“बगावत में बार-बार कविता क्यों याद आती है? प्रतिरोध की कविता जमीन पर फेल क्यों हो जाती है?”
वह 2017 की सर्दियों की एक शाम थी। जगह, दिल्ली के कनॉट प्लेस का सेंट्रल पार्क। कोई दो दर्जन के आसपास नौजवान, अधेड़ और बुजुर्ग बैटरी वाला लाउडस्पीकर लेकर बारी-बारी से कविता, गीत और नज़्में गा रहे थे। भीड़ बढ़ती जा रही थी। लोग सीढ़ियों पर आकर बैठने लगे। तभी दिल्ली पुलिस के दो सिपाही वहां आ धमके। उन्होंने पूछताछ शुरू कर दी। हाथ में माइक लिया हुआ नौजवान कवि बिना ठिठके कविता पाठ में जुटा रहा। कुछ लोगों ने पुलिसवालों से ठहर कर कविताएं सुनने का आग्रह किया। वे मान गए। शाम ढलती गई, कविता के सुर चढ़ते गए- ‘सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे, हम देखेंगे!’ जो सिपाही बंदिश लगाने आए थे, वे खुद करीब पौन घंटा कुछ कवियों को सुनने के बाद आश्वस्त होकर मुस्कुराए, एक ने ताली भी बजाई, फिर कहीं और निकल लिए। ऐसा अक्सर नहीं होता। कौन जाने फ़ैज़ और गालिब ने उनकी जिंदगी में कोई खिड़की खोल दी हो। कविता ऐसी ही होती है। किसी से बैर नहीं रखती। अवाम हो या हाकिम, सबको मौका देती है। सबको बराबर मांजती है। बशर्ते कोई कवि की भाषा को समझे। उसके चश्मे से दुनिया को देखे।
छह साल पहले जो हुआ, आज की दिल्ली में शायद मुमकिन न हो। उस समय को दर्ज करना और संजो लेना कविता के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी जरूरी है। तब देश के तीन दर्जन मानिंद लेखकों ने कन्नड़ के लेखक एम.एम. कलबुर्गी की दिनदहाड़े हुई हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी का दिया पुरस्कार एक-एक कर लौटाया था। असहिष्णुता पर चौतरफा बहस छिड़ी हुई थी। तकरीबन रोज कोई न कोई घटना आग में घी का काम कर रही थी। दिल्ली से लेकर मुंबई, लखनऊ, इलाहाबाद, इंदौर, रांची, पटना और जलगांव तक कवि-लेखक मोर्चे पर थे। सबने कलम खड़ी कर दी थी। फिर जाने क्या हुआ, यह लहर जितनी तेजी से उठी थी उतनी ही जल्दी बैठ भी गई।
दो साल बाद दिल्ली से ही एक और मोर्चा उठा जो देश भर में फैल गया। थके-हारे कवियों-शायरों का बकाया जिम्मा अबकी नौजवानों ने उठा लिया था। वे उनके शब्दों को स्वर दे रहे थे। उनसे दीवार रंग रहे थे। यह अकेले भारत में नहीं हो रहा था। 2019 को दुनिया भर में स्ट्रीट प्रोटेस्ट के वर्ष का नाम दिया गया। दिल्ली से लेकर आजमगढ़ तक औरतों ने मजाज़ के लिखे को साकार करते हुए अपने आंचल को परचम बना लिया। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ उठा यह गुबार अवाम के एक नए राष्ट्रगीत को जन्म दे गया, जिसका मुखड़ा था, 'हम कागज नहीं दिखाएंगे!'
