Advertisement

क्‍या गोमाता भी हमें गोभक्‍तों से बचा पाएंगी | नीलाभ मिश्र

धर्म या संप्रदाय की स्वनिर्मित अवधारणाओं के आधार पर अस्मिता या राष्ट्रीयता को परिभाषित करने वाली विचारधारात्मक सनक के हाथों भिन्न विचारों और आस्था वाले लोगों के साथ हिंसा और प्रताड़ना के आजादी के बाद से चले आ रहे सिलसिले को देखता हूं तो सोचता हूं, इस देश में कौन सुरक्षित है?
क्‍या गोमाता भी हमें गोभक्‍तों से बचा पाएंगी | नीलाभ मिश्र

पहले गैर हिंदू परिप्रेक्ष्य में बात करते हैं क्योंकि इस देश में अभी वर्चस्वशील विचाराधारा के दबंगों का एक झुंड है जो उनके बारे में सवाल उठाने पर छूटते ही शोर मचाने लगता है कि कुछ लोग सिर्फ हिंदुओं की ज्यादतियां ही क्यों देखते हैं, अन्य धर्मावलंबियों की क्यों नहीं। यह दरअसल इस वर्चस्वशील विचारधारा के गुरुओं की बौद्धिक बैठकों से उपजी घिसीपिटी, सीखी-सिखाई और रटी-रटाई प्रतिक्रिया है। यह ढुुलमुल सत्ताधारियों और आरामतलब पदाकांक्षी बुद्धिजीवियों के रवैये पर जानबूझकर आधारित किया गया और समझ-बूझकर सबके विवेक को संदिग्ध बताने का कुतर्क है। भारत में ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं जो अभिव्यक्ति तथा असहमति के अधिकार के प्रति जनतांत्रिक सम्मान एवं मानवाधिकारों तथा जनतांत्रिक मर्यादाओं के प्रति अपनी निष्ठा में पूर्णत: सुसंगत और ईमानदार हैं। इसलिए यह जानते हुए भी कि वर्तमान वर्चस्वशील विचारधारा के शाब्दिक और वास्तविक लठैतों की बोलती बंद नहीं कर पाऊंगा, मैं शुरू में ही स्पष्ट कर दूं कि सलमान रुशदी की शैतानी आयतें अथवा तस्लीमा नसरीन की लज्जा पर सरकारी पाबंदियों और हिंसा की धमकी देने वाले इस्लामी कट्टरपंथियों के फतवों का घोर विरोधी हूं। यह भी स्पष्ट कर दूं कि गॉड्स एग्नेस नाटक पर कैथोलिक ईसाई बंदिशों के प्रयास की भी घोर मुखालफत करता हूं।  

उपरोक्त दोनों मसलों पर अपनी राय प्रकट करते हुए भी मेरे जहन में यही सवाल है: इस देश में कौन सुरक्षित है? इस देश में स्वतंत्र चेता मुसलमान, ईसाई अथवा सिख होते हुए भी मैं अपने ही मजहब के कट्टर पंथियों से सुरक्षित नहीं रह पाता। जहां तक सिख परिप्र्रेक्ष्य की बात है तो खालिस्तानी कट्टरपंथियों के हाथ मारे गए अवतार सिंह 'पाश’ और अन्य सेक्युलर बुद्धिजीवियों के नाम बरबस कौंध जाते हैं। ऊपर के चारों उदाहरण साहित्य से संबंधित हैं। लेकिन साहित्यकार न भी होऊं तो क्या इस देश में सीधा सरल नागरिक होते हुए भी सुरक्षित हूं। दादरी में गो-मांस फ्रिज में रखने की अफवाह के आधार पर ही मंदिर से भड़काई गई भीड़ के हाथों मारा गया अख्लाक तो कोई साहित्यकार, कलाकार नहीं था। फिर भी मारा गया। सिर्फ इसलिए कि उसकी खानपान की आदत वर्तमान वर्चस्वशील विचारधारा के लोगों से भिन्न होने के कारण उनके द्वारा हत्या-योग्य घृणा की पात्र मानी गई। इस वर्चस्वशील विचारधारा का राष्ट्रवाद फौजियों को बड़ा महिमामंडित करता है और मुसलमानों पर आरोप लगाता है कि वे भारतीय फौज के अब्दुल हमीद की तरह देश की रक्षा के लिए खून बहाने को तैयार रहना तो दूर पाकिस्तान परस्त हैं। लेकिन अख्लाक को भारतीय वायुसैनिक का भाई होना भी हत्या से नहीं बचा पाया। संपूर्ण वर्चस्वाकांक्षी भगवाई हर मुसलमान पर जेहादी आतंकवादी होने का आरोप मढ़ने को हर पल तत्पर रहते हैं। लेकिन ईसाई पादरी ग्राहम स्टाइंस को उड़ीसा में मुसलमान न होना भी नहीं बचा पाया। उसकी हत्या के लिए ईसाई धर्म प्रचारक होना ही पर्याप्त माना गया। ईसाई ननों यानी साध्वियों को सिर्फ इसी वजह से छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं उड़ीसा में बलात्कार और हत्या का शिकार होना पड़ता है कि वे ईसाई नन हैं, हिंदू साध्वी नहीं। 

