मध्य प्रदेश के विंध्य क्षेत्र में अनूपपूर जिले के कोतमा की याद मेरे मन में स्टेशन से शुरू होती है। घर रेलवे स्टेशन से नजदीक होने के कारण हम बच्चे शाम को अक्सर ही स्टेशन आ जाते। मूंगफलियां जेबों में भरकर जानबूझ कर इंजन के समीप से गुजरते, जिसकी भट्टी में कोई न कोई उस वक्त कोयला डाल रहा होता। कुल जमा चार रेल गाड़ियां चला करती थीं। भीड़ उसी समय जुटती फिर गायब हो जाती। रात को अपनी छत से देखो तो नीम अंधेरे में स्टेशन ऊंघता हुआ सा लगता जो रात बारह बजे आने वाली ट्रेन की खड़खड़ से हड़बड़ा कर उठ जाता। स्टेशन के आसपास दो किलोमीटर के एरिया तक ही बसाहट थी।
पच्चीस पैसे का दिन
इतवार के बाजार सबसे बड़ा आकर्षण हुआ करते थे उन दिनों। दूर-दराज के गांवों से लोग आते अपनी गठरियां उठाए, कुछ बेचने, कुछ खरीदने, सड़क के दोनों ओर सब्जी वालों की दुकानें, फलों की, जिसमें केले और सेब ही अमूमन होते। कभी-कभी बिही (अमरूद) और बेर भी। गर्मियों में कलिंदर मिलते कटे हुए फांकों में, हम फांक कटवा कर बड़े मज़े से खाते। किराना सामान की दुकानें, खड़ा नमक, नारियल, बर्तन, ठेले पर मिलने वाले रेडीमेड कपड़े, जिनमें लठ्ठे की बंडियां,कच्छे और पेटीकोट वगैरह होते। जमीन पर सजे मोती, कांच की रंग-बिरंगी चूड़ियां, मालाएं, रिबन, लाल मूंगे की तरह के मनके मिलते और सबसे बड़ी बात जमीन पर बिछी एक चादर पर पतली-सस्ती-रोमांचकारी किताबें भी मिलतीं। सिंहासन बत्तीसी और वेताल के कामिक्स मैंने यहीं से ख़रीदकर पढ़े थे। बाद-बाद में स्टेशन के बाहर एक किताबों की दुकान खुली थी, जो किराए पर किताबें देता था। पच्चीस पैसा एक दिन का।
व्यंजन की गंध
स्टेशन से निकलते ही जीवतराम सिंधी की होटल, जहां वेज-नॉन वेज दोनों पकता था। वहां से गुजरो तो मटन की महक घर से निकले लोगों को अपनी तरफ खींच लेती थी। जरा सा बाहर आने पर गांधी जैन की होटल थी, जिसके आलूबंडे खाने को लड़कों की लाइन लगी रहती। स्टेशन से बाईं तरफ जाने पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, जिसके लिए जमीन गोविंद सेठ ने दान दी थी, बिल्डिंग भी बनवा दी थी पर जहां कोई अच्छा डॉक्टर टिकता ही नहीं था। हर इमरजेंसी में कटनी, जबलपुर और बिलासपुर ही भागना पड़ता था।
भूपेंद्र चित्र और जय संतोषी मां
हम जिस स्कूल में पढ़े, वह आदिवासियों के लिए बनाया गया गर्ल्स स्कूल था। जहां हम पैदल ही कंधे पर बस्ता लटकाए पहुंच जाते। एक मोड़ पर गांव का एकमात्र सिनेमा हाल, भूपेन्द्र चित्र दिखाई पड़ता। कहते हैं, इसे 1951 में बनवाया गया था। जो भी फिल्म लगती, हफ्ता भर तो बड़ी भीड़ रहती। एक बार जय संतोषी मां लगी थी तो उतरने का नाम ही न ले। स्कूल के पीछे एक बड़ा तालाब होता था, ढेरों लोग वहीं नहाते, कपड़े धोते। तालाब के उस पार सिर्फ खेत ही खेत हुआ करते। आज जहां बस स्टैंड है, पहले जंगल हुआ करता था। दर्री टोला में लड़कों का स्कूल था पांचवी तक। छठवीं से उन्हें लाइन के उस पार बने बॉएज स्कूल में जाना होता था। लाइन उस पार से एक रास्ता भालूमाड़ा भी जाता था, यहां कोयले की खदानों से करोड़ों रुपयों का कोयला निकलता। यह कोयला सलेक्टेड ए ग्रेड का कोयला था, पूरे रीजन में ऐसा कोयला नहीं था। मालगाड़ियों में भर कर यह कोयला मैहर, जुकेही, कलकत्ता एसोसिएट सीमेंट वर्क्स की प्रायः सभी फैक्ट्रीज में जाता था। उस वक्त 12-13 अंडर ग्राउंड कोल माइंस हुआ करती थीं। लेकिन अब यहां कोयला लगभग खत्म हो गया है।
गली सिंधी मिल वाली
हायर सेकेंड्री बॉएज स्कूल की बगल से एक रास्ता केवई नदी की ओर जाता है, हरहराती नदी, जो जटाशंकर से निकलती है और धुरवासिन के पास सोन नदी में मिल जाती है। नदियां तुम्हारे भीतर कब उतर जातीं हैं, तुम कभी नहीं जान पाते। जब तुम रोते या प्रेम करते हो, वे तुम्हारे भीतर से बाहर आ जाती हैं। हमारी मिल वाला इलाका भट्टी टोला कहलाता था। हमारे घर वाली गली सिंधी मिल के नाम से जानी जाती थी, जहां दूर-पास के लोग गेहूं पिसाने आते थे।
गली खत्म होते ही डॉ. कैवल्य सिंह, होमियोपैथी वाले बैठा करते। उनका मोड़ काटते ही जौहरी की जलेबी की दुकान, जहां वह गुड और शक्कर दोनों की जलेबियां बनाता। बड़े-बड़े पीतल के थालों में वे जलेबियां, गुड़ की करी और गुझिया रस वाली स्टेशन से उतर कर आने वालों को अपनी ओर खींच लेतीं। उस वक्त अच्छी मिठाइयां लेना हो तो एक ही दुकान थी, टंटाई महराज।
फैल गया गांव
स्टेशन के आसपास अब दस किलोमीटर तक गांव फैल गया है। अंग्रेजी स्कूल बढ़ गए हैं। ट्रेनें ज्यादा चलने लगी हैं। सभी बड़े ब्रांड्स के शो रूम खुल गए हैं, कार-बाइक के शो रूम खुल गए हैं, वरना पहले स्कूटर लेने जबलपुर या बिलासपुर जाना पड़ता था। भूपेन्द्र चित्र मंदिर बंद हो गया है, अब वहां मॉल बनाने की योजना है। बहुत कुछ बदल गया है पर इतना नहीं बदला कि पुराने गांव का चेहरा ही न दिखे। पुरानापन अभी पूरी तरह छोड़ कर गया नहीं है।