डॉ. गुलाटी बताते हैं कि भारत में उगने वाले नीम और अर्जुन को विदेशों में उगाने की कई नाकाम कोशिशें की जा चुकी हैं। आयुर्वेद में प्रयोग होने वाली दवाओं का कच्चा माल जड़ी-बुटियों और औषधीय पौधों से ही आता है। इनका सही ज्ञान कई बीमारियों में तो रामबाण है। कुटकी, कालमेघ, मकोये, (लिवर के रोगों में), च्लोये (प्लेटलेट्स बढ़ाने में), पुनरमा, गखरू, कासनी, (किडनी में), ब्रक्वही (नाड़ी रोग, मस्तिष्क) , नागकेसर, अश्वगंधा, मंडूकपरनी (मस्तिष्क), अर्जुन छाल (दिल के रोग), पीपली (अस्थमा, खांसी), चित्रक आदि की बाजार में काफी मांग रहती है। गुलाटी के अनुसार बहुत सी जड़ी-बूटियां खत्म होने के कगार पर हैं और ऊंचे पहाड़ों पर मिलने वाली कईयों की कालाबाजारी होती है। आयुर्वेद में इनके औषधीय गुणों से कुछ हद तक मिलती जुलती दूसरी जड़ी-बूटियों का प्रयोग किया जाता है। जैसे महिला रोगों में कुठ, फेफड़ों के कैंसर में टेक्सास बकाटा,दिल की बीमारी में पुष्कर मूल, बुखार के लिए एटीस आदि तो मिलती ही नहीं। अशोका पेड़ भी बहुत कम रह गए हैं। डॉ. गुलाटी बताते हैं कि आजकल दवाओं में अशोका की जगह वरूण का प्रयोग किया जा रहा है लेकिन बताया अशोका ही जाता है। गुलाटी की एक नाराजगी है कि अब आयुर्वेद शिक्षा का सिलेबस इतना बदल दिया गया है कि इसमें एलोपेथ शिक्षा को भी शामिल कर दिया गया है। आयुर्वेद दवाओं में प्रयोग होने वाली जड़ी-बूटियों की जानकारी वाले मूल ग्रंथ भावप्रकाश निघंटू और शारंगधर संहिता अब पढ़ाए नहीं जा रहे। वह कहते हैं कि आयुर्वेद को आयुर्वेद की तरह पढ़ाया जाए।
चंडीगढ़ की ही महिला वैद्य मीनाक्षी चौहान का कहना है कि चीन के बाद भारत में जड़ी-बूटियों का काफी बड़ा बाजार है। लेकिन हमारे यहां जागरुकता नहीं है। बहुत सी जड़ी-बूटियां किसानों के खेतों में ऐसे ही उग आती हैं लेकिन जानकारी न होने से वे बरबाद हो जाती हैं। जैसे कासनी, गोखरू। चौहान के अनुसार एलोवेरा की जानकारी इतनी है लोगों को जिसके परिणाम हम देखते हैं। घर-घर में एलोवेरा पाया जाने लगा।
भारत में खारी बावली (पुरानी दिल्ली) इन जड़ी-बूटियों का एशिया का एक बड़ा बाजार कहा जाता है। आउटलुक संवाददाता ने इस बाजार में घूमकर देखा कि यहां मिलने वाली जड़ी-बूटियां वे हैं जिनकी खेती की जाती है। ऊंचे पहाड़ी इलाकों में मिलने वाली प्राकृतिक जड़ी-बूटियां यहां खुले में नहीं मिल रही हैं। जड़ी-बूटियों की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने वाले और इनपर रिसर्च करने वाले मध्य प्रदेश के डॉ. गुरदयाल सिंह जडियाल का कहना है कि 3,000 में से सिर्फ 15 जड़ी-बूटियों की ही खेती होती है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के ऊंचे इलाकों में पाए जाने वाली जड़ी बूटियां लगातार कम हो रही हैं या कई खत्म हो चुकी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी बहुत मांग है। इसलिए उनकी कालाबाजीर से इनकार नहीं किया जा सकता। खारी बावली में पनीर डोडा, शूगर बादाम, हार श्रृंगार, सतावर, मजीठ, माजूफल, निर्मली, हरड़, आंवला, बहेड़ा, जटामासी, सैमल मूसली, तगरनिरगुंडी, गुग्गल आदि समेत अनगिनत जड़ी-बूटियां मिलती है। फार्मास्यूटिकल कंपनियां और वैद्य दवाएं बनाने के लिए यहां से जड़ी-बूटियां ले जाते हैं। यहां की 100 साल पुरानी दुकान दुर्गा प्रसाद एंड कंपनी के मालिक प्रमोद गोयल बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में यारसागुमां नाम की जड़ी-बूटी की बहुत मांग है जो सिर्फ बद्रीनाथ की पहाडिय़ों में ही मिलती है। इसके अलावा भारतीय बाजार में हरड़, बहेड़ा, आंवला, अर्जुन छाल, सूखे गुलाब, गुलबनक्शा, गुड़मारपती, पलाश के फूल, बेल-गिरी, इंद्रजॉय, गुलकंद आदि की मांग रहती है। गोयल के अनुसार भारतीय बाजार में पेट संबंधी बीमारियों के इलाज में काम आने वाली जड़ी-बूटियों की जबरदस्त मांग है। इनके अलावा बाजार में कई जड़ी-बूटियों की कीमत 10 लाख रुपये किलो तक भी है।
समुद्र में मिलने वाली एक बूटी है अंबर, जिसकी कीमत दस लाख रुपये किलो तक है। हिमाचल प्रदेश के ऊपरी इलाकों में जंगल में उगने वाली एक प्राकृतिक सब्जी है गुच्छी जिसकी कीमत 20,000 रुपये किलो तक है। इसके इलावा ऊपरी पहाड़ी इलाकों में नाग छतरी नामक एक बूटी पाई जाती है। इसकी खासियत यह है कि यह आसमान से बिजली कडक़ने से फटी जमीन के नीचे पाई जाती है।