आतंक विरोधी कानूनों का समाज पर आतंक किसी से छिपा नहीं है। देश में इन कानूनों के सताए लोगों के मामले हैं, जो जिंदगी के कई साल बिना ठोस सबूत के जेल में बिताते हैं और बाद में अदालतों द्वारा बेकसूर साबित होते हैं। अदालत की अवमानना, आपराधिक मानहानि, आईटी कानूनों के जनविरोधी पक्ष पर चर्चा होनी जरूरी है। असहमति के स्वर को कुचलने के लिए पहले ग्रीनपीस और अब तीस्ता सीतलवाड़ पर सरकार ने हमला बोला है। ग्रीन पीस कॉरपोरेट द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ तथ्य जनता के सामने ला रही थी, वहीं तीस्ता ने गुजरात में मोदी सरकार द्वारा किए गए मानवाधिकार उल्लंघन को बेनकाब किया था।
अंग्रेजों के जमाने के पुराने कानूनों को हम आज भी ढो रहे हैं। इनका इस्तेमाल कॉरपोरेट लूट के लिए बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। इस लूट को और खुली कानूनी छूट देने के लिए सरकारें नए कानून ला रही हैं। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश इसी का बेशर्म नमूना है। किसानों की जमीन छीनने के लिए कॉरपोरेटपरस्त सरकार कहां तक जा सकती है, यह केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश के सामने रखा है। इससे पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार जो भूमि अधिग्रहण कानून लाई थी, उसमें भी बहुत खामियां थीं। उन खामियों पर चर्चा हुई और उस सरकार ने कई संशोधन भी माने। उन्हें कानून में शामिल किया। अब नई सरकार जिस अध्यादेश को लेकर आई है, वह सीधे-सीधे किसानों से उनकी जमीन छीनने वाला है। इसमें से सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन का प्रावधान हटाया गया है। इसका मतलब कि किसानों और देश की जनता से यह जानने का हक छिन जाएगा कि जिस परियोजना के लिए ये जमीन ली गई है, उसका समाज पर क्या असर पड़ेगा यानी कितना विस्थापन होगा, कितनों को रोजगार मिलेगा आदि। अभी तक किसी भी परियोजना के लिए यह आकलन करना जरूरी होता था क्योंकि तभी किसी भी परियोजना से होने वाले असल लाभ का अंदाजा हो पाता है। इस प्रावधान से कॉरपोरेट घरानों को बेहद परेशानी है। वे अपने मुनाफे में किसी भी तरह की अड़चन नहीं चाहते। सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन के आधार पर परियोजना लगाने वाले घराने पर जनकल्याणकारी कदम उठाने का दबाव बनता है और अगर परियोजना से नुकसान ज्यादा दिखाई देता है तो उसके विरोध को और मजबूत जमीन मिलती है। केंद्र की सरकार ने किसानों के हितों की अनदेखी करते हुए, इस प्रावधान को हटा दिया। अब सवाल यह उठता है कि परियोजना को लगाने के लिए पैसा लगाने वाले कॉरपोरेट घरानों के लिए हमारी सरकारें इतना अधिक क्यों बिछी जा रही हैं।
इसी तरह भूमि अधिग्रहण कानून का एक अहम प्रावधान है, जमीन देने के लिए किसानों की रजामंदी। नई सरकार ने अपने अध्यादेश में इस प्रावधान को भी हटा दिया है यानी अगर कॉरपोरेट या सरकार किसान की जमीन लेना चाहे और वह तैयार न हो तो भी उनके इनकार के मायने नहीं होंगे। कॉरपोरेट को फायदा पहुंचाने वाले इस कानून को जब केंद्र सरकार संसद में पारित नहीं करवा पा रही तो उसने क्या रास्ता अख्तियार किया है। केंद्र ने भाजपा शासित राज्यों से कहा कि वे अपने-अपने राज्यों में इस अध्यादेश की तर्ज पर कानून बना लें और फिर मंजूरी के लिए केंद्र के पास भेज दें। चूंकि, जमीन समवर्ती सूची में आती है, इसलिए केंद्र ने यह सुझाव दिया है। कई राज्य पहले से ही इस पर अमल करने को आतुर बैठे थे। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात के अलावा आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की राज्य सरकारें आगे बढ़कर किसानों की जमीन कॉरपोरेट दोहन के लिए पहले ही रास्ता खोल चुकी हैं।
अदालतों से बड़े कॉरपोरेट घरानों के खिलाफ साहसिक फैसलों की उम्मीद करनी बेमानी है। इस मामले में इक्का-दुक्का अपवाद जरूर हो सकते हैं। दरअसल, अदालतों में भी बड़े सुधारों की जरूरत है। इसकी मांग हम लंबे समय से करते रहे हैं कि अदालतों की जवाबदेही होनी चाहिए। कानून की प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। चाहे वह जजों की नियुक्ति या पीठों के गठन का मामला हो -पूर्ण स्वतंत्रता, स्वायत्तता और पारदर्शिता का सिद्धांत होना चाहिए। लेकिन हो इससे उलट रहा है। सरकार जजों की नियुक्ति को भी अपने बस में करने की कोशिश में है।
(लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। लेख भाषा सिंह से बातचीत पर आधारित है)