भारतीयों की पीढ़ी दर पीढ़ी गणित, संस्कृत और इतिहास से भयंकर घृणा करते हुए स्कूली शिक्षा लेती है। सच कहूं तो, गणित अभी भी इसके प्रति रुझान रखने वाले कुछ मुटठीभर लोगों के लिए ही उपयोगी माना जाता है। संस्कृत आसानी से नंबर पाने के लिहाज से अच्छा है। लेकिन रट-रटकर इतिहास पढ़ना, (राजवंशों के नाम, काल, युद्ध की तारीखें) और फिर भुला देना, एकदम बेकार है। इतिहास के बारे में हमारा नजरिया 1962 में धर्मेंद्र-माला सिन्हा की फिल्म अनपढ़ के सदाबहार गीत से व्यक्त हुआ। सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई, जो की थी लड़ाई... तो मैं क्या करूं...
और फिर, उत्तर भारत के जनमानस में, अकबर के अलावा सभी मुस्लिम शासक हत्यारे थे जिन्हें अपने भाइयों, बेटों, पिता और दुश्मनों का सिर कलम करने और उन्हें अंधा करने में बराबर मजा आता था। शायद यही वजह है कि औरंगजेब के नाम की एक सड़क का नाम बदलकर एपीजे अब्दुल कलाम करने पर तकरीबन कोई जनाक्रोश नहीं दिखा। आम प्रतिक्रिया कुछ इस तरह कि है...तो मैं क्या करूं?
हालांकि, आजादी के बाद नई बनी अधिकांश सड़कों पर यही प्रयोग करना संभव नहीं है। मैं आउटर रिंग रोड के एक हिस्से से सटी कॉलोनी में रहता हूं। राजधानी के सबसे चौड़े और सबसे व्यस्त रास्तों में शुमार इस सड़क को जमाल अब्दुल नासिर मार्ग कहा जाता है। यह नाम इतिहास में उतना भी पुराना नहीं है कि आप अज्ञानता या उदासीनता वश इसे नजरअंदाज कर सकें। हमने नासिर को जवाहर लाल नेहरू और मार्शल टीटो के साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन की तिकड़ी के नायक की तरह देखा है। लेकिन हाल में वह अपने मुल्क मिस्र में लोकतंत्र और स्वतंत्रता के विनाशक, एक शैतान के रूप में फिर से उभरे हैं। उनके उत्तराधिकारी होस्नी मुबारक तहरीर चौक के विद्रोह में उखाड़ फेंके गए और मिस्र के लाखों लोग उनका गला दबाने को बेताब हैं। काहिरा में आप किसी को बताइये कि आप नासिर के नाम पर कुछ बनाना चाहते हैं तो लोग आपको सूली पर चढ़ा सकते हैं। लेकिन अगर आप नासिर की याद में लालायित मिस्र के कोई पुराने समाजवादी हैं तो नई दिल्ली आ जाइये और मैं जहां रहता हूं वहां से सौ मीटर दूर देखिए।
उसी मुख्य मार्ग पर कुछेक किलोमीटर पूरब की ओर पंचशील पार्क होते हुए अशोक के पेड़ों की कतारों के बाद नासिर गुटनिरपेक्ष के पुराने सहयात्री और कामरेड टीटो से मिलते हैं क्योंकि उत्तर-दक्षिण की ओर जोसिप ब्राॅज टीटो मार्ग इसे परस्पर विभाजित करता है। अपने मुल्क यूगोस्लाविया में टीटो काफी लोकप्रिय और रौबदार हस्ती हुआ करते थे, जब तक कि 1990 के बाद समूचे पूर्वी ब्लॉक के साथ-साथ यूगोस्लाविया की नाकामियों का सिलसिला शुरू नहीं हुआ था, जिससे बॉल्कन में कई तरह के संघर्ष पैदा