'हम देखेंगे' से 'हम कागज नहीं दिखाएंगे' तक का यह सफर समाज और सियासत के बारे में बदलते मुहावरे में बहुत कुछ कह जाता है। जिस दौर में इकबाल बानो ने फैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे' को जनरल जिया-उल-हक की तानाशाही के खिलाफ पाकिस्तान में गाया था और उसके बाद जन-भावनाओं का सैलाब आ गया था, वह समय आज से बहुत अलग था। पचास साल पहले सत्ता, पूंजी और तकनीक की बंदिशें आज जैसी नहीं थीं। पाकिस्तान की सियासी तानाशाही का पूंजीवाद की वैश्विक जकड़न से उतना सीधा रिश्ता नहीं था। तब तकनीक के सहारे निगरानी के औजार भी मौजूद नहीं थे। इसलिए, शायर का अवाम की ओर से इतना कहना ही काफी था कि 'हम देखेंगे'। इन दो शब्दों में भरी उम्मीद और चेतावनी का पचास साल में प्रत्यक्ष नकार में बदल जाना, कि 'हम कागज नहीं दिखाएंगे', क्या कुछ कहता है?
आज भी 'हम देखेंगे' पर बंदिशें तारी हैं, तो क्या बिंबों और मुहावरों में ज्यादा ताकत है?
कविता को संघर्ष में उतरते ही इतना डायरेक्ट, इतना लक्षित क्यों होना पड़ रहा है? क्या इससे हस्तक्षेप का मिजाज वाकई बदल रहा है? कविता का लोकप्रिय नारे में बदल जाना उसकी सफलता माना जाए या नाकामी? सवाल और भी हैं। मसलन, आज भी 'हम देखेंगे' की नज़्म पर जितनी बंदिशें इस देश में तारी हैं, उस लिहाज से क्या कह सकते हैं कि बिंबों और मुहावरों में कहीं ज्यादा ताकत होती है? यदि हां, जैसा कि 2019 में हमने दिल्ली की सड़कों पर देखा भी है, तो इसकी नियति क्या बार-बार उभर के डूब जाना है? संक्षेप में, हिंदी या हिंदुस्तानी भाषा में रचा जा रहा सांस्कृतिक प्रतिरोध सड़क पर टिक क्यों नहीं रहा? सोशल मीडिया पर उसके टिकाऊपन का- यदि ऐसा है तो- क्या वाकई कोई मूल्य है?
शायरी, कविता, नज़्म, गजल, सिर्फ दिल्लगी का मसला नहीं हैं। इतिहास गवाह है कि कविता ने हमेशा इंसान को सांस लेने की सहूलियत दी है। जब चारों ओर से दुनिया घेरती है; घटनाओं और सूचनाओं के तेज प्रवाह में हमारा विवेक चीजों को छान-घोंट के अलग-अलग करने में नाकाम रहता है; और विराट ब्रह्मांड की शाश्वत धक्कापेल के बीच किसी किस्म की व्यवस्था को देख पाने में असमर्थ आदमी का दम घुटने लगता है; जबकि उसके पास उपलब्ध भाषा उसे अपनी स्थिति बयां कर पाने में नाकाफी मालूम देती है; तभी वह कविता की ओर भागता है। जर्मन दार्शनिक विटगेंस्टाइन कहते हैं कि हमारी भाषा की सीमा जितनी है, हमारा दुनिया का ज्ञान भी उतना ही है। यह बात कितनी अहम है, इसे दुनिया को परिभाषित करने में कवियों के प्रयासों से बेहतर समझा जा सकता है।
कबीर को उलटबांसी लिखने की जरूरत क्यों पड़ी? खुसरो डूबने के बाद ही पार लगने की बात क्यों कहते हैं? गालिब के यहां दर्द हद से गुजरने के बाद दवा कैसे हो जाता है? पाश अपनी-अपनी रक्त की नदी को तैर कर पार करने और सूरज को बदनामी से बचाने के लिए रात भर खुद जलने को क्यों कहते हैं? फैज़ वस्ल की राहत के सिवा बाकी राहतों से क्या इशारा कर रहे हैं? दरअसल, एक जबरदस्त हिंसक मानवरोधी सभ्यता में मनुष्य अपनी सीमित भाषा को ही अपनी सुरक्षा छतरी बना कर उसे अपने सिर के ऊपर तान लेता है। उसकी छांव में वह दुनियावी कोलाहल को अपने ढंग से परिभाषित करता है, अपनी ठोस राय बनाता है और उसके भीतर अपनी जगह तय करता है। एक कवि और शायर ऐसा नहीं करता। वह भाषा की तनी हुई छतरी में सीधा छेद कर देता है, ताकि इस छेद से बाहर की दुनिया को देख सके और थोड़ी सांस ले सके। इस तरह वह अपने विनाश की कीमत पर अपने अस्तित्व की संभावनाओं को टटोलता है और दुनिया को उन आयामों में संभवत: समझ लेता है, जो आम लोगों की नजर से प्रायः ओझल होते हैं।
