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"हम आपके अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बनने से इंकार करते हैं"

अब आप हमारे ही घर में हमें पचास एकड़ में सिमट जाने पर बाध्य कर रहे हैं। पचास एकड़ की भीख हमें मंजूर नहीं है। हम आपके हाथ का खिलौना बनने से इंकार करते हैं, आपके अश्वमेध यज्ञ का घोडा बनने से इंकार करते हैं। हमारे नाम पर हिन्दू वोट कंसोलिडेट करना बंद करो। हम अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगे।

1990 में कश्मीर से निर्वासन हुआ तो मैं चौदह साल का था। इस्लामिक कट्टरपंथियों ने चुन-चुन कर कश्मीरी पंडितों को मारना शुरू कर दिया था। घरों में, दफ्तरों में, सड़कों पर, दुकानों पर, हमारा खून बहाया गया। दशकों तक हमने एक अल्पसंख्यक समुदाय के तौर पर घाटी में सर झुकाकर रहना सीख लिया था। लेकिन अब "यहां क्या चलेगा, निज़ाम-ए-मुस्तफा" की व्यवस्था में हमारे लिए कोई जगह नहीं बची थी। चार लाख कश्मीरी पंडित कुछ ही महीनों के अंदर बेघर हो गए।
 
हम में से ज्‍यादातर लोग पहले जम्मू आए। घाटी के बाद जम्मू सबसे पहला सुरक्षित पड़ाव था। यहां आकर हमें पता चला कि संघ परिवार को हमारी काफी चिंता है। इस से पहले मुझे संघ का ज्ञान नहीं था। पिताजी को रहा होगा। उन्होने बताया कि कश्मीर में दूर-दराज गांवों में लोगों की जनसंघ के बारे में धारणा थी कि यह किसी ऐसी बला का नाम है जो खेतों में किसी को अकेला पाकर उस पर हमला बोल देता है। बहरहाल जम्मू में हमें इस बात की खुशी थी कि कोई तो इस देश में हमारी सुध लेना वाला है। जम्मू में मस्जिदों से नारे लगाकर हमारी रूह कंपा देने वाला कोई नहीं था। जम्मू मंदिरों का शहर था। जम्मू में बसंत पंचमी पर ख़ुशी ज़ाहिर करने की आज़ादी थी।   
 
लेकिन यह खुशी ज़्यादा देर तक नहीं रह पाई। जम्मू आते ही हम पर कई वज्रपात हुए। असहनीय गर्मी में रहने लायक ठिकाना ढूंढने के लिए हम दर-दर भटकते रहे। यहां हमें पता चला कि मकान मालिक हिन्दू या मुसलमान नहीं होता, वो सिर्फ मुनाफाखोर होता है। 
 
निर्वासन के करीब दो साल बाद मुरली मनोहर जोशी साक्षी महाराज सरीखे लंपट और गंजेड़ी साधुओं की टोली लेकर जम्मू पहुंचे। क्या करने आए हो जी? श्रीनगर में लाल चौक पर तिरंगा फहराने आये हैं जी। चलिए अच्छा है। खिलौना त्रिशूल लिए साधुओं की खूब आवभगत हुई। बिस्कुट और दूध बांटा गया। तब पहली बार नारा सुना: "जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है। "हमने जोशी जी के साथ आए कई लोगों से पूछा: साहब, यह मुखर्जी कौन हुए? कोई नहीं बता पाया। सोचा जोशी जी से पूछें, लेकिन तब तक वो जम्मू से ही कार्यक्रम के संचालक नरेंद्र भाई मोदी के संग पुष्पक विमान में बैठकर श्रीनगर के लिए निकल चुके थे जहां उन्होंने सेना के जवानों को ढाल बनाकर तिरंगा फहराया। 
 
फिर दूसरा नारा लगा: "दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे". इसी नारे के सहारे, कश्मीरी पंडितों की त्रासदी पर पांव जमाते हुए भाजपा राष्ट्रीय पार्टी बन बैठी। एक तरफ मुख़र्जी का कश्मीर, दूसरी तरफ रामलला की अयोध्या।  
 
मुखर्जी का रहा होगा, लेकिन कश्मीर में रहते तो पंडित थे। उनका क्या? उन्हें संघ ने जम्मू तक में ठौर नहीं जमाने दी। बोले - यहां लोगों को चिंता है कि आप यहां के साधनों पर कब्जा कर लेंगे। 
 
तो साहब, जलावतनी हमारा जाम बना, उसके दौर पर दौर चले। हम एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहे। जोशी जी चले गए, अडवाणी जी आए। उन्होंने खूब हाथ मले। उसके बाद कविवर अटल जी आए। वो भी काल के कपाल पर लिख लिख के मिटाते रहे। 
 
इस बीच हमने अपने पूर्वजों की सुनी और "विद्याम देही सरस्वती" को अपना मूल मंत्र बनाकर चलते रहे।
 
दो दशक बाद मोदी जी फिर नमूदार हुए। पहली बार "मित्रों" बोले तो कई पंडितों को लगा जैसे मोदी जी उन्हें ही सम्बोधित कर रहे हैं। खैर, चुनाव हुए और वो प्रधानमंत्री बने। पता चला कश्मीर घाटी में जमीन खोजी जाएगी जहां पंडितों को वापस बसाया जाएगा। पर हाय राम ! वहां तो बहेलिये ने जाल बिछा रखा था। मोदी जी के दूत कश्मीर पहुंचे। जिन लोगों को तमाम उम्र आस्तीन का सांप करार दिया, उनके गले लगकर उनका मुंह नागपुर की संतरा-बर्फी से मीठा किया। रशीद भाई इंजीनियर, वन मोर, आपको मुखर्जी की कसम ! 
 
और कश्मीरी पंडित? टीवी पर भाजपा के प्रवक्ताओं ने दलील दी कि भैय्या, अभी तो साल भर ही हुआ है। और कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन की सरकार को बने चंद महीने। पर मूर्ख और अवसरवादी प्रवक्ता को भला ये कौन समझाता कि एथनिक क्लेंसिंग के मारे लोगों के बारे में सिर्फ सत्‍ता में आने के बाद ही नहीं सोचा जाता। आप उनके बारे में गंभीर होते तो अब तक आपके पास उनकी वापसी का खाका तैयार होता।
 
सच तो यह है कि आपने हमें अपने अश्वमेध यज्ञ का घोडा बनाया। हम में से कई आपका तिलिस्म पहले ही तोड़ चुके थे। लेकिन आप भी अय्यारी में निपुण हैं। आजकल आप हमारे ही बीच अपने प्यादे खड़े करने की फिराक में हैं। आपकी चाल है कि पिछले पच्चीस साल का हमारा विरोध दरकिनार हो। 
 
अब आप हमारे ही घर में हमें पचास एकड़ में सिमट जाने पर बाध्य कर रहे हैं। पचास एकड़ की भीख हमें मंजूर नहीं है। हम आपके हाथ का खिलौना बनने से इंकार करते हैं, आपके अश्वमेध यज्ञ का घोडा बनने से इंकार करते हैं। हमारे नाम पर हिन्दू वोट कंसोलिडेट करना बंद करो। हम अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगे। 
 
जहां हुई बलिदान गिरजा तिक्कू, वो कश्मीर हमारा है।
 
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(राहुल पंडिता के कश्मीर छोड़ने के संस्मरण  "Our Moon Has Blood Clots" का हिंदी अनुवाद "मेरी मां के बाईस कमरे" जल्दी ही उपलब्ध होगा।) 
 
 
 
 

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