अजब ट्रम्प, गजब ट्रम्प, लाल बुझक्कड़ ट्रम्प, दबंग ट्रम्प, विध्वंसक ट्रम्प, बड़बोले ट्रम्प, डील मेकर ट्रम्प! ऐसे बहुरूपिया शख्स की जादुगरी से दुनिया और अमेरिका के लोग वाकिफ नहीं थे, ऐसा नहीं है, लेकिन लगभग तीन दशकों से विश्व की इकलौती महाशक्ति का दंभ और दादागीरी उसके मुट्ठी में है तो उसे लगा कि दुनिया की समूची सियासत उसके इर्द-गिर्द घूमनी ही चाहिए। यह अलग बात है कि उसके बड़बोल बयानों से दुनिया में अमेरिका का रसूख भी घट रहा है और दुनिया कई ध्रुवों में बंटती दिख रही है। वजह यह कि वह कब लड़ाकू विमान उड़ा दे और कब सफेद कबूतर उड़ाने लगे, कोई नहीं जानता। अंतरराष्ट्रीय कानून-कायदे भांड़ में जाएं, उसकी बला से, वह जो बोले उसे ही असली समझा जाए। यहां तक कि दूसरी बार ज्यादा बहुमत से जीत कर आए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अपने मंत्री और प्रशासन के लोग भी उनके बयानों से चौंक उठते हैं। कई बार वे सरेआम पत्रकारों के सवाल के जवाब में बगल में खड़े उप-राष्ट्रसपति जे.डी. वांस या दूसरे मंत्रियों से पूछ बैठते हैं कि क्या ऐसा कहा गया था, मुझे याद नहीं आता। कई बार उनके ऐलानों के बाद अमेरिका के संबंधित मंत्रियों को सफाई देनी पड़ती है कि ऐसा नहीं है।
इज्राएली तबाहीः बीरशेबा में ईरानी मिसाइल से टूटी इमारत के पास बचाव कर्मी
हाल में यह ईरान के मामले में दिखा। अचानक ईरान के तीन एटमी ठिकानों को नेस्तनाबूद करने के दावे के अगले दिन उन्होंने जंगबंदी का ऐलान कर दिया और 12 दिनों तक चली इज्राएल-ईरान की लड़ाई रोकने का फरमान जारी कर दिया। इसके लिए इज्राएल तथा ईरान को धमकाया भी। उसके अगले दिन उन्होंने ईरान को बिन मांगी 300 अरब डॉलर की मदद का भी ऐलान कर दिया और चीन को तेल देने की इजाजत भी दे दी। बाद में अमेरिकी वाणिज्यी मंत्री को सफाई देनी पड़ी की ऐसी कोई बात नहीं है। फिर हेग में ट्रम्प ने नाटो सम्मेेलन के दौरान कहा कि अगले हफ्ते ईरान से बात होनी है। लेकिन ईरान के उप-विदेश मंत्री माजिद तख्त -रवांची ने बीबीसी से कहा कि जब तक अमेरिका ईरान पर और हमले नहीं करने का वादा नहीं करता तब तक वाशिंगटन और तेहरान के बीच वार्ता नहीं हो सकती। वे बोले, ‘‘हम किसी तारीख पर राजी नहीं हुए हैं, न ही किसी शर्त पर।’’ उसके बाद 30 जून को ट्रम्प ने ट्रूथ सोशल प्लेटफॉर्म पर लिखा, ‘‘मैं ईरान को ओबामा की तरह कुछ देने नहीं जा रहा हूं, न ही मैं उससे बात करने जा रहा हूं क्योंकि हम उसके एटमी ठिकानों को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर चुके हैं।’’
अमेरिका का बी2 बमबर
लेकिन ट्रम्प रुकना-ठहरना नहीं जानते, बशर्ते चीन या रूस जैसा कोई ताकतवर आंख न दिखा दे। अब वे गजा में संघर्ष विराम कराने जा रहे हैं और संभावना है कि इज्राएली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू इसके लिए 7 जुलाई को वाशिंगटन पहुंचे। इसी तरह वे भारत और पाकिस्तान के बीच पहलगाम हमले के बाद चार दिनों की लड़ाई रुकवाने का दावा करते जा रहे हैं, वरना ‘‘न्यूक्लियर हमलों और लाखों लोगों के मारे जाने का खतरा था।’’ वे शायद यह अठारहीं बार दोहरा चुके हैं और आखिरी बार हेग में नाटो सम्मेलन के दौरान पत्रकारों से बातचीत में। अब वे भारत से ‘‘वाकई बड़ी डील (सौदे)’’ की बात कर रहे हैं, जो 9 जुलाई से नए टैरिफ के लागू होने के पहले होनी है (देखें, किस राह चलेगी महाजनी)।
