'जीता था जिसके लिए' की जनव्याप्ति उन दिनों चालीसा से थोड़ा ही कम थी। एक ओर हमारे गाँव के मंदिर से सुबह में चालीसा का पाठ बजता तो दूसरी ओर मंदिर का लाउडस्पीकर बंद होते ही मनु रिक्शा वाला अपने छत पर लंबे वाले चोंगा में 'दिलवाले' के गीतों को फुल साउंड में पेर देता था। वह तो ईश्वर का भय ठहरा वरना संभव था कि वह मन्दिर के लाउडस्पीकर पर बजने वाले चालीसा के पहले अपने चोंगे पर 'एक ऐसी लड़की थी' बजा देता। फिर भी पूरा पुरुब टोला वाया मनुआ का चोंगा सपना और अरुण की प्रेम कहानी वाले इस फ़िल्म के गीतों को डायलॉग सहित सुनता था। यह वही फ़िल्म है जिसने इक्कीसवीं सदी के युवाओं को 'हवेली पर आ जाना' जैसा पंचलाइन दिया। उस समय इस फ़िल्म के गीत हवाओं में महुवे की मादक गंध की तरह हमारे नथुनों में भी समाए हुए थे। इसमें जीवन का बड़ा दर्शन सीधे सरल शब्दों में समझाने वाला एक संवाद गज़ब का था - "हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहाँ दम था, मेरी किश्ती थी डूबी वहाँ जहाँ पानी कम था"। उन दिनों अधिकतर गाड़ियाँ, रिक्शे अपनी पीठ पर लादे फिरते थे। पर बात केवल दर्शन तक सीमित नहीं थी बल्कि हमारी उम्र के लड़कों को हीरोइक स्वैग भी खूब सीखने को मिला था -"मामा ठाकुर, तुम्हारा यह डंडा किसी जलसे में झंडा लगाने के काम आएगा"। पर यहाँ कहानी इसकी नहीं है। प्रेम के मामले में हमारे जीवन में बसंत हो कि भादो, हर मौसम जेठ ही था, जो किसी सपना के अभाव में ऊसर-बंजर सब लिए हुए था। फिर भी इसके गीतों ने उस बंजर जीवन में से सांगीतिक नमी छिड़क कर एक सतही हरियाली जरूर पैदा कर दी थी। असर ये हुआ कि दिलवाले के बाद तो अपने जीवन में बिना किसी सपना से मिले प्रेमिल धोखे के बावजूद भी अजय देवगन का दुःख अपना निजी दुःख लगने लगा था। मन करता कि काश कोई तो होती, जिसको भरी बज्म में कह देते - "मौका मिलेगा तो हम बता देंगे तुम्हें कितना प्यार करते हैं सनम।"- अलबत्ता इसकी नौबत न थी, न कभी आयी । मन की मिठाई मन में ही रही।
बहरहाल, किस्सा बरास्ते दिलवाले यह है कि उस रोज महेश बाबू के पिताजी ने कहा शाम में कुछ मेहमान आने वाले हैं तो जाकर अजय सिंह के चक्की पर गेहूँ पिसवा लाओ, शिवरतन के किराना स्टोर से एक लीटर सरसों तेल भी लेते आओ। यह तीन बजिया आदेश सिर्फ दो आइटम्स तक सीमित नहीं था बल्कि लिस्ट में पौना दर्जन और आइटम भी थे और माताजी का पर्चा अलग से था। सो, महेश बाबू ने सायकिल उठायी और दनदनाते हुए चौक की ओर निकल गए। पहले चक्की पर गेहूँ दिया गया फिर बंजारी स्टैंड के तरफ से शहर में घुसने का निर्णय हुआ। पर कहते हैं ना किस्मत में लंगड़ी लगना लिखा हो तो आप सीधी चाल चल ही नहीं सकते और हाथी पर बैठे को कुत्ता काट लेता है। वही महेश के साथ हुआ। उस समय स्वच्छ भारत मिशन का जोर नहीं था सो महेश ने बंजारी पुल के पास सायकिल टिका कर धार मारने का निर्णय किया। यहीं पर नियति ने वह घटना रच रखी थी, जिसके शिकार महेश बाबू होने थे।
उसी वक़्त एक ट्रैकर 'दिलवाले' के गीत बजाते हुए सासामूसा- कुचायकोट की सवारी चढ़ाने लगा। स्कूल में महेश भले गणित में लटकता था पर ऐसे मामलों में वह पक्का गणितज्ञ था। सो उसने अंदाजा लगाया - "चालीस मिनट ! एक तरफ से चालीस मिनट दूसरी ओर से भी, उधर से लौटती सवारी के इंतज़ार का बीस मिनट। कुल हुआ एक घण्टा चालीस मिनट और चलिए इंतज़ार के बीस न सही तीस मिनट ही लग गए तो भी गाँव से टाउन सामान लेने आने पर देर होती ही है। दो ढाई से तीन घण्टा मैनेजेबल है।"- उसने मन पक्का किया।