हुए। बड़ी संख्या में उनके नाम की सड़कों और स्थलों के पुराने नामों को बहाल कर दिया गया। इन्हीं में सबसे पहला था मोंटेनिग्रो (हाल ही में जिसे ललित मोदी ने मशहूर किया) जहां की संसद ने राजधानी टिटोग्राद का नाम बदलकर मूल नाम पॉडगोरिका कर दिया। टिटोवो यूजीक नाम का शहर वापस वही हो गया जो पहले था यानी यूजीस। क्रोएशिया में उनके जन्मस्थल कुमरोवेक में उनकी ऐतिहासिक प्रतिमा 2004 में बमबारी कर नष्ट कर दी गई (बाद में दो बार इसकी मरम्मत हुई)।
स्लोवेनिया में उनके नाम के कुछ पुराने स्थल वैसे के वैसे ही रहे लेकिन अदालत ने किसी नई सड़क को उनका नाम देना असंवैधानिक करार दे दिया। अदालत के अनुसार, टीटो नाम न केवल दूसरे विश्व युद्ध में फासीवाद से मुक्ति का प्रतीक है बल्कि मानवाधिकारों और बुनियादी स्वतंत्रता के घोर हनन का प्रतीक भी है। बेशक, दिल्ली में इससे किसी को फर्क न पड़ता हो, लेकिन हमने इस रास्ते को अपनी नाकाम क्रांति यानी बस रैपिड ट्रांसपोर्ट या बीआरटी के लिए चुना।
वक्त के साथ अब बाल्कन में टीटो के प्रति कुछ रोमांचक लगाव फिर से लौट आया है, फिर भी मुझे नहीं लगता है कि वहां के किसी सैलानी को यहां टीटो के नाम की सड़क देखकर ज्यादा कृतज्ञता का भाव आएगा, ठीक उसी तरह जैसे मिस्रवासी को यहां नासिर मार्ग देखकर। इसमें से किसी एक या दोनों रास्तों का नाम बदलकर कलाम के नाम पर किया जा सकता था। इस सड़क के पश्चिमी छोर में कद्दावर पूर्व सरसंघचालक के नाम पर रखे केशव बलिराम हेडगेवार मार्ग को देखते हुए ऐसा करना ज्यादा उचित रहता। लेकिन फिर मजा कलाम का नाम लिखने में नहीं बल्कि औरंगजेब का नाम मिटाने में था।
12वीं शताब्दी के बाद से दिल्ली भले ही मुस्लिम शासकों और फिर अंग्रेजों की राजधानी के तौर पर अधिक विख्यात रही, लेकिन विचारधारात्मक शहर के रूप में परिवर्तित यह नेहरु-इंदिरा के दौरान ही हुई। चाणक्यपुरी से शुरू होने वाले नए डिप्लोमैटिक एनक्लेव, जिसका नाम शासन और कूटनीति पर मौलिक भारतीय संहिता लिखने वाले चाणक्य के नाम पर रखा गया, के हाल इतने भयानक हैं कि उनके नाम पर बने एक पूरे उपनगर में एक प्रमुख मार्ग को नाम दिया गया है: कौटिल्य। जिस सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के वह सेवक थे, उनके नाम पर एक अपेक्षाकृत छोटी लिंक रोड है और ऐसा इसलिए नहीं है कि एक मैथिल ब्राह्मण था और दूसरा कुशवाहा (शायद मैं भाजपा को आइडिया दे रहा हूं जो कुशवाहा वोट के लिए इतनी बेचैन है कि चक्रवर्ती अशोक के यश को पुनर्जीवित करना चाहती है, भले ही वह जीते हुए राज्यों का त्याग करने की वजह से ही महान कहे जाते हैं।)
