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फलस्तीन-इजरायल युद्ध/इंटरव्यू: “हो सकता है नेतन्याहू सत्ता गंवा बैठें”

अगर हिज्बुल्ला से जंग छिड़ गई, साथ में वेस्ट बैंक और गाजा का मोर्चा भी खुला रहा, तो इजरायल के लिए संभालना...
फलस्तीन-इजरायल युद्ध/इंटरव्यू: “हो सकता है नेतन्याहू सत्ता गंवा बैठें”

अगर हिज्बुल्ला से जंग छिड़ गई, साथ में वेस्ट बैंक और गाजा का मोर्चा भी खुला रहा, तो इजरायल के लिए संभालना मुश्किल हो जाएगा

इजरायल के पर हमास के हमले के बाद उभरती हुई स्थितियों और इजरायल-फलस्तीन जंग के समूचे परिदृश्य और उसके निहितार्थों पर द इकोनॉमिस्ट पत्रिका के डिफेंस एडिटर शशांक जोशी से आउटलुक के नसीर गनई की बातचीत के अंशः

हमास के हमले की प्रतिक्रिया में इजरायल द्वारा की गई युद्ध की घोषणा का उसके और अमेरिका के लिए तात्कालिक लक्ष्य क्या हो सकता है?

मेरे खयाल से इजरायली फौज हमास को खत्म करने के अपने घोषित लक्ष्य को पूरा करने के लिए गाजा पर आक्रमण कर सकती है लेकिन सवाल है कि ऐसा वे कैसे करेंगे। क्या वे सतर्कता के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ेंगे या फिर सीधे शहर पर बड़े हमले करेंगे? क्या वे गाजा में जमीनी सुरंगों का रास्ता लेंगे, जो कि सैकड़ों किलोमीटर लंबी है और ऐसा करते वक्त क्या उनके जेहन में वे 100 से ज्यादा बंधक होंगे, जो गाजा भर में फैले हुए हैं? इतना तो साफ है कि इस बार इजरायल के लक्ष्य बहुत महत्वाकांक्षी हैं और 2009 तथा 2014 के हमलों से कहीं आगे जा चुके हैं। इसके लिए बहुत आक्रामक हमले की जरूरत होगी, कहीं ज्यादा गहरे और लंबे अभियान की।

अमेरिका का लक्ष्य इजरायल को आगे और हमलों से बचाने का भी है। उसने हिज्बुल्ला और ईरान को रोकने के लिए पहले ही पूर्वी मेडिटेरेनियन में विमानवाहक भेज दिए हैं। यूएस के रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन ने घोषणा की कि उन्होंने अमेरिकी फौजी पोतों, एक विमानवाहक और एक अतिरिक्त विमान को हमास के हमलों के जवाब में पूर्वी मेडिटेरेनियन की ओर बढ़ने का आदेश दे दिया है। यानी अमेरिका का पहला लक्ष्य  युद्ध निषेध है।

दूसरा अमेरिकी लक्ष्य इजरायली सेना को इतने हथियारों की आपूर्ति कर देना है कि वह अपना बचाव कर सके और हमास पर हमला भी कर सके। इसमें इजरायल को इंटरसेप्टर देना भी शामिल है ताकि उसकी हवाई रक्षा प्रणाली आयरन डोम को और मजबूत किया जा सके। इसमें आर्टिलरी के लिए गोला-बारूद और लक्ष्यभेदी अस्‍त्र की आपूर्ति भी शामिल है ताकि हवाई हमलों का लंबा अभियान चलाने में इजरायल को इनकी कमी न पड़ने पाए।

तीसरा लक्ष्य क्षेत्र में अमेरिका के सहयोगियों, जैसे यूएई, कतर, सउदी अरब और मिस्र के साथ बातचीत कर के इसका अंदाजा लगाना है कि क्या इस स्थिति को हलका करने का कोई तरीका निकल सकता है। अमेरिका यह भी जानना चाहेगा कि क्या गाजा की आम आबादी को राफा की सरहद की ओर से बाहर निकालने की कोई संभावना है।

इसमें क्षेत्रीय कूटनीति भी एक अहम मसला है क्योंकि कतर की हमास के साथ बातचीत चल रही है और वह कैदियों को छुड़ाने की कोशिश में है। तुर्की की सरकार भी लगी हुई है। मेरे खयाल से अमेरिकी सरकार को इस बात की बहुत चिंता है कि कहीं मौके का फायदा उठाकर ईरान इस क्षेत्र में कुछ और गड़बड़ न कर डाले, मसलन वह अपने आधुनिक नाभिकीय कार्यक्रम को विस्तार देने की कोशिश भी कर सकता है। इसलिए अमेरिका बेशक चाहेगा कि ईरान की ओर से किसी भी आसन्न‍ खतरे को थाम लिया जाए।

जो बाइडन और नेतन्याहू (बाएं)

जंग अगर लंबे समय तक जारी रही तो अरब जगत पर इसका क्या असर होगा?

