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समाज का चितेरा

सामाजिक ताना-बाना समझना किसी के लिए भी आसान नहीं है। इस जटिलता को भी असगर वजाहत ने बहुत अच्छी तरह न सिर्फ समझा बल्कि उसे बयान करने का शिल्प भी कमाल का है। यह शब्द जाने-माने साहित्यकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के हैं, जो उन्होंने असगर वजाहत की कहानियों को पढ़ने के बाद कहे थे।
समाज का चितेरा

सामाजिक और सांस्कृतिक चिंताओं से उपजा असगर वजाहत का लेखन किसी भी कसौटी पर खरा उतर चुका है और तमाम आलोचकों ने वक्त-वक्त पर इसी बात पर मुहर भी लगाई है।

असगर वजाहत उन लेखकों में शुमार किए जाते हैं, जो इस बात के कायल हैं कि इस खूबसूरत दुनिया को बेहतरीन बनाने के लिए साहित्य की भूमिका अहम हो जाती है। उनकी इस बात के हक में गवाही खुद असगर वजाहत की किताब 'सफाई गंदा काम है' ने सामने आकर दी है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में गुरुवार को असगर वजाहत की दूसरी पुस्तक का विमोचन हुआ। पुस्तक के प्रकाशक राजपाल एंड संस की तरफ से आयोजित इस लोकार्पण कार्यक्रम के तहत असगर वजाहत साहित्य और खासतौर पर नए जमाने की सच्ची तस्वीर को दिखाने वाले साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले छात्र-छात्राओं से भी रू ब रू हुए और उनके कई सवालों के जवाब ठीक उसी अंदाज में दिए, जैसा वह अपनी लेखनी के जरिये पाठकों का आमना सामना करते हैं।

सफाई गंदा काम है पुस्तक को लेखक ने तीन प्रमुख खंडों में बांटा है- सामाजिक, राजनैतिक और साहित्य कला। मकसद साफ है कि इस मुल्क में जिन तीन चीजों का असर आम हिंदुस्तानी जीवन में सबसे ज्यादा पड़ता है उसके बारे में अगर कुछ कहा जाए या सुना जाए तो उसका यही सबसे उचित और वैज्ञानिक तरीका हो सकता है। ताकि पते की बात वहां तक पहुंच सके, जहां एक लेखक अपनी बात पहुंचाना चाहता है।

 

इस संग्रह में लेखक ने हमारे समाज में फैली उन बातों की तरफ ध्यान खींचा है, जिसके बारे में हम सभी ने अपनी अपनी सुविधा के मुताबिक कुछ गुमान पाल लिए हैं और मान बैठे हैं कि हम शायद दुनिया में सबसे श्रेष्ठ बन गए हैं और उसमें किसी भी तरह के संशोधन की गुंजाइश नहीं है। लेकिन लेखक ने छोटे-छोटे लेकिन बड़े दिलचस्प किस्से और कहानियों के जरिये इस तरह से अपनी बात रखी है, कि बात दिल में बहुत गहरे उतर जाती है। तब यह महसूस होता है कि हम सभी कितने बड़े मुगालते में जिंदगी को एक ढर्रे में जीने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि जिंदगी का दायरा बहुत बड़ा है।

सही मायनों में असगर वजाहत ने लेखक के असली जिंदगी में संस्कृति के ऐसा पहरेदार होने का सबूत पेश किया है जो खतरों से आगाह ही नहीं करता, बल्कि अपने ढंग से संस्कृति को संपन्न भी करता है। अगर इस संग्रह में समाज की असली चिंता का जिक्र है तो वह सवाल भी हैं, जो भारतीय समाज में मजहब के नाम पर चुभ रहे हैं। हिंदुस्तान से या यूं भी कहा जा सकता है कि अपने मुल्क से प्यार करने वालों को एक बार इस पुस्तक को जरूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि सरल शब्दों के तीखे नश्तर हमारी आंखों के सामने छा गए गुमान के गहरे कुहासे को चीरकर विचारों की गहराई दिखाने का माद्दा देता है। 

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