इस राजधानी में शासकों, उत्तराधिकारियों और निर्वाचितों के बजाय नौकरशाहों ने सत्ता का इस्तेमाल ज्यादा किया है। शुरुआती योजना के मुताबिक चाणक्यपुरी के मध्य में मिलने वाले मुख्य मार्गों के नाम पंचशील यानी शांति, धर्म, न्याय, नीति और सत्य के नाम पर रखे जाने थे।(दिल्ली के रास्तों के नामों पर इतिहासकार नारायणी गुप्ता का दिलचस्प लेख Celebrating Delhi में देखें, पेंग्विन/रवि दयाल, 2010)
लैटिन अमेरिका के मुक्तिनायक सिमोन बोलिवार के नाम पर सड़क होना समझ में आता है खासकर जब भारत ने खुद को साम्राज्यवाद विरोधी देश के तौर पर पेश किया। लेकिन घाना के तानाशाह क्वामे एन्क्रूमा? दिल्ली में एक ऐसे आदमी के सम्मान में सड़क जिसने खुद को मसीहा घोषित किया और चर्चित तौर पर ऐलान किया कि एक नव स्वतंत्र राष्ट्र के लिए पूंजीवाद एक अति जटिल व्यवस्था है। उसके आखिर समय (1966 में वह अपदस्थ हुआ) तक घाना राजनीतिक उथलपुथल और आर्थिक बर्बादी में रहा, जिससे अभी भी पूरी तरह नहीं उबर पाया है। लगातार कई तख्तापलट और अराजकता के बाद घाना को लोकतांत्रिक स्थिरता हासिल करने में एन्क्रूमा के बाद चार दशक लग गए। लेकिन नीदरलैंड, इटली और कनाडा के दूतावास एक पुराने तानाशाह के नाम की सड़क पर स्थित हैं।
चाणक्यपुरी और आसपास के इलाकों में आप सड़क संकेतों में इतिहास देखते हैं, क्रांतिकारी इतिहास, हमारा नहीं बल्कि बाकी दुनिया का और उसमें भी लैटिन अमेरिका के प्रति विशेष झुकाव। वहां आपकों अर्जेंटीना के जनरल होस दसैन मार्टिन (1778-1850) मिलेंगे, जिन्होने चिली, पेरू और अर्जेंटीना को आजाद कराया था। उरूग्वे (इस देश का नाम फीफा विश्व कप के दौरान सुनते हैं) के राष्ट्रीय नायक जरनल जोस गर्वासियो आर्टिग्स यहां मिलेंगे जो मैक्सिको के सुधारक बेनिटो जुआरेज से ज्यादा दूर नहीं हैं। होसे रिसाल के साथ फिलिपींस भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है,1869 में जिनकी मौत ने एक क्रांति की चिंगारी जला दी थी। तुर्क भी पीछे नहीं हैं। रेस कोर्स रोड क्रेसेंट को चाणक्यपुरी से जोड़ने वाली सड़क कमाल अतातुर्क के नाम पर है जबकि अपेक्षाकृत समकालीन तुर्गुत ओजाल भी आसपास ही हैं। आर्क बिशप मकरिओस तक पहुंचने के लिए आपको नक्शे में पूर्व की ओर बढ़ना होगा, अौर वह मदर टेरेसा (हालांकि वाजपेयी के समय ओल्ड वेलिंगटन क्रिसेंट का नाम उनके नाम पर बदला गया) की तरह कोई धर्म प्रचारक मिशनरी नहीं हैं जिन्हें सेकुलरवादियों ने संरक्षण दिया। वह साइप्रस के ताकतवर शख्स थे, जिनकी विरासत काफी उलझी हुई है। लेकिन दिल्ली में उन्हें एेसा गौरवशाली दर्जा क्यों दिया गया? क्योंकि साइप्रस में उन्हेंने इंदिरा गांधी के नाम पर इसी तरह एक जगह का नाम रखा था।