फलस्तीन का इलाका तो अरब का ही हिस्सा है। जाहिर है युद्ध का प्रभाव विनाशक ही होगा। गाजा में पहले ही 1200 लोग मारे जा चुके हैं। यह एक मानवीय त्रासदी है। पहला असर तो वेस्ट बैंक सहित फलस्तीन के इलाके पर ही होगा जहां गाजा की घटनाओं की प्रतिक्रिया में हिंसा उभर सकती है। दूसरा असर मिस्र में होगा जिसने हमेशा से ही इजरायल और हमास के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई है और यह सुनिश्चित करना चाहता है कि यथासंभव लोगों को पीड़ा से बचाते हुए वह खुद को भी शरणार्थियों की भारी आमद से बचा सके।      

तीसरा असर उन अरब देशों पर होगा, जो इजरायल के साथ लगातार अपने संबंध दुरुस्त करने में लगे हुए हैं। इनमें यूएई, बहरीन और सउदी अरब हैं जिन्होंने इधर बीच काफी तेजी दिखाई थी। अब इन्हें ही तय करना है कि ये इजरायल के साथ सामान्य संबंध बहाली चाहते हैं या गाजा में हुई घटना के बाद उसे तोड़ देना चाहते हैं। इन दोनों के बीच वे संतुलन कैसे बना पाएंगे यह सवाल अरब देशों के लिए बहुत अहम है।

बचता है ईरान का सवाल, तो हमने हाल के महीनों में ईरान-अरब संबंधों के सामान्य होने की प्रक्रिया को देखा है। साथ ही ईरान और सउदी अरब के बीच भी एक बहाली प्रक्रिया चली है। अगर ऐसी कोई धारणा बनती है कि ईरान हिज्बुल्ला जैसी ताकतों को बढ़ावा दे रहा है जिससे अरब देशों को उससे खतरा पैदा होने लगे तब यह प्रक्रिया खटाई में पड़ सकती है।

हमास के हमले से इजरायल की खुफिया एजेंसी और उसकी तकनीकी दक्षता के बारे में आम धारणा पर लंबी दौड़ में क्या फर्क पड़ सकता है?

बेशक इस हमले ने इजरायल के फौजी रसूख को चोट पहुंचाई है। उसकी फौज शर्मसार हुई है। यही समस्या का कारण हो सकता है। फिर भी, आने वाले दिनों में गाजा में शायद दिख सकेगा कि उनके पास अब भी बहुत सैन्य ताकत है। मेरे खयाल से इजरायल को असली फर्क हिज्बुल्ला के साथ टकराव से पड़ेगा। यह टकराव इजरायल को थका सकता है। अगर गाजा के साथ हिज्बुल्ला से भी जंग खुल गई और साथ में वेस्ट बैंक की देखरेख की तीसरी जिम्मे‍दारी भी उठानी पड़ी, तो इसे संभालना इजरायल के लिए मुश्किल हो जाएगा। सीरिया में दमिश्क और अलेपो के हवाई अड्डों पर उसने हमला कर ही दिया है और यह संकेत है कि जंग फैल रही है। इसलिए बड़ा सवाल यह है कि क्या आने वाले वर्षों में इजरायल गाजा में फंसने जा रहा है, इसे एक संभावना के रूप में देखा जा सकता है। जरूरी नहीं है कि ऐसा ही हो लेकिन संभावना तो है ही।

दूसरा सवाल यह है कि अरब जगत में उनकी नीतियों पर जंग का क्‍या असर होगा। क्या वे फलस्तीनियों के साथ किसी सियासी हल के बारे में सोचना शुरू कर देंगे, हमास को कमजोर करते हुए सउदी अरब और दूसरे अरब देशों से कूटनीति के दरवाजे खुले रखेंगे या फिर अपने उद्देश्यों और रिश्तों को पूरी तरह त्यागकर यह मान लेंगे कि इस समस्या का अंतिम हल सेना से ही संभव है, राजनीतिक रास्ते  से नहीं।

मेरे खयाल से चीजें जिस तरह से आकार ले रही हैं अभी कुछ भी अंतिम तौर से कहना जल्दबाजी होगी। यह इस पर निर्भर करेगा कि सैन्य अभियान क्या रुख करता है। यह बेंजामिन नेतन्याहू के सियासी भविष्य पर भी टिका हुआ है जो इजरायल की रक्षा कर पाने में नाकामी के चलते हो सकता है अपनी सत्ता गंवा बैठें।

 

गाजा पर हमलाः मलबे से लाश निकालते फलस्तीनी

हमास के इतने बड़े हमले के पीछे क्या मंशा हो सकती थी? और उसने यही वक्त क्यों चुना हमले के लिए?

सच कहूं तो इसका जवाब किसी के पास नहीं है। वे लोग लंबे समय से इस हमले की तैयारी कर रहे थे और आप मान सकते हैं कि इजरायल के राजनीतिक उथल-पुथल का उन्होंने फायदा उठाया। इजरायल की सरकार बुरी तरह बंटी हुई थी। दक्षिणपंथी अति‍राष्ट्रवादी दल इस बंटवारे के पीछे हैं। इसके खिलाफ काफी विशाल आंदोलन चला। कई आरक्षित फौजी ट़ुकडि़यों ने सैन्य सेवा से इनकार कर दिया था। इस तरह देखें तो इजरायल में सियासी बंटवारा काफी बड़ा हो गया था। हो सकता है हमास इसका लाभ उठाने की फिराक में रहा हो। यह भी कह सकते हैं कि इसका लेना-देना फलस्तीनियों के बीच सत्ता संतुलन से रहा होगा क्योंकि फलस्ती‍नी सरकार को चलाने वाला धड़ा अब काफी कमजोर हो चुका है और महमूद अब्बास बहुत बूढ़े हो चुके हैं, लिहाजा उत्तराधिकार का सवाल भी खड़ा हो रहा है। उधर, हमास गाजा के लोगों की सेवा करने में नाकाम रहा है। आजादी या खुद के राज्य की मंजिल से अब भी वे बहुत दूर हैं। इसलिए आप कह सकते हैं कि हमास अपने फलस्तीनी प्रतिद्वंद्वियों के साथ फंसा पड़ा था और फलस्तीन के लोगों के लिए भी कुछ नहीं कर पा रहा था।

इस जंग के बाद हमास का क्या होगा?

हमास के नेता मारे गए हैं। और मारे जाएंगे। हो सकता है यह समूह ही खत्म हो जाए। फिर इसके हथियारों का भंडार भी चुक सकता है। कुल मिलाकर हमास कमजोर होगा, लेकिन क्या यह हार जाएगा और परिदृश्य से गायब हो जाएगा? यदि नहीं, तो क्या इस जंग के बाद वह गाजा पर अपना नियंत्रण जमा लेगा? क्या फलस्तीन के लोग गाजा में हुए नुकसान के लिए उसे जिम्मेदार ठहराते हुए उसके खिलाफ चले जाएंगे? या फिर वे चुपचाप उसके समर्थन में पीछे खड़े हो जाएंगे? ये सवाल मेरे खयाल से अभी बहुत स्पष्ट नहीं हैं। अतीत से हालांकि कुछ सबक लिए जा सकते हैं जब इजरायल ने अपने दुश्मनों को खत्म‍ करने की कोशिश की थी- उसके अप्रत्याशित प्रभाव देखने को मिले थे। हमने लेबनान में अस्सी  के दशक में देखा है कि जब इजरायल ने पीएलओ को खदेड़ने की कोशिश की तो लेबनान में सभी इजरायल विरोधी धड़े एक साथ आ गए। यही हमने 2000 के दशक में देखा, जब अराफात के हाशिये पर चले जाने और फलस्तीन के इलाकों में उनकी सत्ता कमजोर पड़ जाने के समानांतर हमास का उदय हुआ। इसलिए मैं नहीं मानता कि कुछ समय के लिए हमास के सैन्य  स्तर पर कमजोर हो जाने के अलावा उसके निहितार्थ वास्तव में क्या हो सकते हैं।

यूएस इंटेलिजेंस बताता है कि हमास के हमले से इजरायल हतप्रभ था। अमेरिका के ऐसे बयानों को आप कैसे देखते हैं?

