आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए श्रद्धा थवाईत की कहानी। श्रद्धा की कहानियों में छोटी घटनाओं से वे बड़ा संदेश देती हैं। उनकी कहानियां आसपास के परिवेश की कहानियां हैं। वे ऐसे पात्र उठाती हैं, जिनसे रोजमर्रा सभी का सामना होता है, लेकिन वे ध्यान देने योग्य नहीं समझे जाते। उनके बिंब और भाषा की रवानगी उनकी कहानियों को अलग बनाती है।
कुछ दिन पहले शांति स्कूल से आई तो उसकी आंखें लाल टमाटर थीं। मां ने घर में सबको चेताया, शांति की आंखों में नहीं देखना, उसकी आंखें आई हैं। उसकी आंखों में देखोगे तो, तुम्हारी आंखें भी लाल टमाटर हो जाएंगी। दूसरे दिन वह स्कूल गई। मैडम ने वापस भेज दिया कि घर जाओ! तुम्हारे कारण बाकी को भी आंखें आ जाएंगी। डर कर बहुत दिनों तक उसने किसी की आंखों में देखना ही बंद कर दिया। फिर भी घर में एक-एक कर सभी की आंखें लाल टमाटर हो गईं। सबने इसके लिए शांति को ही जिम्मेदार ठहराया कि वही ये छूत घर ले कर आई।
छूत तो तीन-चार दिनों में ठीक हो गई लेकिन अपराध-भाव छोड़ गई। आजकल शांति को महसूस होता है कि, उसको गरीबी की छूत लग गई है। तभी उसके आसपास सब गरीब हैं। जो नहीं हैं, वो पास आते ही गरीब हो जाते हैं। चाहे कोई पैदल आए या दो चकिया में, या चार चकिया में ही क्यों न आए।
बड़ी अजीब सी लगती है यह बात। लेकिन उसके पास रोज ही इसके इतने अनुभव हो जाते हैं कि रात को सोने से पहले दिमाग की ढलान में बोरे से निकले प्याज की तरह लुढ़कते जाते हैं। धीरे-धीरे ये कच्चे अनुभव इस घिनौनी बीमारी के पक्के घड़े से अहसास में बदल गए हैं। यह अहसास शांति को खुद से ही घृणा कराने लगा है।
उस शाम आसमान में चुड़ैल के बिखरे बालों से बादल भरे थे, जो हाथियों की तरह चिंघाड़ रहे थे। रात हो रही थी। उसे रात से डर लगता है। दिन भर वह कहीं फुदकती फिरे शाम होते ही मां के पंखों में दुबकने चली आती। जब तक मां दुकान बंद कर सब्जी समेट न ले, वह मां के साथ लगी रहती और बिलकुल जिम्मेदारी से सब्जी बेचने में मां की मदद करती।
उस शाम भी वह सब्जियों से घिरी बैठी थी, जब झिलमिलाते नीले कपड़े पहनी मैडम, अपनी चमकती कार से सब्जी खरीदने उतरी। उनके पतले होंठ टमाटर से लाल थे। सिर पर मक्के के बाल चमक रहे थे। शांति की पलकें तो झपकना ही भूल गई थीं। वह मोबाइल में बात कर रही थीं। उनकी एक-एक बात शांति के जेहन में अपनी छाप ऐसे छोड़े हुए है जैसे, सड़ी हुई सब्जी बोरों पर अपना दाग छोड़ जाती है।
"क्या कहूं यार! इतने दिनों से घर पर बंधी हुई फड़फड़ा रही थी, पर निकल ही नहीं पा रही थी। आज वे लोग एक दिन के लिए बाहर गए, तो मैं निकल आई। मूड फ्रेश करने शॉपिंग से बेहतर कुछ हो सकता है क्या? आज मैंने सुमेश को कह दिया था, मैं तुम्हारे सारे पैसे उड़ा आऊंगी।"
"एक किलो आलू देना।"
"पैसे उड़ाना" सुनते ही शांति के कान खड़े हो गए थे। पैसे! कोई पैसे कैसे उड़ा सकता है? मां तो पैसे को अपनी पोटली में बांधकर रखती है। शांति ने कभी पैसे उड़ते नहीं देखे। हां...देखे हैं। जब बरात में लोग पैसे उड़ाते हैं। शांति का भाई अपने दोस्तों के साथ, उन पैसों को उठाने जाता है। पागलों की तरह नाचते लोगों के बीच, खुद को बचाते हुए घुस-घुस जाता है। शायद इसने भी वैसे ही पैसे उड़ाए होंगे। उसके हाथ आलू उठा रहे थे। कान और दिमाग किसी चुस्त फील्डर की तरह उसकी बातों को कैच करने के लिए तैयार खड़े थे।
"सुनो! एक किलो प्याज भी देना।"
शांति प्याज निकालने लगी थी। वह झिलमिल परी आगे कह रही थी।