संक्षेप में, जबकि हम मुगलों को लेकर ग्रसित हैं, दिल्ली में दुनिया भर के क्रांतिकारियों, जनरलों और तानाशाहों के नाम पर सड़कें हैं लेकिन शीत युद्ध की विशिष्ट छाप के साथ। हमने आउटर रिंग रोड के एक प्रमुख हिस्से का नाम कत्ल किए गए स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पाल्मे के नाम पर रखा, जिन्होने हमें बोफोर्स तोपें बेचीं लेकिन यह नहीं बताया कि उन्होंने घूस किसे दी थी। मंगोलिया और इसकी राजधानी उलान बटोर की तस्वीरें हमारे टीवी स्क्रीन पर छाए हुए थे जब ऐसा प्रतीत हुआ कि नरेंद्र मोदी ने भारत के लिए एक अद्भुत नया देश खोज निकाला है। दिल्ली एयरपोर्ट के टर्मिनल वन से बाहर निकलते हुए बायीं ओर देखिए, आपको उलान बटोर मार्ग दिख जाएगा। आगे चलकर यह आपको दिल्ली कैंट या द्वारिका की ओर ले जाने के लिए कट जाएगा। यह नाम यहां कैसे पहुंचा, मुझे नहीं पता, लेकिन संभवत: उलान बटोर में भी इसी तरह दिल्ली या नेहरु-गांधी के नाम पर सड़क का नाम रखा गया होगा।
हमारी सड़कों के नाम में एक खास विचारधारात्मक झुकाव दिखता है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की ओर जाने वाली 200 मीटर लंबी सड़क, जिसका नाम इसके वास्तुकार जोसेफ स्टीन के नाम पर है, के अलावा मुझे दिल्ली में किसी अमेरिकी के नाम पर कोई सड़क ढूंढ़े नहीं मिली। यहां कोई लिंकन, मार्टिन लूथर किंग, कैनेडी, आइंस्टीन, चार्ली चैपलिन, डोनाल्ड डक, मिकी माउस रोड नहीं है। जिसे मैं जानता दुनिया का ऐसा कोई महान लेखक, कलाकार, यहां तक कि कार्टून चरित्र नहीं है। बेशक हमें टॉल्स्टॉय और कोपरनिकस मिलतें हैं लेकिन मैक्स मूलर जैसे संस्कृतविद के अलावा पश्चिम का कोई नहीं है। यह एक अलग बात है लेकिन समूचे भारत में किसी अमेरिकी की कोई यादगार खोजना वाकई मुश्किल है। कोलकाता में चैपलिन के नाम पर एक पार्क है लेकिन वह एक वामपंथी थे, और मेरे पसंदीदा अमृतसर में एक कैनेडी एवेन्यू है जो इस बात की तस्दीक करता है कि पंजाबी सही मायनों में एक पाश्चात्य समुदाय है। अगर आपको कहीं भी इससे ज्यादा मिले तो मुझे जरूर बताइये।
हम दूसरों के सेनाएध्यक्षों का बड़ा सम्मान करते हैं, लेकिन अपनों का नहीं। फील्ड मार्शल मानेकशॉ हमारे सबसे प्रसिद्ध सैनिक हैं। अब जाकर सेना ने उनके नाम पर दिल्ली कैंट में एक बड़ा सम्मेलन केंद्र बनाया है। कैंट में कुछ अन्य सेना प्रमुखों का भी उल्लेख है। नई दिल्ली में सरोजिनी नगर के पीछे एक लेन का नाम ब्रिगेडियर होशियार सिंह (मरणोपरांत महावीर चक्र, बोमडिला, 1962) के नाम पर रखा गया है। तब, सबसे बड़ा अपमान, लुटियंस दिल्ली के एक रास्ते का नाम वीके कृष्णा मेनन रखा गया, जिन्होंने सन 1962 में हमारी सबसे बड़ी सैन्य किरकिरी कराई।
