त्रेता युग में 14 वर्ष के वनवास के बाद घर लौटे श्रीराम को अयोध्या में बहुत कुछ बदला नजर नहीं आया होगा। वही स्नेह, वही सम्मान, वही गलियां-चौराहे, सरयू का कल-कल बहता जल, लहलहाते खेत, उपासना स्थलों से गंूजता संगीत और हर तरफ खुशहाली। लेकिन कलियुग के 12 बरस यानी 2002 से अब तक देश-दुनिया में सचमुच बहुत कुछ बदल गया। बारह वर्ष पहले 'आउटलुक साप्ताहिक' के पहले अंक के लोकार्पण समारोह में राजनीति, कला, साहित्य, संस्कृति, पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ी श्रेष्ठ हस्तियों की उपस्थिति तथा नई चुनौतियों को स्वीकारने का संकल्प कोई नहीं भुला सकता। मंच पर विभिन्न विचारों वाले शीर्ष नेता-भैरों सिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, शरद यादव, नारायण दत्त तिवारी समेत सभागृह में हर क्षेत्र के अतिथि। 'आउटलुक' की प्रकाशन यात्रा के साथ भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था, सूचना-संचार तंत्र और दुनिया भर की स्थितियों में अनेक बदलाव देखने को मिले। सन 2002 में कौन कल्पना कर सकता था कि अमेरिका में एक अश्वेत नेता राष्ट्रपति बन सकेगा? भारत में किसने सोचा होगा कि गुजरात के घृणित दंगों की पृष्ठïभूमि के बावजूद प्रदेश के नवोदित नेता नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बन सकते हैं? सन 2002 में कांग्रेस अस्ताचल में दिखाई दे रही थी और 2004 के आम चुनाव अभियान के दौरान मैंने दो अनुभवी कांग्रेसी नेताओं को डॉ. मनमोहन सिंह की राजनीतिक निरर्थकता पर झल्लाते हुए सुना था। लेकिन महीने भर बाद वही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गए एवं वे दोनों कांग्रेसी नेता नतमस्तक उनके मंत्रिमंडल में शामिल हो गए।
दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति 10 वर्षों तक सत्ता के सिंहासन पर रहा होगा, जिसका अपने देश की जनता से कोई तार न जुड़ा हो। जो राजवंश में उत्पन्न हुए बिना या सैनिक तानाशाह हुए बगैर और लोकसभा ही नहीं पंचायत तक का कोई चुनाव जीते बिना करीब एक अरब की आबादी वाले देश का प्रधानमंत्री बन जाए। इसी 'सत्ता संस्कृति' के तहत भाजपा की नई सरकार में अरुण जेटली प्रधानमंत्री के बाद और कुछ हद तक उनसे अधिक 'पावर' के साथ वित्त और सूचना प्रसारण मंत्री बन गए। धन्य है यह भारतभूमि। मनमोहन सिंह के सत्ता काल में अनियमितताओं, गड़बडिय़ों और घोटालों के सैकड़ों पृष्ठ तैयार हो गए। लेकिन महा चतुर सुजान मनमोहन सिंह ने गंदगी के सारे ड्रम कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी के नेतृत्व के सिर पर उलट दिए। सत्ता में रहते हुए जो स्वयं चाहा, वही किया। अपनी खास चौकड़ी के साथ सत्ता का स्वच्छंद उपयोग किया, लेकिन संजय बारू जैसे परमप्रिय सलाहकारों-सहयोगियों के बल पर मनमोहन सिंह ने अपने दामन पर दाग नहीं दिखने दिए तथा प्रधानमंत्री निवास की काली स्याही 10 जनपथ पर फिंकवा दी। याद कीजिए राबर्ट वाड्रा के जमीन खरीदी के प्रयास को मनमोहन के सलाहकार ने सबसे पहले किस अंग्रेजी के इकॉनामिक अखबार में लीक करवाया था? सूचना के अधिकार के तहत नर्र्ई सरकार में ही जानकारी मांगने का प्रयास कीजिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वयं एक बड़े घोटाले से जुड़े वरिष्ठतम अधिकारी (सीईओ) को बर्खास्त करने की तत्कालीन मंत्री की सिफारिशों को किस तरह ठुकराया। मंत्री ने अपने पद से इस्तीफे तक की पेशकश की, लेकिन प्रधानमंत्रीजी नहीं माने। देर-सबेर मंत्री को ही हटना पड़ा। इसलिए कृपया अपनी इस धारणा पर पुनर्विचार करें कि 'बेचारे मनमेाहन सिंह रबर स्टैंप थे और 10 जनपथ के सामने उठक-बैठक करते थे।' 1991 से 2014 तक और आगे भी मंत्री, प्रधानमंत्री, राज्यसभा सदस्य बने रहने वाले व्यक्ति को गैर राजनीतिज्ञ मानना आंखें बंद कर साधु वेशधारी को 'भगवान शंकर' समझने जैसा होगा।