भाषा की सीमाओं के खिलाफ उठी हुई कवि की उंगली दरअसल मनुष्यरोधी कोलाहल से बगावत है। गैलीलियो की कटी हुई उंगली इस बगावत का आदिम प्रतीक है। जरूरी नहीं कि कवि कोलाहल को दुश्मन ही बनाए। वह उससे दोस्ती गांठ कर उसे अपने सोच की नई पृष्ठभूमि में तब्दील कर सकता है। यही उसकी ताकत है। पाश इसीलिए पुलिसिये को भी संबोधित करते हैं। सच्चा कवि कोलाहल से बाइनरी नहीं बनाता। कविता का बाइनरी में जाना कविता की मौत है। कोलाहल से शब्दों को खींच लाना और धूप की तरह आकाश पर उसे उकेर देना कवि का काम है।
कुमाऊं के जनकवि गिरीश तिवाड़ी ‘गिरदा’ इस बात को बखूबी समझते थे। एक संस्मरण में वे बताते हैं कि एक जनसभा में उन्होंने फ़ैज़ का गीत 'हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे' गाया, तो देखा कि कोने में बैठा एक मजदूर निर्विकार भाव से बैठा ही रहा। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा, गोया कुछ समझ ही न आया हो। तब उन्हें लगा कि फ़ैज़ को स्थानीय बनाना होगा। कुमाऊंनी में उनकी लिखी फ़ैज़ की ये पंक्तियां उत्तराखंड में अब अमर हो चुकी हैं: ‘हम ओढ़, बारुड़ी, ल्वार, कुल्ली-कभाड़ी, जै दिन यो दुनी धैं हिसाब ल्यूंलो, एक हांग नि मांगूं, एक भांग नि मांगू, सब खसरा खतौनी किताब ल्यूंलो।'
प्रेमचंद सौ साल पहले कह गए कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है, लेकिन उसे हमने बिना अर्थ समझे रट लिया। गिरदा ने अपनी एक कविता में इसे बरतने का क्या खूबसूरत सूत्र दिया है:
ध्वनियों से अक्षर ले आना क्या कहने हैं
अक्षर से फिर ध्वनियों तक जाना क्या कहने हैं
कोलाहल को गीत बनाना क्या कहने हैं
गीतों से कोहराम मचाना क्या कहने हैं
प्यार, पीर, संघर्षों से भाषा बनती है
ये मेरा तुमको समझाना क्या कहने हैं
कोलाहल को गीत बनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है? डेल्यूज और गटारी अपनी किताब ह्वॉट इज फिलोसॉफी में लिखते हैं कि दो सौ साल पुरानी पूंजी केंद्रित आधुनिकता हमें कोलाहल से बचाने के लिए एक व्यवस्था देने आई थी। हमने खुद को भूख या बर्बरों के हाथों मारे जाने से बचाने के लिए उस व्यवस्था का गुलाम बनना स्वीकार किया। श्रम की लूट और तर्क पर आधारित आधुनिकता जब ढहने लगी, तो हमारे रहनुमा ही हमारे शिकारी बन गए। इस तरह हम पर थोपी गई व्यवस्था एक बार फिर से कोलाहल में तब्दील होने लगी। इसका नतीजा यह हुआ है कि वैश्वीकरण ने इस धरती पर मौजूद आठ अरब लोगों की जिंदगी और गतिविधियों को तो आपस में जोड़ दिया है लेकिन इन्हें जोड़ने वाला एक साझा ऐतिहासिक सूत्र नदारद है। कोई ऐसा वैचारिक ढांचा नहीं जिधर सांस लेने के लिए मनुष्य देख सके। आर्थिक वैश्वीकरण ने तर्क आधारित विवेक की सार्वभौमिकता और अंतरराष्ट्रीयतावाद की भावना को तोड़ डाला है। ऐसे में राष्ट्रवाद, नस्लवाद, धार्मिक कट्टरता आदि हमारी पहचान को तय कर रहे हैं। इतिहास मजाक बन कर रह गया है। यहीं हमारा कवि और शायर घुट रहे लोगों के काम आ रहा है।
