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स्त्री की नजर से रचना संसार

आजकल फैशन हो गया है कि किसी विमर्श पर ध्यान लगाया जाए तो ही साहित्य 'बिकाऊ’ हो सकता है। लमही का नया अंक स्त्री विमर्श से ज्यादा उन्हें समझने और उनकी भावनाओं को सामने लाने का अंक है।
स्त्री की नजर से रचना संसार

लमही का ताजा अंक 'कहानी का स्त्री’ पक्ष पर आधारित है। विशेषांक निकालने की परिपाटी में यह अलग ढंग का अंक है। इस अंक कि सिर्फ इसलिए चर्चा नहीं की जानी चाहिए कि संपादक विजय राय ने दर्जन से ज्यादा महिला कथाकारों को जुटा कर उनसे कहानियां लिखवा ली हैं। जैसा कि आजकल फैशन हो गया है कि किसी विमर्श पर ध्यान लगाया जाए तो ही साहित्य 'बिकाऊ’ हो सकता है। यह स्त्री विमर्श से ज्यादा का अंक है। यह सिर्फ इस पर केंद्रित नहीं है कि स्त्रियां क्या सोचती हैं। बल्कि स्त्रियां क्या लिखती हैं और उस पर आलोचक क्या सोचते हैं। आलोचक होने में स्त्री और पुरुष होने का भेद नहीं है। कुल 17 लेखिकाओं की कहानियों पर 17 आलेख भी हैं। हर कहानी पर एक आलोचनात्मक आलेख ने कहानी के कई आयाम खोले हैं। हर बार कहानी नए रंग में खुलती हैं क्योंकि एक लेखिका जैसे लिखती है, वैसे ही उसे पाठक समझते हैं या नहीं। और जैसे पाठक समझते हैं क्या आलोचक ने उसे उसी रूप में लिया है।

जाहिर सी बात है यह बहुत समय लेने वाला काम रहा होगा, लेकिन विजय राय और उनकी टीम ने उसे बखूबी अंजाम दिया है। इस अंक की एक और ताकत इसमें मौजूद परिचर्चा है। यह अंक में बोनस की तरह लगती है। सभी लेखिकाओं को एक प्रश्नावली दी गई थी जिस पर उन्होंने अपने-अपने ढंग उत्तर लिखा। यह बिलकुल वैसा ही है जैसे कक्षा में एक पर्चा बांटा जाए और छात्र अपने-अपने ढंग से उसका उत्तर लिखें। लिखते सब वहीं हैं पर कोई एक छात्र कक्षा में अव्वल होता है। हालांकि यहां अव्वल हो जाने या पीछे रह जाने का खतरा नहीं था, मगर जब आम पाठक अपनी पसंदीदा लेखिकाओं के 'दिल से’ दिए गए जवाब पढ़ेंगे तो उन्हें कहानी के चरित्रों में झांकने वाली अपनी लेखिका की अलग छवि दिखाई देगी, जो निश्चित रूप से किसी का दिल तोड़ेगी तो किसी को आश्चर्य में डालेगी।

इस परिचर्चा को सौरभ शेखर और शोभा मिश्रा ने अच्छी तरह संयोजित किया। इन सवालों से स्त्री की आजादी और अभिव्यक्ति, हास्य और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच लेखन के सीधे और सच्चे जवाब निकल कर आए। अर्चना वर्मा और मैत्रेयी पुष्पा के साक्षात्कार ने भी स्त्री लेखन पर अलग दृष्टि डाली। इन सब के बीच स्त्री के लेखन को एक नई दिशा मिलेगी यह तो कहा ही जा सकता है। पिछले एक दशक में कई लेखिकाएं साहित्य के पटल पर आ गई हैं। उन्हें प्रकाशित होने के लिए किसी संपादक की बाट भी नहीं जोहनी पड़ती। सोशल मीडिया ने यह आजाद तो उन्हें दे ही दी है। यही वजह है कि कई नई तरह की कहानियां इस अंक में हैं। सोशल मीडिया से जितनी दोस्ती महिलाओं की है शायद पुरुष नहीं कर पाए हैं। उनकी कहानियों में यह झलक भी रहा है। विजय राय इस बात के लिए तो तारीफ के पात्र हैं ही कि उन्होंने इतनी लेखिकाओं को साध लिया है और वह सब से लिखवा पाएं हैं। यह एक संग्रहणीय अंक है, जिसमें लेखिकाओं के अलग-अलग रंग झिलमिला रहे हैं।   

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