अगर आप किसी अल्पसंख्यक धर्म के साधारण नागरिक या धर्म प्रचारक हों तो सुरक्षित नहीं ही हैं, अगर आप भिन्न धर्म के बहुत बड़े और संपन्न कलाकार हैं तो भी आप मकबूल फिदा हुसैन की तरह तमाम मुकदमों में लपेट कर इस देश से खदेड़े जा सकते हैं और निर्वासन में मरने को मजबूर किए जा सकते हैं। यहां तक कि आप दूसरे धर्म के सांसद जैसे असरदार व्यक्ति भी रहे हों और जीवन में कभी कोई अपराध न किया हो तो भी सुरक्षित नहीं हैं और अहमदाबाद के एहसान जाफरी की तरह अपने ही घर में दंगाइयों की हत्यारी भीड़ के हाथों मारे जा सकते हैं। मान लीजिए कि आप पूरी तरह आस्तिक, सभी बड़े देवी-देवताओं को पूजने वाले बल्कि उनको घर-घर तक पहुंचाने वाले आस्थावान हिंदू कलाकार हों तो भी प्रताडि़त किए जा सकते हैं जैसे हिंदू महासभा ने राजा रवि वर्मा को मुकदमेबाजी से प्रताडि़त किया भले ही आज राम-सीता, कृष्ण-राधा, शिव-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी, दुर्गा, काली जैसे देवी-देवताओं की छवि और मूरत हर आस्थावान हिंदू के घर और दिल में राजा रवि वर्मा के कैलेंडरों की वजह से बसी हो यानी हिंदू देवी-देवताओं को मूर्त रूप में चतुर्दिक पहुंचाने वाला कलाकार भी अपने को हिंदू कहने वाले कुछ कट्टरपंथी संकीर्णतावादियों के हाथों सुरक्षित नहीं हैं। 

उपरोक्त आलोक में भला नास्तिक क्या सुरक्षित होगा? खुद को नास्तिक कहने वाले बुद्धिवादी दाभोलकर आज की वर्चस्वशील विचारधारा के सनकियों के हाथों मारे गए। पानसारे और कलबुर्गी जैसे अपनी नास्तिकता का प्रचार न करने वाले बुद्धिवादी लेखकों को भी इन्हीं बुद्धिविरोधी बर्बरों ने मार डाला। यानी किसी भी तरह का बुद्धिवादी हो, सुरक्षित नहीं है। आप कहेेंगे कि बुद्धिवादी आम लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत करते हैं जिसके बारे में सावधानी बरतनी चाहिए। तो क्या प्रतिदिन सीता-राम का स्मरण करने वाला रामभक्त, सनातनी हिंदू इस देश में सुरक्षित है? रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता-राम का रोज भजन गाने वाला मोहनदास करमचंद गांधी भी नाथूराम गोडसे नामक एक हत्यारे हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी के हाथों मारा गया। यानी करोड़ों दबे कुचले निहत्थे लोगों में दुनिया के अबतक के सबसे बड़े साम्राज्य के खिलाफ साहस का संचार करने वाला और उन्हें मुक्त होने में मदद करने वाला निहत्था रामभक्त भी इस देश के खास तरह के रामभक्तों के हाथों सुरक्षित नहीं है। यह सब सोचते-सोचते मैं एक दु:स्वप्न से जाग उठता हूं: क्या मैं सुबह-सुबह गोमाता को तिलक लगाकर उनका धूप-दीप आदि से पूजन करके आने के बाद भी इन गोभक्त राष्ट्रवादियों से सुरक्षित हो पाऊंगा? क्या गो-माता भी मुझे इनसे बचा पाएंगी? 

 

 

 

 

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad