कविता और सत्ता दोनों एक दूसरे से विमुख रहती हैं, ऐसा प्रायः माना जाता है। कविता जहां विदेह एवं वैराग्य के भाव से भरी होती है। सत्ता वहीं राग, मोह एवं शक्ति के भाव से पूरित होती है। ऐसे में क्या कविता और सत्ता एक दूसरे के साथ क्या चल सकते हैं? 1959 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले इटालियन कवि सलवातोर क्वासिमोडो ने अपने नोबेल व्याख्यान में यह प्रश्न पूछा था- क्या कविता और राजनीति एक दूसरे को सहयोग कर सकते हैं? इसका उत्तर पूरी दुनिया में बन-बिगड़ रही सत्ता की राजनीति के इतिहास में ही हमें मिल गया। अफ्रीकी देश सेनेगल का राष्ट्रपति एक नायाब कवि हुआ- जिसका नाम है- लियोपोल्ड सेंघोर। आइरिस प्रेसिडेन्ट माइकेल डी. हिगिन्स अंग्रेजी कविता के बड़े हस्ताक्षर थे।
भारतीय सत्ता के इतिहास को अगर देखें तो मध्यकाल में बाबर एवं अकबर के कवि भाव को हम जान पायेंगे। बहादुर शाह जफर तो मशहूर शायर थे ही। उनकी लोकप्रिय पंक्ति ‘लगता नहीं है जी इस उजडे़ दयार में’ लोग आज भी गुनगुनाते हैं। बहादुर शाह जफर सत्ता एवं शक्ति की क्रूरता एवं उनसे उपजे मोह भंग के सबसे मार्मिक कवि हैं।
आधुनिक काल में भारत के पहले प्रधनमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू कवि तो नहीं थे, पर कवि-हृदय माने जाते थे। उनकी पुस्तक ‘भारत की खोज’ अनेक काव्यात्मक वृतांतों से भरी पड़ी है। भारत के एक अन्य प्रधान मंत्री हुए- श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जिनके बारे में शायद नई पीढ़ी को कम ही पता हो कि वे एक अच्छे कवि थे। उनकी कविता हाॅलाॅकि काॅग्रेस शासित सत्ता के अन्तर्विरोध से उपजे मोह भंग से पैदा हुई थी, परन्तु उन्होंने भारतीय समाज की सत्ता संरचना में रूपान्तरकारी टूट-फूट पैदा कर दिया था। मण्डल आयोग का रिपोर्ट लागू कर उन्होंने भारतीय समाज की शक्ति संरचना में व्यापक फेर बदल की भूमिका बना दी थी। उनकी कविता- ‘तुम मुझे क्या खरीदोगे, मैं बिल्कुल मुफ्त हूँ।’ उन दिनों अत्यंत लोकप्रिय हुई थी। वे क्षणिकाएं लिखते थे एवं छंद मुक्त कविताएं रचते थे।
भारत के दूसरे प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेई राजनेता के रूप में जितने विख्यात थे, उतने तो नहीं पर, वे एक कवि के रूप भी काफी जाने-माने और सराहे जाते थे। वे अत्यतः सामान्य परिवार से निकल सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे थे। जनता के बीच रहकर उन्होंने अपनी संवेदना का विस्तार किया था। वे अत्यंत सामान्य निम्न मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे थे। वे छंदोबद्ध कविताएं रचते थे। उनकी कविताओं में राजनीतिक एवं कवि मन का द्वन्द तथा द्वन्द्वात्मक समाहन की अनुगूँज सुनी जा सकती है। यूँ तो पी.बी. नरसिम्हा राव भी अत्यंत ख्यातिलब्ध साहित्यकार थे और वे भारत के प्रधान मंत्री भी हुए। तेलुगु भाषा के एक प्रसिद्ध वे उपन्यासकार, सम्पादक एवं अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं। भारत के वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का कविता संकलन ‘साक्षी भाव’ भी हमारे सामने है। उसमें उनकी 90 के पूर्व की लिखी अपनी कविताएं संकलित की है। पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी भी कवि हैं। उनकी 63 पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें से ज्यादातार उनकी कविताओं के संकलन है। उनकी कविताओं में सत्ता में होने के बावजूद मुख्यतः प्रतिरोध की ध्वनि गूॅजती रहती है। काग्रेस के नेता कपिल सिब्बल, सलमान खर्शुीद भी कवि एवं नाटककार के रूप में भी जाने जाते हैं।
