नीति आयोग की बैठक के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि कुछ राज्य भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने के लिए अपने-अपने कानून बनाने को लेकर गंभीर है क्योंकि वह केंद्रीय विधेयक पर आम सहमति के लिए अनिश्चितकाल तक इंतजार नहीं कर सकते। जेटली के मुताबिक, यह राय उभरी है कि अगर केंद्र इस मुद्दे पर सहमति बनाने में नाकाम रहता है तो यह मामला राज्यों पर छोड़ देना चाहिए। जो राज्य तेजी से विकास करना चाहते हैं अपने कानून बना सकते हैं। मिली जानकारी के अनुसार, बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना भूमि अधिग्रहण कानून बनाने के इच्छुक राज्यों को सहयोग का भरोसा दिया है।
केंद्र सरकार के इस रुख को दो तरह से देखा जा सकता है। पहला, शायद मोदी सरकार मान चुकी है कि विपक्ष के विरोध और राज्य सभा में बहुमत की कमी चलते भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक को फिलहाल पास कराना संभव नहीं है। इसलिए इस मसले पर दोबारा अध्यादेश आने की संभावना भी कम है जबकि मौजूदा अध्यादेश की अवधि एक सितंबर को पूरी हो रही है। वैसे भी इस अध्यादेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है और केंद्र को नोटिस जारी हो चुका है। भूमि अधिग्रहण के मुद्दों को राज्यों में शिफ्ट कर केंद्र सरकार इस तरह के कानूनी झंझटों से भी बच जाएगी।
केंद्र की ओर से प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक फिलहाल संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष है, जिसकी रिपोर्ट दो हफ्ते के भीतर आ सकती है। लेकिन रिपोर्ट आने से पहले ही मोदी सरकार शायद रास्ता बदलने का मन बना चुकी है। संसदीय समिति के सामने तमाम राजनीतिक दलों, किसान नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण्ा विधेयक की तमाम खामियों को प्रमुखता से उजागर किया है। सबसे ज्यादा विरोध भू-मालिकों की रजामंदी और सामाजिक प्रभाव आकलन से जुड़े प्रावधानों को कमजोर करने को लेकर हो रहा है। अगर केंद्र सरकार इस विधेयक को पास कराने का इरादा छोड़ रही है तो इसका श्रेय विपक्ष के विरोध और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ देश भर में छिड़ी मुहिम को जाएगा। प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार को पहली बार किसी नीतिगत मसले पर रास्ता बदलना पड़ रहा है। इसका असर जीएसटी जैसे विवादित मुद्दों पर भी पड़ सकता है।
राज्यों के कानून के खतरे कम नहीं
कॉरपोरेट हितों के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव की कोशिश का एनडीए शासित राज्यों में सिमट जाना भी कम खतरनाक नहीं है। केंद्र की तर्ज पर राजस्थान पहले ही अपना भूमि अधिग्रहण कानून बना चुका है। इससे पहले कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों में संशोधन कर कलेक्टर को जमीन पर कब्जे और मुआवजा तय करने का अधिकार, गजट नोटिफिकेशन प्रकाशित करने की अनिवार्यता खत्म करने और मुआवजा दिए बगैर 15 दिन के भीतर भूमि अधिग्रहण करने जैसे एकतरफा नियम बना चुके हैं।
संसदीय समिति की रिपोर्ट आने से पहले ही जिस तरीके से केंद्र सरकार ने एनडीए शासित राज्यों के जरिये नए कानून बनवाने की बात छेड़ी है, इसके कई दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं। पंजाब से लेकर हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र जैसे एनडीए शासित औद्योगिक राज्यों में इंडस्ट्रियल कॉरिडोर, फ्रेट कॉरिडोर, सेज और हाईवे से जुड़ी योजनाओं में तेजी लाने के लिए अपने कानून बनाने की कवायद शुरू कर सकते हैं। जाहिर है राज्यों में नए कानून को लेकर न तो केंद्रीय विधेयक की तरह राष्ट्रीय बहस होगी और न ही उस तरह का राजनीतिक विरोध। संसदीय समिति के हस्तक्षेप और विपक्ष के विरोध के चलते जो विवादित प्रावधान कानून में शामिल होने से रह जाते, वह भी राज्यों के कानून में आसानी से शामिल हो सकते हैं।
राज्य बना सकते हैं केंद्र के विरोधाभासी कानून
गौरतलब है कि भूमि का मामला संविधान की समवर्ती सूची में है, जिससे राज्य इस विषय में अपना कानून बना सकते हैं। अगर राज्यों का कानून केंद्रीय कानून के प्रतिकूल है तब इसके लिए राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी पड़ेगी। लेकिन मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति केंद्रीय कानून के विरोधाभासी राज्य के कानून को भी मंजूरी दे सकते हैं। इस तरह यूपीए राज में बने भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को राज्यों के जरिये बदलने या कमजोर करने का रास्ता खुला हुआ।