मैं हतप्रभ नहीं हूं। अतीत में भी इंटेलिजेंस का सियासी इस्तेमाल किसी नीति को सही ठहराने में हुआ है लेकिन वास्तव में खुफिया एजेंसियां खुद को केवल तथ्यों तक सीमित रखने की कोशिश करती हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी टांग नीतिगत मामलों में बेमतलब खींची जाए। अगर वे कह रहे हैं कि ईरान ने ये किया या वो किया, तो वे आम तौर पर झूठ नहीं बोल रहे होते हैं। मेरे खयाल से लोगों को आम तौर से ऐसा स्वीकार करने में दिक्कत होती है लेकिन एजेंसियां सामान्यत: झूठ नहीं बोलना चाहती हैं। उनकी विश्वसनीयता का सवाल होता है। अगर उन्होंने कहा है कि उनके पास ईरान के खिलाफ सुबूत नहीं हैं तो मान लीजिए कि वे सपाट सच बोल रही हैं।       

इस जंग का यूक्रेन के संघर्ष पर कोई असर होगा क्या?

मेरे विचार में यह जंग कुछ हद तक यूक्रेन से ध्यान बंटा देगी। सबसे बड़ा असर वाशिंगटन में राजनीतिक स्तर पर होगा। अमेरिका के नेता और एनएसए की नौकरशाही एक साथ दो नावों पर नहीं चल सकती। उसे एक साथ दो संकटों को संभालने में दिक्कत आएगी और तय है कि यूक्रेन से इसने उनका ध्यान बंटा दिया है।

कई जानकार कह रहे हैं कि इजरायल के आंतरिक संकट ने, खासकर जस्टिस मिनिस्टर की हरकतों ने ऐसी स्थिति निर्मित की जिसने हमास को हमले करने का एक मौका दे डाला। आपका क्या मानना है?

मेरे खयाल से यह आकलन सही है। इजरायली समाज बहुत नाटकीय उतार-चढ़ाव से गुजर रहा था। यह एक बंटा हुआ समाज है। नेतन्याहू के अतिवादी तत्वों के साथ गठजोड़ के फैसले ने इजरायली समाज के ताने-बाने को बहुत नुकसान पहुंचाया है। वित्त मंत्री को तो इतना कट्टर माना जाता है कि उन्हें इजरायली सेना में सेवाएं देने से ही रोक दिया गया। इससे आप समझ सकते हैं कि सरकार के कुछ अंग कितने अतिवादी हैं। मुझे लगता है कि इन्हीं सब कारणों से इजरायल का ध्यान आसन्न खतरे से भटक गया होगा।

भारत ने बयान दिया है कि वह इजरायल के साथ दृढ़ता से खड़ा है। क्या यह पश्चिमी एशिया पर भारत की नीति में बदलाव है?

पिछले 30 बरस से भारत की विदेश नीति में जो बदलाव लगातार आ रहे हैं यह उसका एक हिस्सा है। आप अस्सी के दशक में पहले इंतिफादा के वक्त भारत सरकार के जारी किए बयानों को देखें तो आपको वैसी ही भाषा नहीं दिखेगी जैसी आज है। इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि भारत और इजरायल के बीच रिश्तों में जबरदस्त बहाली हुई है और यह लगातार समृद्ध हो रहा है। दूसरा यह, कि अरब देशों ने भी इजरायल के साथ रिश्ते सामान्य कर लिए हैं। इसके चलते भारत को अरब के अपने सहयोगी देशों और इजरायल दोनों के साथ बेहतर संबंध बनाने में सहूलियत आई है।

भारत में 2008 के मुंबई हमलों के बाद आतंकवाद एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनकर उभरा जिसके बाद भारत की विदेश नीति में आतंकवाद केंद्रीय तत्व बन गया। यही वह बिंदु है जहां इजरायल के साथ उसे साझा सरोकार दिखा। भारत इजरायल और अरब देशों का बराबर सहयोगी है। भारत का कूटनीतिक प्रभाव फैल रहा है। इस हमले पर वह इजरायल के साथ खड़ा हो या उसकी निंदा करे या फिर चुप मारकर देखता रहे, मेरे खयाल से ये मुद्राएं बहुत अहम होती हैं जो संदेश देती हैं। जब रूस और चीन जैसे देश इस हमले पर अपेक्षाकृत शांत रहे हैं, ऐसे में इजरायल निश्चित तौर पर चाहेगा कि एशिया की उभरती हुई एक ताकत के रूप में भारत उसके पक्ष में खड़ा रहे।

 

 

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