कोई कह सकता है कि कविता और शायरी की वापसी समाज में हो रही है, हालांकि कविता कहीं गई नहीं थी, हमेशा से यहीं थी। आजादी से पहले रबीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर बाद में सर्वेश्वर, अज्ञेय, फैज़, साहिर, हबीब जालिब, प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा, वरवर राव, उनके बनाए विरसम (विप्लवी रचयिता संगम), मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल, ऋतुराज, अवतार सिंह पाश और नब्बे का दशक आते-आते जनगायक गदर तक पहुंची कवियों की असहमति में उठी हुई उंगली ने इस देश के लोगों को सांस लेने की जितनी जगह दी है, उतनी औपचारिक लोकतंत्र ने भी नहीं दी है। यह प्रतिरोध की धारा है। यह पूंजी की जकड़ में कैद लोकतंत्र की सतह के नीचे लगातार बहती रही है।
इस धारा की हालांकि एक सीमा है। हिंदी और उर्दू के इन मकबूल कवियों-शायरों का लिखा जिस भाषा में हमसे बात करता है, इस देश के संघर्षरत समुदाय उस भाषा को नहीं जानते। बीते दिनों तकनीक के प्रसार ने कवियों और शायरों का लिखा शहरी मध्यवर्ग में बेशक सुलभ बनाया है लेकिन जमीन पर जहां लड़ाइयां चल रही हैं वहां ये कवि नदारद हैं। वहां तो अब भी गिरदा हैं, गदर हैं, संभाजी हैं, कबीर कला मंच है। जमीनी लड़ाइयां एक होते हुए भी भाषा की सीमाओं में बंटी हुई हैं। अपनी लड़ाई के हिसाब से अपने-अपने सांस्कृतिक औजार समुदाय गढ़ रहे हैं। इन्हें एक सूत्र में पिरोना मुश्किल नहीं है। ऐसा अतीत में हुआ है। आखिर गदर की एक कविता 'आगडु आगडु' कुछ वर्ष पहले तमाम जन आंदोलनों का गीत कैसे बन गई थी? ओडिया गीत 'गांव छोड़ब नाहीं' देश भर के संघर्षों में आज क्यों गाया जा रहा है? इटली के मजदूरों का लोकप्रिय गीत 'बेला चाओ' भारत में क्यों युवाओं की जबान पर आ जाता है? क्या इस देश की भाषाओं-बोलियों में रचे जा रहे प्रतिरोध के शब्दों को कोई एक सूत्र बांध सकता है?
इसके बरक्स दूसरी दिशा में देखने पर हम एक जबरदस्त विडंबना पाते हैं- संस्कृति और सांस्कृतिक कर्म को राजनीतिक तौर पर सफलता से एकमुश्त वही बरत रहे हैं जो राजनीतिक सत्ता में हैं। जिस राजनीतिक मुहावरे का आज बोलबाला है देश में, उसके पीछे लंबे समय से एक संस्कृति काम कर रही है जिसकी राजनीति बीते सौ साल से हो रही है। आज हम उस मुकाम पर पहुंचे हुए हैं जहां वर्तमान सत्ता ने इस राष्ट्र और इसके राष्ट्रवाद के आरंभिक बिंदु को कम से कम एक सहस्राब्दि पीछे धकेल दिया है। इसका आरंभिक श्रेय उन लोगों को जाता है जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के अंत में संस्कृति पर काम किया और एक बनते हुए राष्ट्र के लिए राष्ट्रवाद की बुनियादी परिकल्पना की।