हालांकि ट्रम्प राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के 24 घंटे के भीतर रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म कराने और इज्राएल-हमास संघर्ष को फटाफट बंद कराने का अपना चुनावी वादा पूरा नहीं कर पाए हैं। शायद गजा में अब अपनी कुछ शर्तों पर हल का ऐलान कर दें। उनकी एक बड़ी ख्वाहिश शांति दूत कहलाने और नोबल पुरस्कार पाने की भी है। इज्राएल और ईरान के बीच जंगबंदी कराने से पहले ट्रम्प ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में व्यंग्य में लिखा था, ‘‘नहीं, मैं चाहे जो भी करूं, चाहे रूस-यूक्रेन और इज्राएल-ईरान की जंग रुकवा दूं, चाहे जो भी नतीजे हों, मुझे नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिलेगा, लेकिन लोग जानते हैं और मेरे लिए यही मायने रखता है।’’ उनका इशारा पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की ओर था, जिन्होंने एटमी हथियारों की अहमियत घटाने के चुनावी वादे के आधार पर अपने पहले कार्यकाल के सिर्फ आठ महीने बाद 2009 का नोबेल शांति पुरस्कार पा लिया था।
किसकी शहः नाटो सम्मेलन में ट्रम्प
इज्राएल-ईरान लड़ाई रुकने के फौरन बाद रिपब्लिकन पार्टी के बडी कार्टर ने नॉर्वे की नोबेल समिति को चिट्ठी लिखकर ट्रम्प का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए प्रस्तािवत किया। फिर भी, कई जानकारों कहना है कि यह जंगबंदी ट्रम्प की तरह ही अनिश्चित है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि तथा पश्चिम एशिया के जानकार सैयद अकबरुद्दीन ने हाल ही कहा, ‘‘यह ठहराव भर है, क्योंकि ईरान के एटमी कार्यक्रम सहित किसी भी बुनियादी मसले पर ठोस कुछ नहीं हुआ है।’’
आइए देखें यह जंगबंदी इतनी नाजुक क्यों है और ईरान के एटमी ठिकानों को नेस्तनाबूद करने के दावे में कितना दम है? 12 जून को इज्राएल ने ईरान पर सबसे घातक हमला किया। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने उसे जायज ठहराने के लिए दावा किया कि तेहरान एटमी हथियार से कुछ ही महीने दूर है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) के प्रमुख राफेल ग्रॉसी ने इस दावे को खारिज कर दिया और कहा कि ईरान के एटमी हथियार बनाने के कोई सबूत नहीं है। यही बात अमेरिका की राष्ट्रीय खुफिया महानिदेशक तुलसी गवाड ने कहा था कि ईरान के पास एटमी हथियार कार्यक्रम होने की कोई जानकारी नहीं है, जिसे बाद में ट्रम्प ने झटके में खारिज कर दिया था। वैसे, आइएईए ने ईरान के यूरेनियम ईंधन भंडार के एक हिस्से को 60 फीसद तक संवर्धन करने के फैसले पर चिंता जताई थी, जिससे वह एटमी हथियार-ग्रेड के करीब पहुंच गया। वैसे, इज्राएल इस समय ईरान पर हमला करने की योजना इसलिए बना पाया, क्योंकि पिछले दो वर्षों में अमेरिका की मदद से वह ईरान समर्थक लेबनान में हिज्बुल्लाह को कमजोर करने और सीरिया में असद अल बशर की सरकार के तख्तापलट में कामयाबी हो गया था।
ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड के अधिकारी
