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शिवसेना: एक कागजी शेर के 50 साल!

1985 तक शिवसेना केवल मुंबई तक ही सीमित थी। महाराष्ट्र में इसके प्रसार का श्रेय छगन भुजबल को जाता है। शरद पवार 1986 में अपने कांग्रेस विरोधी समूह को सकते में छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। उस वजह से बने खाली स्थान को शिवसेना ने भरा। आज भी मुंबई की शिवसेना और बाकी महाराष्ट्र की शिवसेना में अंतर है।
शिवसेना: एक कागजी शेर के 50 साल!

शिवसेना इस सप्ताह अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में दाखिल हो रही है। महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना के योगदान की समीक्षा से पहले उन परिस्थितियों का भी ध्यान रखना होगा जिनमें शिवसेना का जन्म हुआ था। महाराष्ट्र राज्य का जन्म 1 मई 1960 को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के कारण हुआ था। उसके बाद भी मराठी माणूस तकलीफ में ही रहा है खासकर मुंबईकर। अपनी धरती के मूलनिवासी होने के बावजूद आमलोगों में खुद के साथ भेदभाव वाला सलूक होने की भावना फैली हुई थी। संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की यादें अभी ताजा थीं इसलिए कोई भी कांग्रेस पर विश्वास करना नहीं चाह रहा था। संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के अगुआ रहे कम्युनिस्टों और समाजवादियों को यह खबर भी नहीं रही कि उनसे आमलोगों का मोहभंग हो चुका है। इन परिस्थितियों में संपादक/कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने अपने साप्ताहिक अखबार मार्मिक के जरिये मराठी माणूस की बेचैन भावनाओं पर दस्तक दी। उन्होंने कॉलम ‘रीड एंड सिट आइडल’ में टेलीफोन डायरेक्टरी छापना शुरू किया। डायरेक्टरी में गैरमराठियों की एक प्रकार से हावी होती उपस्थिति ने मराठी माणूस को चिंतित कर दिया और उन्होंने शिवसेना का समर्थन करना शुरू कर दिया। 

 

पिछले पांच दशक में शिवसेना का विकास और विस्तार उसे मराठी गौरव तक लाता है। यह जांचना बेहतर होगा कि बदले में मराठी माणूस के लिए पार्टी ने क्या किया। शिवसेना के स्थानीय कैडर ने जोरदार ढंग से उनकी रोजगार की समस्या को उठाया। पार्टी ने स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों में 80% आरक्षण की मांग की। परिणामस्वरूप मराठी माणूस बैंकों और सरकारी कार्यालयों में क्लर्क और चपरासी की जगह पर भर्ती किए गए। मराठी युवाओं को उनके पैरों पर खड़ा करने के लिए वडा पाव के ठेले पूरी मुंबई के फुटपाथों की शोभा बढ़ाने लगे। दुर्भाग्य से अधिकतर मराठी माणूस क्लर्क ही रहा और वडा पाव के ठेले भी अपनी पहुँच नहीं बढ़ा सके। नेतृत्व में दूरदर्शिता की कमी इस मंद विकास की एक वजह थी। सबसे महत्वपूर्ण यह कि शिवसेना ने समझ लिया था कि इस प्रकार की भावनात्मक मुद्दों की राजनीति एक लंबे समय तक फायदे का सौदा होती है। उम्मीद के अनुसार नेता अमीर होते गए, मराठी माणूस की अपनी स्थिति जस की तस ही रही। पूरे देश से मुंबई आने वाले लोगों के सैलाब ने शिवसेना की अपील, कि नौकरियों और सांस्कृतिक आधार पर मराठी माणूस खतरे में है, को बेहद मजबूत किया। सन 1966 के बाद शिवसेना के विकास का दूसरा कारण कांग्रेस के मुख्यमंत्री वसंत राव नाइक थे। मजदूर आंदोलनों से अच्छा-खासा प्रभाव हासिल करने वाले वामपंथ का असर कम करने के लिए उन्होंने शिवसेना में पनाह ले ली थी। नाइक और बजाज जैसे उद्योगपति शिवसेना की मदद करते थे। कम्युनिस्टों के कार्यालयों पर हमले और फिर मशहूर कम्युनिस्ट नेता कामरेड कृष्णा देसाई की हत्या के बाद से ‌शिवसेना हर उस कांड की अभियुक्त रही है जिसका किताबों में जिक्र है। बाद के वर्षों में शिवसेना का मजदूर संगठन हमेशा प्रतिष्ठान के साथ खड़ा रहा। मिल मज़दूरों की ऐतिहासिक हड़ताल में भी शिवसेना की भूमिका संदिग्ध थी। पार्टी पर मजदूर संगठन के माध्यम से रंगदारी वसूलने का आरोप खुले तौर पर लगा।

 

