दिलचस्प बात यह है कि दुनिया की साढ़े तीन अरब की आधी आबादी के पास जितना धन है, उसके बराबर 62 अरबपतियों के पास है। पिछले पांच वर्षों के दौरान संपन्न और गरीब लोगों के बीच खाई बढ़ती गई है। गरीब कहे जाने वालों की संपत्ति एक खरब डॉलर कम हो गई है। इसलिए यह धारणा गलत है कि संपन्नता बढ़ने का लाभ निचले स्तर के लोगों तक पहुंच रहा है। बीजिंग विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट में माना गया कि असमानता की खाई बुरी तरह चौड़ी हो रही है। चीन की एक-तिहाई संपत्ति एक प्रतिशत लोगों के हाथों में है। भारत की तरह चीनी नागरिक रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। चीनी अखबार पीपुल्स डेली ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा है कि यदि समय रहते असमानता काबू नहीं की गई तो सामाजिक विकास और स्थिरता के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
भारत में मनमोहन सिंह की हो या नरेंद्र मोदी की सरकार, विकास और सफलताओं के दावे करती रही हैं। निश्चित रूप से दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, कोलकाता, अहमदाबाद जैसे शहरों में संपन्नता की चकाचौंध दिखती है। हर साल बजट पेश करते समय अथवा सरकार के कार्यकाल की वर्षगांठ पर उपलब्धियों की फेहरिस्त तथा आंकड़े पेश कर दिए जाते हैं। महाराष्ट्र सर्वाधिक संपन्न राज्यों में हैं, लेकिन अब भी हरेक को सिर छिपाने के लिए मकान की गंभीर समस्या है। अगले पांच वर्षों में भी आवास समस्या खत्म करने के लिए 20 हजार अरब रुपयों की जरूरत है। दूसरी तरफ रीयल एस्टेट कंपनियों की हालत पतली हो रही है। मुंबई में भव्य इमारतों के हजारों फ्लैट बने पड़े हैं मगर अधिक लागत और बिक्री का मूल्य बहुत अधिक होने से खरीदार नहीं हैं। कालेधन पर पिछले तीन वर्षों के दौरान लगातार बहस, प्रदर्शन, हंगामे, छापे पड़ते रहे लेकिन काले धन के प्रवाह में कमी नहीं आई। ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई। बिहार, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, असम, छत्तीसगढ़ और झारखंड को निर्धनतम प्रदेश माना जाता है जहां प्रतिव्यक्ति वार्षिक आमदनी मात्र 50 हजार रुपये आंकी गई। हरियाणा सबसे संपन्न प्रदेशों में महाराष्ट्र के साथ खड़ा माना जाता है। जाट आरक्षण आंदोलन में 20 से 30 हजार करोड़ रुपये की संपत्ति नष्ट हो गई। इतनी धनराशि से हजारों गरीब लोगों की जिंदगी संवर सकती थी। इससे पहले आंध्र-तेलंगाना के आंदोलनों की हिंसा में भी हजारों करोड़ रुपयों की क्षति हुई। पंजाब औद्योगिक विकास में अग्रणी हो गया था लेकिन भाजपा-अकाली राज में मादक पदार्थों की तस्करी में अव्वल होने के कारण उद्योग-व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य क्षेत्रों में भी पीछे हो गया। ओडिसा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु जैसे प्रदेशों के बड़े शहरों में संपन्नता दिखती है लेकिन सस्ते से सस्ते अनाज सरकारी कार्यक्रमों के माध्यम से दिलवाने के बावजूद गरीबी और भुखमरी बढ़ रही है। हजारों गांवों में बिजली नहीं पहुंच पाई है। भारत के साढ़े छह लाख गांवों की हालत सुधारे बिना अमेरिका और चीन के साथ मुकाबले के दावे किसके गले उतर सकते हैं? छोटे व्यापारियों को बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों से प्रतियोगिता की सलाह हास्यास्पद लगती है। 1992 में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने मुझसे एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि आलू चिप्स बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां आएंगी और पापड़ और चिप्स बनाने वाले भारतीय व्यापारियों को उनका मुकाबला करना होगा। गृह उद्योग की तरह पापड़ बनाने वाले समूह क्या अब इस प्रतियोगिता में आगे बढ़ पाए हैं? असलियत यह है कि दो दशकों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आलू चिप्स और अन्य नमकीन सुदूर गांवों तक पहुंच गए और पापड़-बड़ी बनाने वाली हजारों महिलाओं को मजदूरी का कोई नया काम ढूंढना पड़ रहा है। विभिन्न राज्यों में अब हजारों करोड़ के पंूजी निवेश की घोषणाओं के समारोह हो रहे हैं लेकिन लघु उद्योग बस्तियां वीरान हो रही हैं। सरकारें बैंकों के माध्यम से लघु उद्योग कारखानों के लिए कर्ज दिलवाने की योजना चलाती हैं लेकिन अधिकांश उद्यमियों को ब्रिकी के लिए न बाजार मिलता है, न ही लागत पूंजी और ब्याज चुकाने की स्थिति बन पाती है। इसलिए संपन्नता के सागर से अमीर भले ही खुशहाल हों, गरीब केवल डुबकी लगाकर किनारे दुखी खड़ा दिखाई दे रहा है। चीन से प्रतियोगिता का लक्ष्य रखने वाली सत्ता व्यवस्था को असमानता की खाई पाटने के रास्ते भी निकालने होंगे।