इज्राएल ने 12 जून के बाद से 400 मिसाइल और हवाई हमलों करने शुरू किए और ईरान के कई फौजी और एटमी ठिकानों पर नुकसान पहुंचाया। उसके हमलों में करीब 60 फौजी अधिकारियों और एटमी वैज्ञानिकों सहित 700 के आसपास लोग मारे गए। जवाबी कार्रवाई में ईरान ने इज्राएल के खिलाफ 400 से अधिक बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं और एक हजार से अधिक ड्रोन हमले किए। उनमें से कई को नाकाम कर दिए गए, लेकिन कई मिसाइलें इज्राएल के प्रसिद्ध आयरन डोम को भेदने में कामयाब रहीं। लिहाजा, 90 लाख की घनी आबादी वाले इज्राएल में इमारतों और मोहल्लों को भारी नुकसान पहुंचा और कथित तौर पर 28 से अधिक लोगों की मौत हुई, जबकि 600 से अधिक लोग जख्मी हुए।
फिर, अचानक 22 जून को अमेरिका ने ‘ऑपरेशन मिडनाइट हैमर’ किया, जिसमें अमेरिकी वायु सेना के सात बी2 स्टील्थ बमवर्षक विमानों ने अमेरिका से उड़ान भरी और ईरान के तीन प्रमुख एटमी ठिकानों पर जीबीयू-14ए मैसिव ऑर्डनेंस पेनेट्रेटर दागे। उन्हें बंकर बस्टर बम कहा जाता है। ये विस्फोट से पहले 60 मीटर की गहराई तक अंदर घुसते हैं। उनसे ईरान के नतांज, इस्फहान और फोर्दो में एटमी संवर्धन ठिकाने को निशाना बनाया गया, जो जमीन के नीचे काफी गहराई में है। अमेरिकी नौसेना ने भी इस क्षेत्र में अपने युद्धपोतों से घातक टॉमहॉक क्रूज मिसाइलें दागीं।
लेकिन ट्रम्प के दावों के बावजूद न्यूयॉर्क टाइम्स और सीएनएन ने पेंटागन की खुफिया प्राथमिक रिपोर्ट के हवाले से बताया कि ईरान के तीन एटमी ठिकानों पर अमेरिकी हमलों से उसके एटमी कार्यक्रम के अहम हिस्से बर्बाद नहीं हुए, बल्कि कुछ महीने पीछे हो गए हैं। यह भी कहा गया कि अमेरिकी हमलों से पहले ईरान के समृद्ध यूरेनियम के भंडार को ठिकानों से हटा दिया गया था। फोर्दो, नतांज और इस्फहान में नुकसान खासकर जमीन के ऊपरी ढांचों तक ही सीमित है, जिसमें बिजली का ढांचा और बम बनाने के लिए यूरेनियम को धातु में बदलने वाले कुछ संयंत्र शामिल हैं। इस पर टम्प बिफर पड़े और इसे ‘‘फेक न्यूज’’ बता दिया। हेग में ट्रम्प ने कहा कि उस रिपोर्ट में यह नहीं कहा गया है कि नुकसान नहीं हुआ, बल्कि कहा गया है कि बड़ा नुकसान हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। बाद में उनके रक्षा मंत्री ने भी सफाई दी लेकिन पेंटागन से कोई साफ तस्वीर नहीं उभरी।
खैर, ईरान ने कतर में अल उदीद अमेरिकी हवाई अड्डे को निशाना बनाकर जवाबी कार्रवाई की और उतनी ही मिसाइलें दागीं, जितनी अमेरिका ने दागी थीं। हालांकि यह माना जा रहा है कि तेहरान ने अमेरिकी फौज को पहले ही चेतावनी दे दी थी, ताकि वह नुक्सान से बच सके। खबर यह भी है कि कतर के अमीर ने लड़ाई बंदी की पहल की।
ईरान ने कहा कि उसने अमेरिकी और इज्राएली फौजी दुस्साहस का मुंहतोड़ जवाब दिया है और हमलों के बावजूद, उसकी एटमी क्षमता में खास फर्क नहीं पड़ा है। एक्स पर एक पोस्ट में ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामनेई ने लिखा, जो लोग ईरानी लोगों और उनके इतिहास को जानते हैं, वे जानते हैं कि ईरानी कौम ऐसी नहीं है जो हथियार डाल दे।’’ (देखें, मौलवी से रहबर-ए-मोअज्जम)। अमेरिका और इज्राएल के लिए सबक यह भी है कि ईरान के अत्यधिक समृद्ध यूरेनियम भंडार के करीब 400 किलोग्राम को नष्ट नहीं हो पाया है।
दूसरे विशेषज्ञों का कहना है कि जब ईरान की एटमी क्षमताओं के मामले में मुख्य रूप से उसके हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर क्षमता को देखना चाहिए। अमेरिका और इज्राएल के हमलों से सेंट्रीफ्यूज हॉल जैसे हार्डवेयर प्रतिष्ठानों को कुछ हद तक नुकसान पहुंचा होगा, लेकिन ईरान ने 40 से अधिक वर्षों से भारी मात्रा में निवेश और संसाधनों के साथ अपनी एटमी क्षमता विकसित की है, इसलिए इन हमलों या कुछ परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या से उसकी प्रतिभाएं कम नहीं होंगी।
