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सियासी चौराहे पर अकेले ही ठिठके

क्या कारण है कि जिस आडवाणी ने पहली बार जनसंघ का अध्यक्ष बनने पर 1973 में एक झटके में बलराज मधोक जैसी मजबूत शख्सियत को पार्टी से जड़ से उखाड़ फेंका, 1974 में जयप्रकाश आंदोलन के उड़ते तीर को पार्टी के लिए पकड़ बाद की इमरजेंसी के प्लावन मं सांप्रदायिकता की अस्पृश्यता धोने में गजब की फुर्ती दिखाई, संघ परिवार के संगठनों द्वारा आजादी के वक्त से ईंट-बैठाकर सुलगाए जा रहे बाबरी-मस्जिद रामजन्म भूमि के मसले को गरमाने के अवसरवादी क्षण को 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के संकट में अचूक पहचाना, 1996 में भाजपा की सत्ता के लिए अन्य दलों के साथ जरूरी गठजोड़ बनाने के वास्ते खुद पीछे हटकर वाजपेयी को आगे करने की उस्तादी दिखाई, आज वही अपने नेतृत्व में न सहयोगी गठबंधन को उत्साहित कर पाए न अपनी पार्टी की दूसरी प्रांत के नेताओं को?
सियासी चौराहे पर अकेले ही ठिठके

भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी अपनी जिंदगी के सबसे अहम अभियान में जीतें या हारें, अपने राजनीतिक जीवन के इस अंतिम चरण में खुद को जितना अकेला पा रहे होंगे उतना पहले कभी नहीं पाया होगा। सत्ता और अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में यानी 1999 में भारतीय जनता पार्टी के साथ राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में खड़े उसके 22 सहयोगियों की संख्या अब सिकुडक़र बस 8 रह गई हैं। उनकी अपनी पार्टी में अब उनकी पीढ़ी का उनका कोई समकक्ष साथी नहीं रहा। जो एकमात्र समकक्ष हो सकते थे, भैरों सिंह शेखावत, वह अपनी पुरानी पार्टी भाजपा और उसके नेता आडवाणी से अपने दूरी बताने से जरा भी परहेज नहीं करते। आडवाणी के बाद पार्टी की दूसरी प्रांत के नेता प्रधानमंत्री पद के लिए उनके अभियान में तहेदिल से कारसेवा के बदले उनके बाद के दौर के लिए अपनी-अपनी गोटी फिट करने और एक-दूसरे के प्रति अपने रोष और शिकायतों की सार्वजनिक या ऑफ द रिकॉर्ड अभिव्यक्ति को पूरे पिछले महीने ज्यादा महत्वपूर्ण मानते रहे। जिस उत्तर प्रदेश में 1990 के दशक में एक भावोन्मादी जनज्वार ने आडवाणी को पहले संपूर्ण राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की उत्तेजक, आक्रामक और ध्रुवीकृत राजनीति का नायक, फिर उसका किंगमेकर बनाया, आज वहीं की जनता उनकी खुद की ताजपोशी के सवाल पर सबसे कम उत्साहित दिखती है। अन्यत्र भी खुद भाजपा के वोटर आडवाणी के नाम से ज्यादा अपने-अपने राज्य की भाजपा सरकारों के नाम पर वोट देने  आएंगे।