बंकिम चंद्र चटर्जी का आनंदमठ एक बार फिर से देखिए। उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में, जो वास्तविक इतिहास का एक काल्पनिक विस्तार था, भारत की अधीनता को और पीछे ले जाकर उसमें प्राक्-आधुनिक इस्लामिक साम्राज्यों के शासन को भी शामिल किया गया। इरफ़ान हबीब राष्ट्रवाद पर अपनी पुस्तक में सुदीप्त कविराज को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि बंकिम ने 'स्व' और 'पर' यानी बंगालियों और भारतीयों के बीच की परिकल्पित सीमा को दोबारा खींचा तथा 'भारतीय राष्ट्रवाद' के स्रोतों को निरूपित करने में मूलभूत भूमिका निभाई। यह व्याख्या बाद में उन लोगों के काम आई जिन्होंने अपने राष्ट्रवाद को 'स्व' और 'पर' की दुई में बांटते हुए गढ़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने राष्ट्रवाद को इसीलिए 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' कहा।
इस संदर्भ में सवाल कवियों या संघर्षरत समुदायों पर उतना नहीं है, जितना उन पर है जो कविता को संघर्षों में औजार की तरह बरतने में आस्था रखते हैं। इस देश का शहरी मध्यमवर्गीय आंदोलनकारी आखिर किसान-मजदूर के गीतों के लिए बार-बार गोरख पांडे के पास ही क्यों जाता है? बीते चार दशक में आंदोलनकारी इदारों ने क्या कोई नया सांस्कृतिक उत्पादन किया? नए गीत लिखे? नई नज़्म लिखी? पचास साल से ‘हम देखेंगे’ से क्यों काम चलाया जा रहा है? जिन राजनीतिक दलों को इस देश के सांस्कृतिक क्षरण की चिंता है उनकी संस्कृति पर अपनी सांगठनिक नीति क्या है? उनके सांस्कृतिक प्रकोष्ठ क्या कर रहे हैं?
सोशल मीडिया या व्हाट्सएेप पर घूम रही राहत इंदौरी या जौन एलिया की रोमांचित करने वाली चार पंक्तियों के आधार पर कोई नतीजा दिया जा सके, कविता और समाज का रिश्ता इतना आसान नहीं है। यह संस्कृति की राजनीति और राजनीतिक संस्कृति का विषय है, जिसका इम्तिहान सड़क पर होता है, फेसबुक पर नहीं। सोशल मीडिया अपने चरित्र में एक कुआं है जहां अपनी ही आवाज वापस सुनाई देती है। अपनी ही आवाज को सुनने से ज्यादा खतरनाक कविता के लिए क्या कुछ और हो सकता है?
आज चारों ओर से घेर रही तकनीक में गुलामी अक्सर आजादियों की शक्ल में भरमाते हुए आती है। इसलिए कविता-शायरी की वापसी का सदिच्छाधारी फतवा कविता के पोस्टर बन जाने और पहली ही बारिश में गल जाने का खतरा अपने भीतर छुपाए हुए है। जैसे बीते वर्षों में टीशर्ट के ऊपर भगत सिंह और चे ग्वारा के चेहरे चिपका कर उनके विचारों को व्यवस्थित ढंग से बेअसर कर दिया गया, आज वैसे ही कवि अपनी लिखी कविता का खुद पोस्टर बना रहा है और खुद पोस्ट कर रहा है। पढ़ने वाला पोस्टर का पुनरुत्पादन अपने ढंग से कर रहा है, जहां कवि गायब भी हो सकता है। यह कविता का समकालीन संकट है। यही समाज का भी संकट है। कवि-कविता, शायर-शायरी, और इन्हें पढ़ने वाले, सब एक अबूझ कोलाहल के ब्लैक होल में समा चुके हैं।
हमारे कवि, हमारे शायर और उनका लिखा हमारी सांस है। यदि वाकई किसी को लगता है कि कवि और शायर अपनी कल्पना की ताकत और हमारी भाषा की सीमा के चलते वापसी कर ही रहा है, तो उसके शब्दों की गरिमा और शुचिता को बचाने की जिम्मेदारी भी उसी की है। इसके लिए सबसे अहम यह है कि लगातार अबूझ होती जा रही इस दुनिया की ओर खिड़की खोलने वाले शब्दों को अश्लील नारे में तब्दील करना बंद किया जाए। शब्द, ब्रह्म है। कविता, मनुष्यता का सपना है। और कवि, मनुष्य की आत्मा का पहरेदार!