असल खतरा यह है कि ईरान के एटमी ठिकानों को निशाना बनाकर अमेरिका ने उसके एटमी कार्यक्रमों की देखरेख का हक गंवा दिया है, क्योंकि तेहरान अब आइएईए की निगरानी से इनकार कर सकता है और अपनी योजनाओं के बारे में अपारदर्शी रुख अपना सकता है। एटमी हथियार अप्रसार (एनपीटी) संधि के तहत असैन्य इस्तेमाल के लिए एटमी रिएक्टर विकसित करने और एटमी हथियारों से परहेज करने के बदले यह वादा किया गया कि खुले और पारदर्शी ढंग से सुरक्षित एटमी ठिकानों पर हमला करने का अधिकार किसी भी दूसरे देश को नहीं होगा। इसके विपरीत, इज्राएल के पास एटमी हथियार हैं और उसने एनपीटी पर दस्तखत नहीं किए हैं।
हालांकि इस बार ईरान के परमाणु ढांचे पर बमबारी करने के लिए ब्रिटेन और रूस के बाद एनपीटी अगुआ अमेरिका के इज्राएल के साथ आ जाने से आइएईए के सुरक्षा के तहत परमाणु ठिकानों पर हमला नहीं करने का वह समझौता टूट गया है। इसलिए ईरान सरीखे देश उत्तर कोरिया का मॉडल अपनाने की ओर बढ़ सकते हैं। मतलब यह कि चाहे एनपीटी में शामिल हो, लेकिन चुपके से एटम बम बना लो।
ईरान के इस्फहान के एटमी ठिकाने का नजारा
राष्ट्रपति ओबामा के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका ने दूसरे पी-5 देशों—रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन—और जर्मनी के साथ मिलकर जुलाई 2015 में ईरान के साथ समझौता किया था जिसे जॉइंट कंप्रीहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) कहा जाता है। इसके तहत ईरान अरबों डॉलर की प्रतिबंध राहत के बदले अपने काफी कुछ परमाणु कार्यक्रम को खत्म करने और परमाणु ठिकानों को ज्यादा गहन अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण के लिए खोलने को राजी हो गया था। इरादा यह था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को इस हद तक घटा दिया जाए कि अगर ईरान परमाणु हथियार बनाने का फैसला करता भी है तो उसे कम से कम एक साल लगे, जिससे विश्व के महाशक्ति देश इस बीच कठोर उपायों का अंबार लगा सकें।
इस समझौते के तहत ईरान ने ऐसे अत्यंत समृद्ध यूरेनियम या प्लूटोनियम का उत्पादन नहीं करने पर सहमति जताई थी जिनका इस्तेमाल परमाणु हथियारों के लिए किया जा सकता है, और आइएईए को बेरोकटोक पहुंच मुहैया की थी। उसने अत्यधिक समृद्ध यूरेनियम का भंडार भी काफी घटा लिया था। ट्रम्प ने पहले कार्यकाल में यह समझौता तोड़ दिया था और ईरान के साथ कारोबार करने वालों पर भारी पाबंदियां लगा दी थी।
चीन ने इन घटनाक्रमों पर कुछ अलग नजरिया दिखाया। ट्रम्प का पश्चिम एशिया और यूक्रेन-रूस टकराव में उलझना उसे अपने हित में लगा। रूस के अपने निहित स्वार्थ थे कि ट्रम्प यूक्रेन से अपनी नजरें हटा लें और दूसरे टकरावों पर ध्यान दें। यूरोप में जर्मनी के चांसलर फ्रेडरिक मर्ज ने ईरान पर इज्राएल के हमलों को सही ठहराया। फ्रांसीसी राष्ट्रपति एमानुअल मैक्रां ने ‘‘तनाव घटाने और बातचीत की मेज पर लौटने’’ का आग्रह किया।