क्या कारण है कि जिस आडवाणी ने पहली बार जनसंघ का अध्यक्ष बनने पर 1973 में एक झटके में बलराज मधोक जैसी मजबूत शख्सियत को पार्टी से जड़ से उखाड़ फेंका, 1974 में जयप्रकाश आंदोलन के उड़ते तीर को पार्टी के लिए पकड़ बाद की इमरजेंसी के प्लावन मं सांप्रदायिकता की अस्पृश्यता धोने में गजब की फुर्ती दिखाई, संघ परिवार के संगठनों द्वारा आजादी के वक्त से ईंट-बैठाकर सुलगाए जा रहे बाबरी-मस्जिद रामजन्म भूमि के मसले को गरमाने के अवसरवादी क्षण को 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के संकट में अचूक पहचाना, 1996 में भाजपा की सत्ता के लिए अन्य दलों के साथ जरूरी गठजोड़ बनाने के वास्ते खुद पीछे हटकर वाजपेयी को आगे करने की उस्तादी दिखाई, आज वही अपने नेतृत्व में न सहयोगी गठबंधन को उत्साहित कर पाए न अपनी पार्टी की दूसरी प्रांत के नेताओं को? दरअसल, सरकार में आने के पहले संगठनकर्ता के रूप में आडवाणी ने जो निर्णायक नेतृत्व की छवि इतने वर्षों में इतनी सावधानी से बनाई थी वह 1998-2004 के दौरान शासनकर्ता के रूप में टिकाकर नहीं रख पाए। एनडीए सरकार की परीक्षा के क्षणों में, चाहें वह करगिल हो, जयललिता द्वारा समर्थन वापसी हो, गुजरात के दंगे हों, आगरा शिखर की विफलता के बाद मुशर्रफ के मौखिक बाण हों, संसद पर हमला हो या कंधार, आडवाणी सार्वजनिक तौर पर पहल अपने हाथों में लेते हुए कभी नहीं दिखे, बल्कि पर्दे के पीछे जोड़-तोड़ करते या जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते ही दिखे। इसका खामियाजा उनकी नेतृत्व की दावेदारी को भाजपा के सत्ता से हटने के बाद भुगतना पड़ा। आडवाणी के अपनों ने ही उनकी निर्णायक नेता की छवि को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सबको याद होगा टीवी के पर्दे का वह क्षण जब सबके सामने उमा भारती आडवाणी को ललकारती तमतमाती हुई बाहर चली गईं। सबको वह क्षण भी याद रहेगा जब पाकिस्तान में जिन्ना प्रकरण के बाद राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सर संघचालक सुदर्शन ने संगठन के कर्मठ कार्यकर्ता रहे आडवाणी की सार्वजनिक ऐसी-तेसी कर दी। इतनी कि पार्टी के महत्वहीनता के बिल से बार-बार झांककर मुरली मनोहर जोशी तक आडवाणी के खिलाफ चिढ़ाने वाले बयान प्रतिदिन जारी करने लग गए थे और दूसरी प्रांत का एक-एक विश्वासपात्र सहयोगी कातिल ब्रूटस हो चला था।

वे दो मीडिया घडिय़ां आडवाणी की निर्णायक नेता छवि के लिए मारक सिद्ध हुईं। पहले एन डी ए के सहयोगी उनकी क्षमता के प्रति शक्की हो एक-एक कर खिसकने लगे फिर अपनी पार्टी के लोगों पर उनके दबदबे की पुरानी गंभीरता नहीं रही। इस घटनाक्रम ने मनमोहन ङ्क्षसह पर आडवाणी के आक्रमण, कि सिंह एक कमजोर नेता और प्रधानमंत्री हैं, की धार की बलि सबसे पहले ली। इसकी विश्वसनीयता खुद एक कमजोर नेता द्वारा छोड़े गए हताश वाग्वाणों की ही रह गई। क्या पुराने आडवाणी अपना टच अचानक खो बैठे थे? क्या यह उम्र के साथ आई उनके व्यक्तित्व की छीजन थी? नहीं।

पुराने नेता आडवाणी को देखें तो उनके कंधे कभी एकल नेतृत्व वाले नहीं रहे। सन् 1973-77 में उनके एक ओर वाजपेयी की भीड़ रिझाने वाली वाग्मीता थी तो दूसरी ओर नानाजी देशमुख का संगठन कौशल। पीछे संघ का संगठन और उसके प्रमुख बाला साहब देवरस का बल तो था ही। दरअसल, आडवाणी हमेशा संघ की बनी-बनाई लीक पर चलने वाले नेता रहे। उनका टोयोटा राम रथ, जिसे लालू यादव दंगा रथ कहते थे, संघ निर्देशित राजमार्ग पर ही दौड़ा। वह लीक से पाकिस्तान में 2005 में भटके कि गए और अब सुबह के भूले की तरह शाम को उद्धार के लिए फिर संघ के नए सर संघचालक मोहन भागवत की शरण में हैं।

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