पचास वर्ष पहले अमेरिकी राष्ट्रपति और संसद के चुनाव में चर्च का थोड़ा प्रभाव दिखता था। लेकिन बदलती दुनिया के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार, सामरिक शक्ति और नागरिकों की सुख-सुविधाएं चुनाव का मुद्दा बनती रहीं। बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल में नागरिकों की स्वास्थ्य सुरक्षा को बड़ा मुद्दा बनाया था और दूसरे चुनाव में भी इसका असर रहा।
लेकिन अब राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ में हांफ रहे अरबपति उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने बेहद भद्दा चुनावी कार्ड फेंका है। ट्रंप ने अपनी प्रतिद्वंद्वी हिलेरी क्लिंटन की ईसाइयत के प्रति निष्ठा पर सवाल उठाया है। ट्रंप ने इवांजलिक ईसाई नेताओं के साथ बैठक में हिलेरी क्लिंटन की धार्मिक निष्ठा में कमी के आधार पर चर्चों का सहयोग मांगा है। ट्रंप ने धार्मिक नेताओं से कहा- ‘कंजर्वेटिव रिपब्लिकन उम्मीदवारों के समर्थन के लिए उनकी धार्मिक निष्ठा की छानबीन और चर्चा होती है। लेकिन डेमोक्रेट उम्मीदवारों की धार्मिक निष्ठा और चर्च के अनुरूप उनके कामकाज की समीक्षा नहीं की जाती है।’ 21वीं शताब्दी के लोकतंत्र में इस तरह की कट्टरपंथी पहल और चुनावी ट्रंप कार्ड निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है। फिर भी हिलेरी क्लिंटन को मतदाताओं के बीच अपना स्पष्टीकरण देना पड़ा। उनके प्रचार तंत्र ने लोगों को याद दिलाया कि हिलेरी मेथोडिस्ट चर्च की अनुयायी रही हैं। वह अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अपनी धार्मिक मान्यताओं को निजी रखती रहीं और उसकी चर्चा सार्वजनिक मंच पर नहीं करती हैं। फिर भी उन्होंने जनवरी में आयोवा की सभा में बोला भी था- ‘मैं धर्म के प्रति आस्थावान हूं। मैं ईसाई और मेथोडिस्ट हूं। इसी संस्कृति में पली-बढ़ी हूं।’
लेकिन सवाल उठता है कि पिछड़े अविकसित और कट्टरपंथी नेताओं के प्रभुत्व वाले देशों की उन्मादी और धर्म के नाम पर आतंकवादी गतिविधियों का विरोध करने वाले आधुनिक लोकतांत्रिक देश भी क्या ‘धर्म’ के नाम पर राजनीतिक दांव-पेच खेलने लगेंगे? भारतीय लोकतंत्र में पुरानी परंपराओं और संस्कृति के बावजूद धर्म के नाम पर वोट मांगने को अनुचित माना जाता है। पिछले दो दशकों में कुछ राजनीतिक दल जाति और धर्म के कार्ड को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन सीधे-सीधे धर्म के नाम पर वोट मांगने वालों को सही मायने में व्यापक समर्थन नहीं मिलता। जनता अमेरिका की हो या भारत की, उनके लिए आर्थिक आवश्यकताएं एवं सुविधाएं ही असली मुद्दा रहने वाली हैं।