उस समय पूरी दुनिया स्तब्ध होकर देखती रह गई, जब अफगानिस्तान पूरी तरह से तालिबान के हाथ में चला गया। 15 अगस्त 2021 की सुबह जब भारत में लोग आजादी का जश्न मना रहे थे तब तालिबान के लड़ाके अफगान राजधानी काबुल पर घेरा डाल अपना कब्जा जमा रहे थे। पिछले तीन महीनों से जारी लड़ाई में कंधार, हेरात, कुंडूज, जलालाबाद, बल्क समेत अफगानिस्तान के बाकी हिस्से एक-एक कर तालिबान के कब्जे में आते चले जा रहे थे लेकिन राजधानी काबुल में इतनी जल्दी हलचल मचने वाली है इसका अंदाजा शायद ही किसी को था।
दरअसल, रविवार की सुबह यानी 15 अगस्त को तालिबान के लोगों ने अचानक काबुल पर घेरा डाला और अफगान सरकार और सेना बिना मुकाबला किए सरेंडर करती दिखी। इस बीच, अमेरिकी डिप्लोमैट्स को आननफानन में काबुल से ले जाते हेलिकॉप्टर की तस्वीर भी पूरी दुनिया ने देखी।
आजतक की खबर के अनुसार, अफगान सरकार और सेना के सरेंडर करते दिखते ही तालिबान का कमांडर मुल्ला अब्दुल गनी बारादर दोहा से काबुल पहुंच गया। वह सीधे राष्ट्रपति भवन पहुंचा और सत्ता स्थानांतरण को लेकर अफगान राष्ट्रपति गनी से बात की। इसके कुछ देर बाद अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश छोड़कर भागने की खबर आई। खबरों के अनुसार अशरफ गनी और उनके प्रमुख सलाहकार पड़ोसी देश ताजिकिस्तान चले गए। काबुल से भागती गाड़ियां बड़ी संख्या में ताजिकिस्तान, ईरान और बाकी पड़ोसी देशों की सीमाओं की ओर भागती दिखीं। 20 साल पहले तालिबान के बर्बर और मध्ययुगीन शासन को देख चुके लोग कहीं भी बस शरण ले लेना चाहते हैं।
देश को मंझधार में छोड़कर भले ही राष्ट्रपति अशरफ गनी के लोग भाग गए हों लेकिन सेना, एयरफोर्स के लोगों के लिए तालिबान के शासन में रहना मौत के खेल से कम बिल्कुल नहीं है। तालिबान के खिलाफ मोर्चा संभाले उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह ने ट्वीट किया कि तालिबान के साथ मिलकर काम करना किसी भी सूरत में संभव नहीं। वहीं, एयरफोर्स के पायलट मेजर रहमान रहमानी ने कहा कि आज अगर तालिबान के लोग सेना और पुलिस के लोगों पर जुल्म ना भी करें तो छह महीने बाद ये घर-घर जाएंगे और और उनके खिलाफ जंग लड़ने वालों का कत्लेआम करेंगे, उनकी औरतों-बच्चियों के साथ बर्बरता करेंगे। इनके सामने सरेंडर करने की जगह जान दे देना सही है।
इस दौरान अफगान की महिला फिल्ममेकर साहरा करीमी का एक वीडियो सोशल मीडिया पर लाइव हुआ जिसमें वह तालिबान की एंट्री के बाद काबुल छोड़कर जाती दिखीं और दुनिया से अफगान लोगों को बचाने की गुहार लगाती दिखीं।
कभी रूस के समर्थन से चल रहे जहीर शाह के शासन में आधुनिकता की ओर बढ़ रहा अफगानिस्तान 1990 के दशक में तालिबान के मध्ययुगीन शासन को भी देख चुका है। इसके बाद 9/11 के हमले के बाद अमेरिकी और नाटो देशों की सेनाओं ने तालिबान के शासन से मुक्ति दिलाई तो बीस साल में अपने पैरों पर खड़ा होना मुल्क सीख ही रहा था कि तालिबान ने फिर सिर उठा लिया। अप्रैल 2021 में अमेरिका ने ऐलान किया कि सितंबर तक उसके सैनिक लौट जाएंगे, इसके बाद तालिबान ने हमला तेज किया और और आज नतीजा सबके सामने है।