अरब-ईरान पारंपरिक दुश्मनी के मद्देनजर, सऊदी अरब सहित ज्यादातर अरब ताकतें ईरान की परमाणु क्षमता घटने में फायदा देख रही थीं। इसलिए उन्होंने ईरान पर हमलों की निंदा तो की, लेकिन रूढि़वादी शाही हुकुमतें मोटे तौर पर अमेरिका की कृतज्ञ और आभारी हैं और उनके पास ईरान पर बम बरसाने के लिए अपने हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करने देने के अलावा कोई चारा न था। कुछ विशेषज्ञों ने अमेरिका-इज्राएल की संयुक्त कार्रवाई को पश्क्चिम एशिया की भू-राजनीति में आमूलचूल बदलाव के तौर पर देखा। एक जानकार कहते हैं कि इससे इज्राएल मजबूत हो जाएगा।’’
इस राय के मुताबिक, पश्चिम एशिया में इज्राएल का दबदबा बढ़ जाएगा और उसकी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने वाला कोई मुस्लिम देश न होने से वह गंभीर खतरा बन जाएगा और तनाव कभी खत्म नहीं होंगे। ऐसे में इज्राएल को गजा और वेस्ट बैंक को हड़पते देखा जा सकता है, हालांकि फलस्तीनी भूभागों को हड़पने से इज्राएल आसपास के मुस्लिम देशों के साथ सीधे टकराव की स्थिति में आ जाएगा और इसका नतीजा अंतहीन टकराव होगा।
लेकिन इसके उलट, एक दूसरा नजरिया यह है कि पश्चिम एशिया में ईरान नैतिक ताकत की तरह उभरा है और रूस और ईरान की धुरी के साथ उसका दबदबा बढ़ सकता है। खासकर अरब देशों के लोगों में बढ़ी हमदर्दी और तुर्किए के राष्ट्रपति एरोदगन के इज्राएल के खिलाफ तीखे रुख से ऐसी धुरी बने या बने, लेकिन दुनिया अब पहले जैसी न रहेगी। तो, ट्रम्प के साथ दुनिया भी बदल रही है।
भारत-अमेरिका करार, किस राह चलेगी महाजनी
भारत-अमेरिका के बीच होने वाला व्यापार समझौता 8 जुलाई से पहले होना है, क्योंकि डोनाल्ड ट्रम्प की 2 अप्रैल को भारत पर 26 फीसदी टैरिफ जड़ने की मियाद खत्म हो रही है और 9 जुलाई से नया निजाम लागू होगा। हाल में हेग में नाटो शिखर सम्मेलन से लौटकर ट्रम्प ने पत्रकारों से कहा, ‘‘हर कोई डील (सौदा) करना चाहता है और उसका हिस्सा बनना चाहता है। हमने कल ही चीन के साथ किया....एक और बड़ी डील होने जा रही है, शायद भारत के साथ, वाकई बहुत बड़ी। उसमें हम भारत को खोलने जा रहे हैं, हमने चीन को खोल दिया है।’’ चीन को अमेरिका कितना खोल पाएगा या वही अमेरिका को ढ़ीला कर देगा, यह अभी देखना है क्योंकि चीन के विदेश विभाग ने फौरन कहा कि अभी तो यह शुरुआत है। लेकिन भारत के साथ शुरुआत नहीं, करार की अंतिम वेला पहुंच आई है। तो, अमेरिका कितना भारत के बाजार को खोलेगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि हम कितना कड़ा मोलतोल कर पाते हैं।
वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल तथा अमेरिकी वाणिज्य मंत्री
फिलहाल वाशिंगटन में भारत के मुख्य वार्ताकार तथा वाणिज्य विभाग में विशेष सचिव राजेश अग्रवाल की अगुआई में हुई बातचीत में दोनों पक्ष कई शर्तों पर राजी बताए जाते हैं। इसके पहले काफी लंबे वक्त तक वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल अमेरिका में डेरा डाले रहे और उन्होंने अमेरिका के वाणिज्य विभाग और वाणिज्य मंत्री से लंबी बातचीत के बाद ऐलान भी किया था कि शर्तों पर सहमति बन गई है। हाल में कई बार विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी अमेरिका के दौर पर हो आए हैं।