"सर पर पल्लू रखे-रखे तो, मेरी गर्दन ही टेढ़ी हो गई थी। सबसे पहले तो मैं पार्लर गई। वहां आराम से हेड मसाज, फुल बॉडी स्पा, फेशियल, पेडीक्योर, मैनीक्योर कराया। ऐसा लगा कि किलो भर भार आज उतर गया। सोचा तो था कि दस तक लग जाएगा, पर ऑफर चल रहा था, तो सात में ही सब कुछ निपट गया।"
प्याज तौलती शांति के मन में बिजलियां चमकने लगीं। यह सात क्या होगा? पक्का सात सौ ही होगा। पिछली दीवाली के ठीक पहले, मां को सड़क पर पांच सौ रुपये का नोट पड़ा मिल गया था। उनकी दिवाली धमाल मन गई थी। उसकी सुनहरी खूब घेर वाली फ्रॉक। वैसी ही फ्रॉक लेने की जिद में उसकी सहेली निक्कू चार दिन तक रोती और मार खाती रही थी। पूजा के बाद मिले प्रसाद में, पीले-पीले बूंदी के लड्डू, जिनका स्वाद आज भी उसके जेहन में ताजा है। इन सबसे बढ़कर कैसे तो रंग-बिरंगी चिंगारियां छोड़ते पटाखे। पहली बार शांति ने पटाखे जलाए थे, वरना अब तक तो टुकुर- टुकुर देखते रहने का ही भाग था।
"आधा किलो अरबी देना।"
मां जल्दी-जल्दी सब्जी समेट रही थी। कभी भी बारिश हो सकती थी। शांति के हाथ तेजी से अरबी छांटने लगे थे।
देखो यह सात सौ पार्लर में खर्च करके आ रही हैं। यदि यह सात सौ मां को मिल जाते, तो उनकी यह दिवाली पिछली दिवाली से भी कहीं बेहतर हो जाती। मां-बाबा के लिए भी कपड़े आ जाते।
" सुन तो यार! पार्लर से निकलकर हल्का लग रहा था, लेकिन एक्स्ट्रा पैसे बच गए थे, वो भारी लग रहे थे। मैंने सोचा, आज उड़ाने का ही दिन है। चलो! मॉल चला जाए, तो मॉल चली गई। वहां मैंने खूब शॉपिंग की और पूरे पच्चीस हजार आखिर उड़ा कर ही मानी।
शांति के अरबी छांटते हाथ ठहर गए। पच्चीस हजार! तो क्या वह सात में सब कुछ निपट जाना सात हजार होगा? कोई एक दिन में इतना खर्च कर कैसे सकता है। वो भी पार्लर में। पल भर को शांति बुत बन गई। सिर में चपत लगी, हाथ से अरबी की टोकरी ले, मां तौलने लगी, तो उसे होश आया। मां मैडम की बताई सब्जियां देने लगी। शांति की नजरें टुकटुकी लगाए, उस मैडम को ही देखती रही। घनी काली पलकें, बेसन मिले चावल आटे की लोई से गाल। मैडम ने अपनी नजरें शांति पर प्रश्वाचक मुद्रा में टिका दीं तो शांति की नजरें डर गईं। पलट कर दिल में उतर गई। जहां पार्लर और दस रुपये ने एक काला दर्दीला दाग लगा रखा था।
शांति मां के साथ एक बार पार्लर गई थी। मां ने अपनी भौहें नुचवाई थीं। दस रुपये में। शाम तक वहां दाने भी उग आए थे। वह बहुत दुखी हुई थी कि मां ने दस रुपये में ये दर्द मोल लिया। उसके पहले ही दिन जब उसने और गोलू ने कुल्फी के लिए जिद की थी, तो डांट पड़ी थी कि पता भी है दस रुपये की आएगी दो कुल्फी। मेरे पास नहीं है इतना पैसा खा के निकाल देने के लिए।
उसके दिल में उस दिन की कुल्फी की हुड़क पूरी न होना, नन्हे कुम्हड़े में खुदे नाम की तरह दिल में खुद गया, जो बढ़ती उम्र के साथ बढ़ता ही जा रहा था।
"अच्छा यार घर मे कुछ सब्जी नहीं है। आज तो कुक को मैंने बेसन की सब्जी बनाने कह दिया है, लेकिन कल सुबह फिर ये यक्ष प्रश्न सामने होगा। मैं सब्जी ले लूं, फिर तुम्हें कॉल करती हूं।"
मैडम की बात से शांति का दिल जगमगाया था।
"ओह! तो कार से आने वाले भी बेसन खाते हैं। जैसे मैडम की अनजान दुनिया पल भर को शांति की अपनी हो आई। राशन दुकान से मिला चना पिसा के घर में रखा होता है। मां अक्सर बेसन बना देती है। गर्मियों में प्याज के साथ, सर्दियों में टमाटर के साथ। भूखी शांति का दिलो-दिमाग खाने की याद में खो गया। क्या मैडम के घर में भी बेसन ऐसे ही बनता होगा? नहीं! जो पच्चीस हजार एक दिन में खर्च कर सकते हैं उनका और शांति का बेसन एक नहीं हो सकता। शांति सम्मोहित बैठी रही।
मैडम मोबाइल पर्स में डाल, उसकी मां से पूछ रही थी।
"ये खेखसी कैसे दिए?"