कृष्णा देसाई की हत्या के बाद से ही शिवसेना की गंदी राजनीति की शुरुआत हो गई। व्यवस्था को भयभीत करने के लिए पार्टी ने हमेशा हिंसक तरीकों का उपयोग किया। शुरुआत में दक्षिण भारतीय विरोधी होने के बाद इसने गुजरातियों, उत्तर भारतीयों और फिर मुसलामानों को निशाना बनाया। एक दुश्मन चुनो, उसे मराठी माणूस के लिए खतरा बताओ, फिर पार्टी को उनके संरक्षक के रूप में स्थापित करो, यही बाल ठाकरे का मंत्र था। मराठी गौरव के अलावा शिवसेना की कोई विचारधारा ही नहीं है। इमर्जेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के प्रति चापलूसी का व्यवहार हो या रूस के समाजवाद की तारीफ, आश्चर्य में नहीं डालता है। सन 1985 के बाद पार्टी ने हिंदुत्व की लाइन पकड़ी और आज भी इसपर कायम है। हिंदुत्व के आधार पर अब उनकी बीजेपी से प्रतियोगिता होती है और यह खुद को अधिक उग्र हिदुत्व ताकत के रूप में स्थापित करने का प्रयास करती है। ठाकरे ने बीजेपी नेताओं से बहुत पहले ही विध्वंस की जिम्मेदारी ले ली थी। सन 1977 में जनता पार्टी के समय शिवसेना बिलकुल नगण्य हो गई थी। शिवसेना के पुनरुत्थान का श्रेय कांग्रेस नेता वसन्त दादा पाटिल को जाता है। ‘मुंबई महाराष्ट्र में है लेकिन मुंबई में महाराष्ट्र कहीं नहीं है' नारा देकर वह बाल ठाकरे के हाथों में खेलने लगे। शिवसेना ने तेजी से इस मुद्दे को लपक लिया और 1985 के नगरपालिका चुनाव जीत गई। यह दूसरी बार किसी कांग्रेस नेता ने शिवसेना की मदद की थी।

 

1985 तक शिवसेना केवल मुंबई तक ही सीमित थी। महाराष्ट्र में इसके प्रसार का श्रेय छगन भुजबल को जाता है। शरद पवार 1986 में अपने कांग्रेस विरोधी समूह को सकते में छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे। उस वजह से बने खाली स्थान को शिवसेना ने प्रभावी रूप से भरा। क्यों आज भी मुंबई की शिवसेना और बाकी महाराष्ट्र की शिवसेना में अंतर है। ग्रामीण क्षेत्रों में मराठी गौरव की बात मुख्य मुद्दा नहीं होता। कांग्रेस और एनसीपी से प्रश्न करना असल मुद्दा होता है। शिवसेना का मुख्य विपक्षी पार्टी बन कर उभरने का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही है। 1990 के विधानसभा चुनावों में इसका प्रभाव स्पष्ट दिखा और 1995 में भाजपा के साथ गठबंधन करके यह पार्टी सरकार में थी। हालांक‌ि यह भी तथ्य है कि विपक्षी पार्टी के रूप में हो या सत्ताधारी पार्टी के, शिवसेना कभी कोई रचनात्मक कार्यक्रम की योजना लेकर नहीं आई। बाल ठाकरे को जनभावनाओं का दोहन करने में महारत हासिल था। 25 सालों से नगर पालिका में राज करने के बाद भी मुंबई को बेहतर बनाने के लिए पार्टी कुछ खास नहीं कर पाई। राज्य में 70,000 झुग्गी वासियों को घर देने का वादा भी पूरा नहीं कर सकी। शिवसेना ने कभी पाक साफ राजनी‌ति नहीं की। स्थानीय स्तर पर रंगदारी ने पार्टी को जिंदा रखा है। कम पढ़े लिखे और गरीब तबकों को राजनितिक ताकत देने का श्रेय तो शिवसेना को जाता है। बिना किसी राजनितिक ट्रेनिंग के कई युवा सिर्फ बाल ठाकरे के प्रति वफादारी के आधार पर एमएलए और एमपी बन गए। यह किसी दूसरी पार्टी में नहीं हो सकता। इन्हीं बुनियादों पर शिवसेना ने हर एक गांव और वार्ड में अपनी शाखा खोली। कुछ सालों में शिवसेना ने जिस प्रकार अपना विस्तार किया है और जमीनी स्तर तक अपनी पहुंच बनाई है, वह एक अपवाद है। हालांकि, इसके बावजुद पार्टी ने कभी कांग्रेस की तरह संस्थान बनाने का प्रयास नहीं किया। बाद के वर्षों में गोपीनाथ मुंडे ने बीजेपी के मंच का उपयोग कर यह काम किया पर ऐसी कोई शुरुआत करना शिवसेना की समझ के बाहर की बात है। स्वयं कार्टूनिस्ट होने के बाद भी बाल ठाकरे कार्टूनिस्टों के लिए एक स्वतंत्र म्यूजियम नहीं बनवा पाए। रचनात्मक और संस्थागत राजनीति की बात शिवसेना की सोच के बाहर की चीज है।

 

अंग्रेजी मीडिया  बाल ठाकरे को ठीक ही कागजी शेर कहता है। राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी ने भी इस प्रकार का प्रचार नहीं पाया जैसा शिवसेना ने पाया। हमें ठाकरे के अंग्रेजी के पत्रकारों से संबंधों का शुक्र अदा करना चाहिए। हमने भले ही मराठी पत्रकारों को पीटा हो मगर उनके राष्ट्रीय प्रतिरूपों के साथ हमने जाम छलकाए हैं। शिवसेना और बाल ठाकरे के कारण मराठी माणूस वैश्विक स्तर पर जाना जाता है, जो कुछ लोगों के लिए गर्व की बात है तो कुछ के लिए शर्म की। यह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि शिवसेना ने मराठी माणूस की पहचान गिराकर एक संकीर्ण मानसिकता वाले पिछड़े समाज की बना दी है। महाराष्ट्र की संस्कृति शिवसेना को विस्तार देती है, यह तथ्य है। मराठी संस्कृति और कुछ नहीं, बस कूपमंडूकता है। दुखद है कि शिवसेना की गर्जन मराठी संस्कृति के मधुर गीतों पर हावी हो रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि मराठी मध्यमवर्ग ने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है। एक समय अपने प्रगतिशील विचारकों की वजह से पहचाने जाने वाले महाराष्ट्र में आया यह स्पष्ट परिवर्तन निश्चित ही असाधारण है।

 

 

 

 

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