खैर, अमेरिका ने भारतीय आयात पर 26 फीसदी शुल्क लगाने के फरमान की वजह व्यापार घाटा को कम करना बताया था, जबकि बेसलाइन 10 फीसदी टैरिफ को बनाए रखा था। भारत इन अतिरिक्त शुल्कों से पूरी छूट की मांग कर रहा है, जो चल रहे व्यापार वार्ता का एक महत्वपूर्ण पहलू है। फिलहाल भारत-अमेरिका व्यापार वित्त वर्ष 25 में 131.84 अरब डॉलर पर पहुंच गया, जिससे भारत अमेरिका का खास व्यापार साझीदार बन गया है। इसमें ट्रम्प के गद्दी संभालने और फरवरी में वाशिंगटन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद लगभग 30 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जिसमें तेल, गैस और दूसरी टेक्नोलॉजी से संबंधित वस्तुएं शामिल हैं।
निर्मला सीतारमण
अमेरिका का जोर ऊर्जा संबंधित खरीद के अलावा कृषि, ऑटोमोबाइल, औद्योगिक सामान और श्रम सघन उत्पादों सहित कई क्षेत्रों में अमेरिकी कंपनियों के लिए बाजार खोलने और कमतर टैरिफ लगाने पर है। भारत इस साल के बजट में पहले ही ऑटोमोबाइल खासकर दोपहिया वाहन हार्ले डेविडसन के मामले में टैरिफ घटाकर एक-चौथाई से भी कम कर चुका है। इससे हमारे यहां के वाहन उद्योग में संकट के आसार हैं। लेकिन सबसे विवादास्पद मामला कृषि और डेयरी उत्पादों का है, जिसमें अमेरिका आयात शुल्क में भारी रियायात की मांग कर रहा है। अगर ऐसा होता है तो हमारे किसानों पर भारी मार पड़ेगी और डब्लूटीओ में अपने कृषि क्षेत्र को बचाने के लिए दशकों की कोशिशें एक झटके में बेमानी हो जाएंगी। अमेरिका की नजरें विशिष्ट औद्योगिक वस्तुओं, ऑटोमोबाइल-खासकर इलेक्ट्रिक वाहनों और सेब तथा जीएम फसलों के कृषि उपज के लिए रियायतों पर भी हैं।
अभी भारत की कोशिश पारस्परिक लाभ हासिल करने की दिखती है, खासकर कपड़ा, रत्न, आभूषण, चमड़े के सामान और कुछ कृषि उत्पादों जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों में। सरकार का मकसद इन चीजों के आयात शुल्क में रियायतें हासिल करना है, जो इन क्षेत्रों में भारतीय निर्यात को लाभ पहुंचा सकती हैं। सूत्रों के अनुसार, दोनों पक्ष अक्टूबर 2025 तक द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) की पहली किस्त को व्यापक बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं, जिससे आर्थिक साझेदारी मजबूत हो।
ट्रम्प तो भारत को पूरी तरह से खोलने और सिर्फ अमेरिका से व्यापार करने के हिमायती हैं। उनका जोर इस पर भी है कि भारत रक्षा खरीद भी रूस वगैरह से बंद करके अमेरिका से करे। फिलहाल रूस के अलावा फ्रांस और इज्राएल से हमारी रक्षा खरीद काफी होती है। फरवरी में प्रधानमंत्री मोदी के सामने ही पत्रकारों से बातचीत में ट्रम्प कह गए थे कि भारत एफ-35 विमान खरीदने जा रहा है।
ऐसे में भारत की दुविधाएं भारी हैं, लेकिन मोदी सरकार का रुख लचीला लगता है। हालांकि मोदी ब्राजील में ब्रिक्स के सम्मेलन के लिए भी जा रहे हैं, जो मुख्य रूप से अमेरिका विरोध का ही मंच है या ठीक-ठीक कहें तो अंतरराष्ट्रीय व्यापार डाॅलर के जरिए न करके अपनी मुद्राओं में करने का जुटान है। इसी वजह से ट्रम्प उसे मरा हुआ बता चुके हैं, लेकिन ट्रम्प के इन ऐलानों पर भारत की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई गई। यही नहीं, ट्रम्प के भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार का आकर्षण दिखाकर युद्ध रुकवाने के दावे पर भी खुलकर कुछ नहीं कहा गया। सिर्फ इतना कहा गया कि व्यापार की कोई बात नहीं हुई और संघर्ष-विराम पाकिस्तान के कहने पर किया गया। इन सब बातों से किसी नतीजे पर तब तक पहुंचना मुश्किल लगता है, जब तक व्यापार वार्ता का मजमून सामने नहीं आ जाता। कोशिश तो यही होनी चाहिए करार भारत के हित में हो।