देश की कला-संस्कृति की प्रगति-विकास और संपन्नता प्रदान करने में अति प्राचीन नगर काशी का नाम सर्वोपरि है। इस नगरी के सांस्कृतिक वातावरण में एक भव्य उत्सव गुलाबबाड़ी का आयोजन होता था। आयोजन स्थल से लेकर पूरा मंच गुलाब के फूलों से सुसज्जित होता था और उस गुलाबी रंग के माहौल में जो संगीत और नृत्य के कार्यक्रम होते थे, उसकी यादें आज भी पुराने बुजुर्गों के दिलों में बसी हुई हैं। लेकिन आज कि नए दौर में गुलाबबाडी उत्सव का सिलसिला समाप्त हो गया। यह सुखद बात है कि गुलाबबाडी के वैभव को वापस लाने और उसी परिपाटी पर कार्यक्रम को आयोजित करने का संकल्प कथक की सुपरिचित नृत्यांगना सुश्री नीलाक्षी राय ने लिया और तेजी से गुलाबबाड़ी की धरोहर के प्रति जागरूकता और चेतना जगाने के लिए अपनी संस्था पारंगत प्रयाग कला केंद्र के जरिए संगीत-नृत्य के कार्यक्रमों का आयोजन राजधानी दिल्ली में शुरू किया। उसे देखना कला रसिकों के लिए एक नया रोमांचक अनुभव था। कई साल से हो रहे इस वार्षिक उत्सव की शृंखला में इस बार यह आयोजन त्रिवेणी कला संगम के खुले मंच पर चांद-तारों तले हुआ। उससे नृत्य और गायन की प्रस्तुति भी बहुत रंजक और सुहावनी हो गई।
सितारों की छांव में नीलाक्षी के पांव की खनक से वातावरण मुग्धकारी हो गया। इस कार्यक्रम में गुलाब के फूलों की बौछार और सुगन्धित इत्र के छिड़काव से गुलाबबा़डी की पुरानी खुशबू जीवंत-सी होती दिखी । नीलाक्षी ने कार्यक्रम का आरंभ राग बहार में निबद्ध रचना ‘फूल रही सरसों सकल बन’ की प्रस्तुति से किया। रचना के भाव को उकारने के साथ नृत्य के विविध प्रकार ठाट यानी खडे होने का अंदाज, परंपरागत उठान खासकर छूट की उठान, तिहाइयां और थिरकते पद संचालन में चाला की प्रस्तुति में उनके पैरो का वजन और चलन में गति बहुत संतुलित और प्रभावी दिखी।
राग बहार में ही दूसरी बंदिश ‘मालनिया गूंथ लाओ री फूलन के हरवा’ प्रस्तुति के साथ परमेलु, गत निकास खास अंदाज में मुखडा, चक्करदार व सीधी परन और कुदई सिंह महाराज द्वारा रचित पुरानी बोल बंदिश की प्रस्तुति में एक अलग ही उछाह और रंगत थी। उसके उपरांत युवा नृत्य कलाकार-चंचल, अभिषेक, मयंक, वाणी और मेघना द्वारा राग चारूकेशी में निबद्ध तराना की ताल-लय में पूरी तरह गठित प्रस्तुति में अच्छा प्रवाह था। नृत्य के अलावा कथक की पुरानी बैठकी (बैठकर भाव दिखाना) के अंदाज में चैती को प्रस्तुत करने में नीलाक्षी में भाव की उदात्तता और रस पूरी तरह रचा बसा था। रचना के भाव में उस विरहणी नायिका का मार्मिक चित्रण है जिसका प्रियतम छोडकर चला गया है। उससे मिलने के लिए अधीर व्याकुल नायिका का विरह उस विष के समान हो जाता है जो सांप के दांत और चीते के नाखून के जहर से भी ज्यादा जहरीला है। उसे कोयल की मधुर आवाज भी रास नहीं आती। उसका रूप विरोहित कंठित का नायिका का हो जाता है। चैती रचना ‘सैंया रूठ गयले हो रामा’ गायन में विरही नायिका का भाव बहुत ही संवेदनशीलता से नीलाक्षी के नृत्य अभिनय में उभरा।
कार्यक्रम का समापन ख्याल और पूरब अंग गायिकी के मशहूर गायक पंडित भोलानाथ के गायन से हुआ। उन्होने गाने की शुरुआत राग गोरख कल्याण से की। विलंबित एकताल में निबद्ध बड़ा ख्याल की बंदिश ‘धन धन भाग्य पिया घर आए’ को शुरू करते ही उन्होने एक समां सा बांध दिया। क्रमानुसार एक-एक स्वर की बढ़त करते हुए राग के स्वरूप को खूबसूरती से निखारा। उनके गाने में सुर और लय की पकड़ और जो सुरीलापन था वह आखिर तक श्रोताओं को मुग्ध करता रहा। आवश्यकता अनुसार दीर्घ स्वरों को छोटा-बड़ा कैसे करना है, उसकी गहरी समझ साफ नुमायां थी। गमक, विविध ढंग से स्वरों का उच्चारण, बंदिश की लय के बराबर लयमुक्त तानें, फिरत या बढत में तानों की निकास, खटका, बहलावा, मध्य से तार और मन्द्र दोनों ओर जाती एक-एक स्वर की बढत में विविधता और उन्मुक्तता थी। स्थायी अंतरा गाने में स्वरों से खेलने का उनका निराला अन्दाज था।
तीनताल में छोटा ख्याल की बंदिश ‘जगत जननी माता भवानी’ गाने में वीर रस की खूब तासीर थी। सरगम, मुखड़ा पर आने का भी उनका आकर्षक अन्दाज था। द्रुत एकताल में रचना ‘मानिये गुरुजन की बात’ और चैती ‘राम जी लिहिए जनमवा हो चैत महिनवा’ की सरस प्रस्तुति से उन्होने रसिकों को वशीभूति कर लिया। इस समारोह को गरिमा प्रदान करने में कथक नृत्य की संगत पर पंढत में योगराज पवार गायन विजय परिहार तबला पर अखिलेश बांसुरी में, विनय प्रसन्नता और सारंगीवादन में पुनीत सिसौदिया थे। गायन की संगत में तबला पर आशीष मिश्रा, हरमोनियम वादन में ललित सिसोदिया, सारंगी पर घनश्याम सिसौदिया और गाने पर साथ देने में शिवम और अजय मिश्र शामिल थे।