जहां-जहां तालिबान का कब्जा होता गया वहां फिर वही शरिया कानून, कोड़े मारने की सजा, सड़कों पर कत्लेआम और दाढ़ी बढ़ाने, संगीत सुनने, महिलाओं पर पाबंदियों जैसे मध्ययुगीन फरमानों का दौर लौटता गया। पूरे देश पर अब फिर तालिबान का कब्जा है और लोग खौफ से फिर घर-बार छोड़कर पड़ोसी मुल्कों में भागने को मजबूर हैं।
जानें कौन है तालिबान और क्या है इसकी ताकत
बता दें कि अफगानिस्तान से रूसी सैनिकों की वापसी के बाद 1990 के दशक की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान का उभार हुआ था। पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता है छात्र खासकर ऐसे छात्र जो कट्टर इस्लामी धार्मिक शिक्षा से प्रेरित हों। कहा जाता है कि कट्टर सुन्नी इस्लामी विद्वानों ने धार्मिक संस्थाओं के सहयोग से पाकिस्तान में इनकी बुनियाद खड़ी की थी। तालिबान पर देववंदी विचारधारा का पूरा प्रभाव है।
तालिबान को खड़ा करने के पीछे सऊदी अरब से आ रही आर्थिक मदद को जिम्मेदार माना गया था। शुरुआती तौर पर तालिबान ने ऐलान किया कि इस्लामी इलाकों से विदेशी शासन खत्म करना, वहां शरिया कानून और इस्लामी राज्य स्थापित करना उनका मकसद है। शुरू-शुरू में सामंतों के अत्याचार, अधिकारियों के करप्शन से आजीज जनता ने तालिबान में मसीहा देखा और कई इलाकों में कबाइली लोगों ने इनका स्वागत किया लेकिन बाद में कट्टरता ने तालिबान की ये लोकप्रियता भी खत्म कर दी लेकिन तब तक तालिबान इतना पावरफुल हो चुका था कि उससे निजात पाने की लोगों की उम्मीद खत्म हो गई।
जानें कौन है तालिबान का नेता
तालिबान कट्टर धार्मिक विचारों से प्रेरित कबाइली लड़ाकों का संगठन है। इसके अधिकांश लड़ाके और कमांडर पाकिस्तान-अफगानिस्तान के सीमा इलाकों में स्थित कट्टर धार्मिक संगठनों में पढ़े लोग, मौलवी और कबाइली गुटों के चीफ हैं। घोषित रूप में इनका एक ही मकसद है पश्चिमी देशों का शासन से प्रभाव खत्म करना और देश में इस्लामी शरिया कानून की स्थापना करना। पहले मुल्ला उमर और फिर 2016 में मुल्ला मुख्तर मंसूर की अमेरिकी ड्रोन हमले में मौत के के बाद से मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा तालिबान का चीफ है। वह तालिबान के राजनीतिक, धार्मिक और सैन्य मामलों का सुप्रीम कमांडर है। हिब्तुल्लाह अखुंजादा कंधार में एक मदरसा चलाता था और तालिबान की जंगी कार्रवाईयों के हक में फतवे जारी करता था। 2001 से पहले अफगानिस्तान में कायम तालिबान की हुकूमत के दौरान वह अदालतों का प्रमुख भी रहा था। उसके दौर में तालिबान ने राजनीतिक समाधान के लिए दोहा से लेकर कई विदेशी लोकेशंस पर वार्ता में भी हिस्सा लेना शुरू किया।
सत्ता हस्तांतरण की बातचीत के लिए काबुल पहुंचा तालिबान कमांडर मुल्ला अब्दुल गनी बारादर तालिबान में दूसरी रैंक पर है और इसी के अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनने की सबसे ज्यादा संभावना जताई जा रही है। यह तालिबान का राजनीतिक प्रमुख है और दोहा में लगातार अफगानिस्तान को लेकर तालिबान की ओर से बातचीत में शामिल होता रहा है। यह 1994 में बने तालिबान के 4 संस्थापक सदस्यों में से एक था और संस्थापक मुल्ला उमर का सहयोगी रहा है. यह कई लड़ाइयों को कमांड कर चुका है।