पाटणकर को मिले हत्या की धमकी वाले कई पत्रों में सबसे ताजा कोल्हापुर से आया है जिसके साथ हिंदू उग्रवादी पत्रिका सनातन प्रभात की एक प्रति संलंग्न है। पिछली चिट्ठियों में पाटणकर को दाभोलकर और पानसरे की राह पर न चलने की सलाह दी गई थी। इस पत्र में उन्हें साफ-साफ चेताया गया है कि दाभोलकर और पानसरे के बाद अब उनकी बारी है।
गोडसेवादी रक्तस्नान से महाराष्ट्र का सरकारी और पुलिस तंत्र पूर्णतया अभिव्यक्त है। इसलिए तो बुद्धिवादियों की हत्या के मामलों की तफ्तीश में संतोषजनक प्रगति नहीं दिखती जिससे हर कुकृत्य के बाद उसे अंजाम देने वाले और शेर हुए जा रहे हैं। आश्चर्य है कि स्वतंत्रता संग्राम को आधुनिक अधिकारवादी भाषा में परिभाषित करने वाले बाल गंगाधर तिलक (स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है), उसकी उदारवादी धर्मनिरपेक्ष चेतना के स्वर गोपालकृष्ण गोखले, तर्क और बुद्धिविवेक के आधार पर जातिगत ऊंचनीच और लिंगपरक भेदभाव को सर्वप्रथम चुनौती देने वाले ज्योतिबा फुले और दलित अधिकारों एवं समतामूलक विधान के प्रबुद्ध प्रणेता भीमराव आंबेडकर के मुक्तचेतन प्रदेश में गोडसेवाद जैसी जाहिल और संकरी विदेशी विचारधारा का ऐसा दबदबा बना है।
गांधी का हत्यारा गोडसे महज एक व्यक्ति नहीं था। मैं उसे एक विचारधारा का प्रतीक मानता हूं जिसे यहां गोडसेवाद कह रहा हूं। यह वाद अपने से भिन्न किसी विचार के प्रति घृणा से इतना अंधा और असहिष्णु हो जाता है कि उसे हिंसा के जरिये भौतिक रूप से नष्ट किए बिना कोई संतोष नहीं पाता। हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की अपनी अनैतिहासिक, और बहुधार्मिक आबादी वाले देश के लिए अतार्किक एवं अमानवीय, विचारधारा से गोडसे इतना अंधा हो चला था कि इससे भिन्न मत की गांधी के रूप में मूर्तिमान अभिव्यक्ति को तर्क से परास्त करने के बजाय उसका भौतिक अस्तित्व हिंसा से नष्ट किए बिना उसे चैन न पड़ा। दाभोलकर, पानसरे और पाटणकर तथा उनके विचारों के प्रति इसी घृणा से गोडसे के अनुयायी भी परिचालित हुए। चंद सौ सालों के आधुनिक रोशनखयाल जमाने के पहले पश्चिमी देश भी गोडसेवाद सरीखी मानसिकता की गिरफ्तमें कम नहीं थे। तभी तो यूरोप में मध्ययुग में वैज्ञानिक ब्रूनो को जिंदा जला दिया गया और गैलिलियो को इस तथ्य से पलटने के लिए जान का डर दिखाकर बाध्य किया गया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। और भी न जाने कितने वैज्ञानिकों ने कितनी जिल्लत और जुल्मत सही। अगर ये वैज्ञानिक बुद्धि, तर्क, विवेक, प्रयोग और विश्लेषण से हासिल अपने सच पर अड़े न होते तो दुनिया एवं भारत तो क्या, ये स्वघोषित हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के कथित परंपराप्रेमी गोडसेवादी कार्यकर्ता भी आधुनिक विज्ञान और तकनीकी के फलों का उपभोग न कर रहे होते। जिन आर्यभट की उपलद्ब्रिधयों का गुन हिंदुत्ववादी गाते हैं, उनकी गणितीय और वैज्ञानिक परंपरा से ब्रह्मïगुप्त और उनसे भी ज्यादा बाद के मनीषियों को भटकाकर भारत में प्रगति की धार रोकी दी गई जिसके नतीजे में इतिहास में हमें शर्मनाक गुलामी झेलनी पड़ी।
गोडसेवाद बुद्धि, विवेक, विज्ञान और प्रगति विरोधी तो है ही, सर्वोत्तम भारतीय परंपरा, हालांकि प्रचीन ग्रथों और इतिहास में इसके अपवाद भी हैं, के प्रतिकूल भी है। यह परंपरा शास्त्रार्थ और खंडन-मंडन के जरिये विचार और ज्ञान के विकास की है, शस्त्र से उनके उन्मूलन की नहीं। इसके विद्वतापूर्ण प्रतिपादन के लिए अमर्त्य सेन का आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन पढि़ए। गोडसेवाद उस विदेशी आक्रांता की मानसिकता की नकल के लिए उद्धत रहा है जिसने तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला की ज्ञान परंपरा हिंसा से नष्ट की। यह उस मध्ययुगीन चर्च की नकल भी करता है जो विज्ञान और वैज्ञानिकों को मिटा डालता था। मैं गोडसेवाद को इन्हीं अर्थों में एक विदेशी विचारधारा कहने की जुर्रत कर रहा हूं। अंध श्रद्धा को तर्क से चुनौती दे रहे दाभोलकर को तर्क से पछाड़ पाने में अक्षम एक गढ़ी हुई संकीर्ण कथित धर्मरक्षक और राष्ट्रवादी विचारधारा ने हिंसा और हथियार का सहारा लिया। विडंबना है कि उन्हीं हथियारों का जिन्हें तर्क और बुद्धि से विकसित विज्ञान की प्रौद्योगिकी ने निर्मित किया, श्रद्धा के मंत्रों ने नहीं। गोडसे को अपने सच पर इतना यकीन था तो वह गांधी को तर्क से परास्त कर अथवा उनके अनशन के खिलाफ अपना अनशन कर जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता। छल, षड्यंत्र और हत्या का सहारा न लेता। नए निजाम और दौर में जहर की तरह सब दूर पसर कर यह फरेबी गोडसेवाद डॉ. पाटणकर ही नहीं, भारतीय मनीषा को ही मौत की धमकी दे रहा है।