राजेंद्र प्रसाद, राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन के बाद अब कलाम चौथे राष्ट्रपति हैं जिनके पास नई दिल्ली में एक सड़क है। अपेक्षाकृत छोटी जाति या समुदाय के नेताओं सहित अन्य राजनीतिक नेताओं को भी उनकी जगह मिली है। आउटलुक का कार्यालय दक्षिण दिल्ली के सफदरजंग एन्क्लेव में चौधरी झंडू सिंह (फोगाट) मार्ग से सटे एक व्यावसायिक केंद्र में स्थित है। मैं चौधरी साहब के बारे में बस इतना ही जान सका कि वह पास के मुहम्मदपुर गांव के रहने वाले थे और गायों के संरक्षक थे। उन्होंने कई गौशालाओं की स्थापना की थी। जबकि भारत के कई कामयाब लोगों, वैज्ञानिकों, कलाकारों और नोबेल पुरस्कार विजेताओं को जगह नहीं मिल पाती है। सीवी रमन के नाम पर न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के पास एक छोटी-सी सड़क है, जगदीश चंद्र बोस के नाम पर आईआईटी के पीछे संस्थानों के झुरमुट में वैसी ही मामूली जगह है। होमी भाभा, श्रीनिवास रामानुजन, पंडित रवि शंकर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, रुक्मिणी देवी अरुंडेल, एमएफ हुसैन जैसे सभी लोग हमारी सड़कों और दीवारों पर उल्लेख के पात्र हैं। उसी तरह जयप्रकाश नारायण (अस्पताल के अलावा), मोरारजी देसाई, आर वेंकटरमन, नरसिम्हा राव जैसी राजनीतिक हस्तियां भी। दिल्ली की तुलना में मुंबई, बॉलीवुड दिग्गजों और प्रतिभाओं के प्रति वाकई निष्पक्ष रहा है।
अभी भी दिल्ली में बहुत-सी सड़कों का नामकरण होना बाकी है। आप नासिर व टीटो और एन्क्रूमा से शुरू कर सकते हैं। तुगलक, सफदरजंग, शाहजहां, अकबर, बाबर को रहने दीजिए, वे पृथ्वीराज चौहान की तरह ही दिल्ली के शासक थे। लुटियंस में रास्तों के नामकरण के पीछे यही तर्क था कि दिल्ली के हर शासक के नाम पर एक सड़क हो, हालांकि किसी तरह बेचारे जहांगीर को भुला दिया गया। लेकिन वह मुगल-ए-आजम के दिलीप कुमार जैसा मस्त आदमी नहीं था। उसने एक विद्रोही बेटे को अंधा करवा दिया था और चौथे सिख गुरु अर्जुन देव को अत्याचार कर मार डाला था। और विडंबना देखिए हमारी मुख्यधारा की मीडिया का गढ़ भारत के जिस मार्ग पर है उसका नामकरण अंतिम मुगल बहादुरशाह जफर के नाम पर हुआ है जो हमारे इतिहास का सबसे मशहूर हारा हुआ शख्स है। आप समझ सकते हैं, नेहरू जानते थे वह क्या कर रहे थे।
पुनश्च: अगर आप सोचते हैं कि हम ही इतने बेवकूफ हैं कि ऐसे तानाशाहों के नाम पर जगहों का नामकरण करते हैं, जिनसे अब उनके देश में नफरत की जाती है तो पाकिस्तान हमसे भी बड़ा मूर्ख है। लाहौर के प्रसिद्ध क्रिकेट स्टेडियम का नाम गद्दाफी के नाम पर रखा गया है। बस इतना है कि लीबियाई क्रिकेट नहीं खेलते।
(शेखर गुप्ता द इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व प्रधान संपादक हैं।)
यह लेख मूलत: OUTLOOK पत्रिका के 14 सितंबर, 2015 अंक में प्रकाशित हुआ था जिसे यहां पढ़ा जा सकता है। http://www.outlookindia.com/article/why-we-should-let-aurangzeb-road-be/295248