मनमोहन की चैन की बंसी बजाने का सबक उनका शिष्य कहलाने वाले कांग्रेस के नंबर 2 नेता राहुल गांधी ने भी सीखा। दस वर्षों तक सांसद रहने वाले राहुल गांधी ने अपने माता-पिता के रास्ते पर न चलकर मनमोहन सिंह की तरह असली जमीनी लोगों से दूरी रखी। कांग्रेस के कार्यकर्ता ही नहीं, अनेक सांसद या तत्कालीन मंत्री भी राहुल दरबार में समय नहीं पाते थे। यदि मुलाकात हुई भी तो राहुल किसी अपनी दुनिया में खोए रहे। इसी का नतीजा हुआ कि राहुल की 'कंप्यूटर ब्रिगेड' ने कांग्रेस को अधिकांश राज्यों में 'डिलीट' (शून्य) कर दिया।
बहरहाल इन 12 वर्षों के दौरान नरेंद्र मोदी ने भारतीय राजनीति का नक्शा सामने रखकर निरंतर काम किया। किसी समय शंकर सिंह वाघेला और केशुभाई पटेल के स्कूटर पर पीछे की सीट पर बैठे हुए झंडा उठाने वाले नरेंद्र भाई ने अटल-आडवाणी से तार जोडक़र पहले गुजरात की कमान संभाली। फिर 10 वर्षों तक गांधीनगर में सत्तासीन रहने के बाद लाल किले पर झंडा फहराने की तैयारी की। नरेंद्र भाई के साथ नजदीकी से काम करने वाले इस बात की पुष्टिï कर सकते हैं कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से दो साल पहले ही वह विभिन्न राज्यों के लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के राजनीतिक, सामाजिक समीकरणों का हिसाब लगाना शुरू कर चुके थे। वह गांधीनगर में बैठकर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र दिल्ली, उत्तराखंड, हरियाणा ही नहीं, जम्मू-कश्मीर और कर्नाटक के चुनिंदा भाजपाइयों, संघ के प्रचारकों तथा संघी ही नहीं, भिन्न विचारों वाले 'सिलेक्टेड' पत्रकारों से राजनीतिक स्थितियों पर मंत्रणा करते रहे। इसी कारण वह 2013 में भाजपा नेताओं की बैठक में यह दावा कर सकने में सफल रहे कि उन्हें गठबंधन की जरूरत नहीं होगी तथा भाजपा की अपनी लिस्ट के अलावा उनके नेटवर्क से जुड़े हजारों लोगों के बल पर वह पार्टी को सत्ता में ला सकते हैं। इस 'गांडीव-तीर' के बाद भाजपा के घायल बुजुर्ग शेर अपने पंजे मलते हुए चुप बैठ गए। इस दृष्टि से भारतीय राजनीति में एक क्रांतिकारी बदलाव आ गया है। यह कहना अवश्य मुश्किल है कि घोषित लक्ष्य के अनुसार अगले 10 वर्षों तक भाजपा के इस जहाज में सुराख हो पाएगा या नहीं। हमारे कई प्रगतिशील समीक्षक मित्र तर्क देते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के अभियानों से मोदी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। मेरा उनसे एक ही सवाल है कि क्या 40-50 वर्ष की उम्र के पड़ाव पर आपके विचार-दर्शन रातोरात बदल सकते हैं। नरेंद्र मोदी लगभग 63 वर्ष की आयु में से 48 वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार-दर्शन से जुड़े रहे हैं। यदि संघ 1990 में उनके बजाय मोहन भागवत को भाजपा संगठन में काम की जिम्मेदारी सौंप देता तो संभवत: मोदी सरसंघचालक होते और भागवत को प्रधानमंत्री बनवा देते। संघ में व्यक्ति को जिम्मेदारी सौंपी जाती है। स्वयंसेवक खुद किसी पद पर अपनी तैनाती नहीं कर सकता। इसलिए विकास के साथ 'हिंदुत्व' के एजेंडे से मोदी जी के जुड़े रहने पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, परीक्षा भाजपा के उन पार्षदों, विधायकों तथा सांसदों की है, जो सफाई अभियान के बजाय 'मलाई' अभियान में दिलचस्पी रखते हैं।