भारत के वर्तमान शिक्षा मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक मूलतः कवि हैं। वे कवि पहले से हैं, राजनेता बाद में हुए। उनकी लगभग 75 पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें ज्यादातर कविता पुस्तके हैं, वे उतराखण्ड के मुख्य मंत्री रहे हैं। वे एक गरीब परिवार में पैदा हुए। बचपन में गरीबी के बिरूद्ध एवं शिक्षित होने के लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया। कठिन समय से हो रही उनकी जुझ उनकी कविताओं में साफ सुनी जा सकती है। उनकी कविताओं में अनवरत जीजिविषा तो है ही सत्ता एवं राजनीति के कठोर जगत में अपने कवि मन को बॅचाने का जद्दोजहद भी साफ दिखता है। उद्बोधन एवं प्रेरणा के स्वर उनकी कविताओं में तो होती ही हैं। सत्ता में रह कर संवेदना बचाए रखने का अन्तः संघर्ष एवं द्वन्द् उनकी कई कविताओं मे बार-बार आता रहता है। वे सत्ता में हैं। उनके भीतर के इस सम्मावित द्वन्द् पर उनके संकलन ‘खड़े प्रश्न’ के विमोचन के समय श्री अटल बिहारी बाजपेई ने एक बात कहीं थी, जिसमें उनके अपने एवं राजनीति में रहने वाले अन्य कवियों की कविता को बचाए रखने का अन्तः संघर्ष दिखाई पड़ता है। 2008 में हुए इस विमोचन के अवसर पर श्री बाजपेई ने कहा था- राजनीति में आने पर कविता छूटने लगती है। फाइल पर नोट तो लिखिए ही, कविता भी लिखते रहिए।’ उन्होंने कहा राजनीति में प्रश्न करना खत्म हो जाता है। प्रश्न खड़े करते रहिए। ‘अटल जी, नरेन्द्र मोदी जी एवं निशंक जी तीनों की कविताओं में सत्ता के बीच रहकर कविता रचने का द्वन्द देखा जा सकता है।
सत्ता में प्रश्न नहीं होता। तब कवि जो मूलतः प्रश्नाकुल एवं प्रतिरोधी होता है, कैसे राजनीति मे सफल हो पाता है। ये कवि कैसे राजनीति में इतना सफल हो पाये? क्या इन्होंने अपने मन एवं संबेदना के साथ समझौते किये होंगे? सत्ता जो कविता को हतती है, इन्होंने उससे कैसे ताल-मेल बिठाया होगा? ये प्रश्न कठीन हैं, इनका उत्तर तलाशना और भी कठिन।
प्रश्न उठता है कि राजनीति एवं कविता जैसा दो विरूद्धों को क्या जोड़ता है? इन्हें जोड़ने वाला एक तत्व है- संवेदना। संवेदना सक्रिय एवं निष्क्रिय दोनों रूपों में कविता की प्राण तत्व है। सकरात्मक राजनीति भी संवेदना के तारो से कहीं न कहीं जुड़ी होती है। मानवीय भाव, लोगों के सुख-दुख एवं संवाद की चाह कविता एवं सकारात्मक राजनीति दोनों के तत्व मानेे जाते हैं।
शायद इसी लिए संसद के विभिन्न सदनों में हमारे राजनीतिज्ञ कविता कहते, सुनते, लिखते, रचते दिख जाते हैं। एक आंकड़े के अनुसार 2016 में 43 बार सांसदो ने संसद में कविताएं सुनाई। मंचीय कविता में नेताओं के प्रति व्यंग रहता है। पर नेता अनेकों बार कविता के माध्यम से अपनी बात कहते रहते हैं।
एक बार शेक्सपियर ने कहा था - रात इतनी लम्बी होती है जिसका कोई दिन नहीं दिखता। यही कवि की अवस्थिति का सत्य है। शायद राजनीति में सक्रिय कवि अपनी रातों की सुबह देख रहे होते हैं। इसी लिए अनेक मोहभंगो के बीच भी वे अपनी कविताएं रच रहे होते हैं। सत्ता एवं शक्ति के बीच रह कर भी अपने कवि मन को बचाए रखने का द्वन्द् उनकी कविताओं को रच रही होती हैं। राजनीति की दुनिया क्रूर होती है, उसमें रहने पर जलते तावे पनी की बूँद की तरह छछनते ऐसे कवियों का संघर्ष देखा जा सकता है। हमारा राजनीतिक नेतृत्व जो संवेदनशील हैं, उनकी कविताएं सत्ता की मतलबी दुनिया में मानवीयता एवं जनजुड़ाव के पक्ष में उनके एक दस्तावेज की तरह हमारे समक्ष आती है। उनमें कई समझौते होंगे पर उनकी कविताओं में इन समझौतों के कारण उपजी पीड़ा भी जरूर फुटती होगी, अगर वे कवि है तो।
(लेखक इलाहाबाद स्थित जी.बी.पंत इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं)