ग्यारह साल की सखी और नौ साल की सहर, दो बेटियों की मेहरबानी से कई सालों से टेलीविज़न पर आने वाले कार्टून सीरियल का नियमित दर्शक हूं। डोरेमॉन, पोकेमॉन, निन्जा हथौड़ी, छोटा भीम, कृष्णा इत्यादि ये कार्टून्स बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं और अब तो मुझे भी रट गए हैं। इनमें बहुत से कार्टून करेक्टर या सीरियल तो जापानी हैं और जो भारतीय हैं वो हमारी धार्मिक-पौराणिक और मिथकीय कहानियों से लिए गए हैं। बच्चों के बीच सबसे ज़्यादा देखा जाना वाला कार्टून शायद डोरेमॉन है और उसके बाद छोटा भीम। बच्चों के मनों पर तेज़ी से छाने वाले शिनचैन जैसे कार्टून तो बंद ही करने पड़ें हैं क्योंकि उनमें तो बेहूदगियों-बदतमीज़ियों की हद ही हो गई थी। खैर, हमारा नीला रकून...माफ़ कीजिए, उसे इस नाम से चिढ़ है...हमारा डोरेमॉन एक बेहद दिलचस्प करेक्टर यानी किरदार है जो 22वीं सदी का एक रोबोट है और सौ साल पीछे यानी हमारी 21वीं सदी में आया है। उसके पास तरह-तरह के गैजेट्स यानी आधुनिक यंत्र हैं जो लगभग जादुई हैं और हर काम पलक झपकते कर देते हैं। उसके पास टाइम मशीन है, जिससे वो आराम से किसी भी समय में आ-जा सकता है, तो बैम्बू-कॉप्टर भी, जिसे सिर पर लगाकर वो उड़ सकता है। चीज़ों को छोटा-बड़ा करने वाली लाइट भी है तो एनी वेयर डोर भी, जिससे कभी भी, कहीं भी पहुंचा जा सकता है। उसका साथी है नोबिता, जो कुछ बुद्धू और आलसी है। उसे हर समय डोरेमॉन की मदद चाहिए और हर काम यानी अपना होमवर्क करने तक के लिए उसके गैजेट्स चाहिए। दो और चतुर-चालाक और कुछ शैतान से पात्र यानी बच्चे हैं ज़ियान और सुनियो और एक सादा और समझदार लड़की शुजिका।
छोटा भीम में भीम नाम का बच्चा ही हीरो है। उसके साथ भी दोस्तों की एक टोली है। कृष्णा में ज़ाहिर है कि भगवान कृष्ण का बाल रूप है और उनकी लीलाएं हैं। अर्जुन प्रिंस ऑफ बाली में महाभारत के अर्जुन की तरह वीर और तीरंदाज अर्जुन का बाल रूप रचा गया है। इसके अलावा गणेश और हनुमान जी को लेकर भी कई एनिमेटड फिल्में और सीरियल रचे गए।
कहने का मतलब ये है कि बच्चों के हर कार्टून सीरियल में एक नायक है, चाहे वो आधुनिक यंत्रों से लैस हो या मिथकीय चमत्कारिक शक्तियों से। यही वो नुक्ता है जिसपर मैं कहना चाहता हूं कि किसी भी सीरियल में सामूहिक चेतना या सामूहिक प्रयास नहीं है। एक बच्चा या रोबोट हीरो है और सबकुछ उसके ईर्द-गिर्द बुना गया है। अन्य बच्चों की भूमिका गौण है। हीरो के पास हर समस्या का हल है। हर मुसीबत से लड़ने की शक्ति है और अन्य बच्चे सिर्फ उसके फॉलोअर हैं। बिल्कुल हमारे सिनेमा की तरह। जहां नायक ही सबकुछ है। इस हीरो या नायक की छवि या सोच ने हमारा बहुत नुकसान किया है। हालांकि हमारे समय में और उससे पहले भी, हमेशा से एक नायक को गढ़ा गया है। हमारी पुरानी कहानियों में भी अलादीन का चिराग था, जिसे घिसते ही जिन्न प्रकट होता था और पूछता था- क्या हुक्म है मेरे आका। जादूगर थे, जिनके पास जादू की छड़ी होती थी और वो गिली-गिली छूमंतर करते ही आदमी को गधा और गधे को आदमी बना देते थे।
इसी तरह चिराग़ के जिन्न का नया वर्जन या रूप है डोरेमॉन। और जादू की छड़ी की तरह हैं उसके आधुनिक गैजेट्स। इन कार्टून में हालांकि कुछ मुद्दों पर जागरूक करने वाली कहानियां भी गढ़ी गई हैं चाहे वो पर्यावरण की समस्या हो या जानवरों की प्रति प्यार लेकिन ये सच यही है कि इन कहानियों, कार्टून के जरिये हमें जो सिखाया-समझाया जा रहा है वो है हर काम में दूसरों पर निर्भरता। और वो “दूसरा” भी कोई समूह या समाज नहीं, बल्कि एक व्यक्ति विशेष, एक नायक, एक हीरो। और इस सबसे बढ़कर एक मसीहा। जिसके पास हमारी हर समस्या का समाधान है, हर मर्ज़ की दवा है।
वैसे तो हम उस देश या समाज के लोग हैं जहां भगवान और किस्मत का भरोसा ही पहला और अंतिम भरोसा है। हमारे महापुरुष राम, कृष्ण ही हमारे नायक और भगवान हैं। जो हर संकट में हमारा सहारा हैं। उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता लेकिन हमारी समस्याओं के लिए वे दोषी नहीं हैं। हमारी हर समस्या के पीछे या तो हमारे भाग्य का दोष है या प्रारब्ध का। किसी की ग़रीबी, किसी की अमीरी, यहां तक की शोषण तक के लिए हमारे आज के समय-समाज या सरकारों की नीतियों की विसंगति नहीं, बल्कि पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है।
तो धर्म ग्रंथों, पौराणिक कथाओं से लेकर आज के कार्टून और फिल्मों तक ने हमारे दिमाग़ों को इस तरह रचा-बुना है, इस तरह कंडीशनिंग की है कि हम इससे अलग और इससे आगे सोच ही नहीं पाते। तभी तो हम देश-समाज की समस्याओं के हल के लिए भी किसी मसीहा के इंतज़ार में रहते हैं। यही वजह है कि देश के स्तर पर नरेंद्र मोदी का उदय होता है और दिल्ली के स्तर पर अरविंद केजरीवाल का जन्म। बाल नरेंद्र से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक की छवि भी इस तरह रची या गढ़ी जाती है कि हमें एक व्यक्ति में मसीहा नज़र आने लगता है।
(लोकसभा चुनाव के समय बाल नरेंद्र के नाम से किस्से-कहानियों, कार्टून की एक पूरी श्रृंखला हमारे सामने आई जिसमें नरेंद्र मोदी को एक चमात्कारिक बालक के रूप में गढ़ा गया और प्रचार माध्यमों के जरिये गुजरात के पेरिस बनाने की कहानियां के साथ हमने बड़े नरेंद्र मोदी को जाना।)
एक भाजपाई मित्र लोकसभा चुनाव के दौरान अक्सर मुझसे पूछते थे कि बताओ मोदी नहीं तो कौन? वो खुद ही मोदी के बरअक्स कुछ नाम गिनाते थे, जैसे राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल...और फिर खुद ही मुस्कुराने लगते थे। उन्हें लगता था कि इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। प्रचार माध्यमों के जरिये भी जिसतरह का हल्ला बोला गया था उसमें भी मोदी के सामने कोई नेता नहीं दिख रहा था। लेकिन मैं हमेशा उनसे कहता था कि आप व्यक्तियों में समाधान तलाश रहे हैं, जबकि समाधान नीतियों में है। आप व्यक्तियों की तुलना कर विकल्प पूछ रहे हैं जबकि आज वैकल्पिक नीतियों की ज़रूरत है।
लेकिन नहीं, हमें ये सब नहीं देखना। हमारे मन-मस्तिष्क में एक छवि है मसीहा की, जो बालपन से ही हमारे मनों में अंकित कर दी जाती है। ध्यान देने की बात है कि यही वह उम्र होती है जब हमारे दिमाग़ का तेज़ी से विकास होता है और इस समय हमने जो देखा, जाना, सीखा वो पूरे जीवन हमारे साथ चलता है। इस तरह हम अपनी आलोचनात्मक दृष्टि खो देते हैं और आमतौर पर धोखा खाते हैं। जैसे आज का परिदृश्य है कि मोदी सरकार के एक साल बाद ही जनता में गहरी निराशा है, मेरे भाजपाई मित्र भी इन दिनों मुस्कुरा नहीं रहे। इसलिए ज़रूरत है कि बचपन से ही हमारी सामूहिक चेतना का विकास किया जाए। ऐसी कहानियों, कार्टून और फिल्मों का निर्माण हो जो हमें जादुई या आभासी दुनिया से निकालकर यथार्थ की दुनिया में लाए। ...हां, जादू हो गुरेज नहीं, मनोरंजन भी हो लेकिन अंतत: हमें संघर्ष सिखाए और मिलजुल कर आगे बढ़ने का सबक दे।