हो जो हर चीज़ पर शक करता हो और आस्थावादी न हो? इस चुनौती के कारण नेहरू को नास्तिक, लामजहब,पाश्चात्यवादी, अभारतीय, आदि घोषित किया गया।
नेहरू के खिलाफ जो ‘नया’ प्रचार है, उस पर ध्यान दें तो उसके पीछे की मानसिकता का पता लगता है: नेहरू दरअसल मुसलमान वंश के थे। उनका जन्म वेश्याओं के मोहल्ले में हुआ था। घृणा जितनी नेहरू के प्रति है, उतनी ही मुसलमानों के प्रति और वेश्याओं के प्रति। यह कैसा दिमाग है जो मुसलमान और वेश्या होने को बड़ा अपराध मानता है, जो उन्हें घृणित मानता है? इसलिए कांग्रेस प्रवक्ता का यह वक्तव्य ठीक था कि आपत्ति नेहरू को मुसलमान कहे जाने पर नहीं है। मुसलमान कहे जाने पर अपने जीवनकाल में जब नेहरू न चिढ़े तो अब हम क्यों चिढ जाएं? लेकिन उस दिमाग की सड़न को ज़रूर पहचान लें जो नेहरू को मुसलमान और वेश्या के संतान कह कर उनसे नफरत की दावत देता है।