12 वर्षों का दूसरा बड़ा चमत्कारी बदलाव नीतीश कुमार, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक कदमों का है। गुजरात दंगों के दौरान अटल-आडवाणी की टीम में मंत्री रहने वाले शरद-नीतीश अपने घोर विरोधी, भ्रष्टाचार के आरोपों में अदालत से दंडित लालू प्रसाद यादव की बैशाखी लेने को तैयार हो गए। वहीं कट्टïरपंथियों के विरुद्ध आग उगलने वाले रामविलास पासवान परिवार सहित भाजपा सरकार में शामिल हो गए। पराकाष्ठा जम्मू-कश्मीर के उमर अब्दुल्ला और मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टियों की है, जिन्होंने किसी भी कीमत पर भाजपा के साथ जाने के लिए बांहे फैला दीं। उन्हें आप समय की मजबूरी और भारत के अंग जम्मू-कश्मीर की अखंडता बनाए रखने की आवश्यकता मान सकते हैं। लेकिन अमेरिका और चीन की सरकारों की मजबूरी का तो आनंद लीजिए। भारतीय जनता पार्टी को 'हिंदू पार्टी' कहकर 12 बरस तक नरेंद्र मोदी को अपने देश में प्रवेश तक से रोकने वाले अमेरिकी नेता व्हाइट हाउस में मोदी की आरती उतारने के लिए बेचैन रहे। प्रायोजित ही सही, भारत के किसी प्रधानमंत्री का ऐसा भव्य स्वागत अमेरिका में कभी नहीं हुआ। भारत रत्न जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी का भी नहीं। संघ के इतिहासकार शायद बता सकें कि 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या में क्या श्रीराम के लिए भी इतनी धूमधाम हुई होगी। इसलिए कांग्रेस के 'जयराम' जैसे नेता भी भाजपाई नेताओं की तरह 'जय नरेंद्र' कहने में अपना भला समझ रहे हैं। कृपया 'आउटलुक' तथा अन्य प्रकाशनों की पुरानी फाइलें पलट लीजिए, जयराम रमेश और मनमोहन सरकार द्वारा नामित सांसद एच.के. दुआ किसी समय कांग्रेस नेतृत्व (सोनिया गांधी) की आलोचना जमकर लिखा करते थे।
बहरहाल, 'आउटलुक' के इस बदलाव अंक में एक बात कबूलनी होगी कि 12 वर्षों में नेता, अफसर, पूंजीपति, राजनयिक, भ्रष्टाचारी, आतंकवादी-नक्सलवादी, धर्मगुरु या बाबा कितना भी बदल गए हों, हमारा हिंदुस्तानी नहीं बदला है। वह उसी तरह भोला-भाला संतोषी है। परदेस में बैठा हिंदुस्तानी पहले से कहीं अधिक भारतप्रेमी' और 'धर्म प्रेमी' हो गया। भारत में रहने वाला हिंदुस्तानी पहले से अधिक अमेरिकी, पश्चिमी यूरोप तथा चीन के लोगों, वहां से आने वाले सामान और संभव हो तो वहां के सैर सपाटे को अधिक पसंद करने लगा। गरीब हिंदुस्तानी हमेशा की तरह झूठे राजनीतिक वायदों पर भरोसा कर रहा है। ताजा उदाहरण 'आम आदमी पार्टी' का मायाजाल है। दिल्ली की समझदार जनता और रामलीला मैदान में केजरीवाल कंपनी को हलवा-पूड़ी खिलाने वाले 'रामभक्त' भी छले गए। उधर आदिवासी, अल्पसंख्यक दलित और पिछड़े कहे जाने वाले हिंदुस्तानी को बदलती दुनिया और बदली सरकार से शिकायत नहीं है। उन्हें ईश्वरीय शक्ति के साथ अपनी मेहनत-मजदूरी की ताकत पर भरोसा है। कुछ भी हो भारतीयों की क्षमता पर विश्वास करना जरूरी है। सन 2015 आए या 2050, बदलाव के बावजूद हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी का 'आउटलुक' नहीं बदलेगा। नववर्ष की शुभकामनाएं।
(लेखक जाने माने पत्रकार-स्तंभकार हैं एवं आउटलुक के संस्थापक संपादक रहे हैं)
बदली दुनिया सारी ना बदला हिंदुस्तानी
सन 2002 में कौन कल्पना कर सकता था कि अमेरिका में एक अश्वेत नेता राष्ट्रपति बन सकेगा? भारत में किसने सोचा होगा कि गुजरात के घृणित दंगों की पृष्ठïभूमि के बावजूद प्रदेश के नवोदित नेता नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बन सकते हैं?
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