मोबाइल के पर्स में जाते ही मानो दूसरी दुनिया को जाता रास्ता बंद हो गया। मैडम के बदले सुर सुन शांति सम्मोहन से बाहर आई। ये तो वही सुर है जो वह रोज सुनती है, पल में हजारों खर्च करने वालों का ऐसा सुर नहीं हो सकता?
"तीस रुपए के आधा किलो"
"पचास रुपया किलो दे।"
"नइ परे ओ"
"पचास रुपये किलो लगा और एक किलो दे दे।"
"साठ रुपया से कम नई परे मेडम।"
"अच्छा रहने दे। कितने कितने का हुआ?" सब्जी की पॉलिथीन संभालती मैडम पूछने लगी थी।
"क्या ये भिंडी इतनी महंगी? अभी परसों ही तो टमाटर पच्चीस रुपये किलो में लेकर गए हैं। बहुत महंगा लगा रही हो।"
"आज टमाटर नई आइस हे। कहूं पूछ लें ऐतके भाव मिलहि।"
"अच्छा कुल कितने का हुआ?"
मां और मैडम साथ मिल कर एक-एक शून्य वाली संख्या जोड़ रहे थे। शांति सौ, हजार, पच्चीस हजार के शून्यों में उलझ गई थी।
"दो सौ रुपये!"
"ये लो दो सौ! और इतनी सब्जी ली है, थोड़ी धनिया पत्ती तो डाल दो।"
"धनिया में घलौक आगि लगे हे। अढ़ाई सौ रुपया किलो हे।"
धनिया पत्ती की पुरौनी एक पॉलीथिन में डालते हुए मां ने कहा। शांति को लगा मानो मैडम धनिया नहीं उसकी कुल्फी पुरौनी में ले जा रही हों।
उस रात सोने से पहले, गुजरे दिन की गलियों से गुजरते हुए उसके सामने नीम तेल सा कड़वा प्रश्न आ खड़ा हुआ कि कहीं उससे नजरें मिलते ही मैडम के सुर तो नहीं बदले थे? जैसे छछूंदर एक दूसरे की पूंछ पकड़े दीवार से लगे चलते चले जाते हैं। वैसे ही शांति का एक अनुभव दूसरे अनुभव की पूंछ पकड़े, उसकी जिंदगी में एक के बाद एक चला आया। अब यह प्रश्न घना दरख्त बन चुका है जिस पर उत्तर के फूल, विश्वास के फल भी आ चुके हैं।
शांति बचती है किसी अमीर से नजरें मिलाने से कि कहीं उससे नजरें मिलते ही वो बेचारा अमीर गरीब न हो जाए। जितना वह नजरें मिलाने से बचती है, कमजोर दिखती है, गरीबी की उतनी ही तेज छूत सामने वाले को लग जाती है।
श्रद्धा थवाईत फिलहाल रायपुर, छत्तीसगढ़ में रहती हैं। कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां प्रकाशित हुई हैं। उन्हें 2016 का भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है। उनकी एक कहानी को साहित्य अमृत युवा हिंदी कहानीकार प्रतियोगितें प्रथम पुरस्कार मिला था। भारतीय ज्ञानपीठ से हवा में फड़फड़ाती चिट्ठी नाम से उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित है।