ट्रेकर का खलासी वहीं तिरंगा गुटखा का अपना स्टॉक ले रहा था। महेश बाबू ने उसको सेट किया कि 'तुम्हारे ट्रैकर पर जो गीत बज रहा है, उसकी वजह से हम कुचायकोट तक चल रहे हैं। इसे बदलना मत और शुरू से करो।' - खलासी को सवारी मिल रही थी। दस रुपये की सवारी से खलासी ने पंद्रह रुपये में डील की। पाँच रुपये डिमांड वाले कैसेट को बजाने के लिए। महेश बाबू ने बाबूजी के पर्चे में दर्ज खर्चे और उसके बजट से केवल गीत सुनने के लिए कुचायकोट तक सवारी ले ली। इसके पहले सायकिल गाँव के नाई अनवर की दुकान पर खड़ी की गयी। गाड़ी चली और चैन पट्टी , बसडीला तक हो हो हो हो के साथ "एक ऐसी लड़की थी चला", सासामुसा तक 'सातों जन्म में तुम्हें' और 'मौका मिलेगा तो हम बता देंगे' निपट गया, आँख मूँदे सपना-अरुण में मगन महेश बाबू ने 'कितना हसीन चेहरा' और 'जो तुम्हें चाहे उसको सताना अच्छी बात नहीं' की शिकवा शिकायतें निपटा कर इहलोक में पुण्य के भागी बने। कैसेट का साइड ए खत्म हुआ, ट्रेकर मुकाम पर आया। खलासी ने उस पाँच रुपये के एवज में अतिरिक्त दरियादिली से उनको एक लौटती गाड़ी में तुरंत ही बिठा दिया। सात्विक मन में ईश्वर बसता है फिर यह यात्रा तो बेहद सात्विक मन से की गई थी सो एक में दो का मजा मिला था। लौटती बारी में एक और 'दिलजले' ड्राइवर की सवारी मिल गयी और वह साइड बी टाइप दीवाना निकला। उसने पूरे रास्ते अताउल्लाह खान को जिया। महेश के सतोगुण का ही असर था कि वापसी में 'ओ दिल तोड़ के हंसती हो मेरा', 'मुझको दफनाकर वो जब' सुनते बंजारी पहुंचें तो सांझ गिर आयी थी। वैसे भी सर्दियों में शाम जल्दी हो जाती है। सो अंधेरा होने लगा था।
महेश बाबू ने तीस रुपये की बलि देकर दिलवाले और बेवफा सनम निपटाई थी। वह सपना था, यह हकीकत था। अब इस वित्तीय घाटे को भी पूरा करना था और जल्दी घर भी पहुँचना था। सो शिवरतन के किराना पर न जाकर उन्होंने वहीं मोड़ पर से एक के बजाय आधा लीटर सरसों तेल लिया तो एक तरफ का हिसाब पूरा हुआ और इसी तरह सरकते हुए मम्मी का पर्चा भी कॉस्ट कटिंग का शिकार हुआ । अब थोड़ा-सा एडजस्ट चक्की वाले से जरती कटवाकर पूरा किया गया। अब दोनों तरफ़ का हिसाब पूरा था।
महेश बाबू को उस रोज यह एहसास हुआ कि बेशक वह गणित में फिसड्डी है पर उनके भीतर एक कुशल वित्त विशेषज्ञ भी बसता है। बाबू साहब घर पहुँचे तो सात बजे के आगे-पीछे डिनर निपटा लेने वाले गंवई पिताजी अपने मित्र के साथ लगभग भोजन निपटा रहे थे। घर में घुसते ही महेश के कलेजे की धड़कन गंवई मेले के खेल 'मौत के कुंए' में दौड़ने वाले आर एक्स हंड्रेड की तरह हो गई थी। पर वह जी कड़ा कर बेलौस घुसे और आए मेहमान से कहा - "चाचाजी प्रणाम।"- पर जवाब बाबूजी ने प्रश्न शैली में दिया - "कोई पकड़ के रख लिया था क्या?" - महेश इसका जवाब देते पर उसी समय माँ रोटी देने आईं तो उनकी ओर देखकर बोले - "एडवांस मैथ वाले महतो सर मिल गए थे, बोले बाजार का सामान घर पहुँचा दो और लौटानी में साइकिल का पहिया पंचर हो गया था। बस! उसी में लेट हो गया।" - मम्मी को इतनी बड़ी समस्याओं में नहीं घुसना था, सो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की भूमिका में आकर कहा - "कोई नहीं जाओ, सब ठीक है, अब हाथ मुँह धोकर खाना खा लो।"-
बात तत्काल प्रभाव से आई-गयी हो गयी। इत्मीनान से खाना खाया गया। मेहमान लौट गए, बाबूजी खाने के बाद सौ-दो सौ कदमों की टहलाई कर चुके थे। महेश बाबू निश्चिन्त थे कि बजट संतुलित ढंग से पेश हो गया है। बाबूजी की आंखों में आधा किलो सरसों तेल और आटा पिसाई का जरती सफलतापूर्वक झोंका जा चुका है। पर वह गीत है ना - 'सुख दुःख दोनों रहते जिसमें जीवन है वह गाँव/कभी धूप तो कभी छाँव' - वह दिलवाले की ख्वाबों वाली दुनिया से अलग और कठोर सच वाली दुनिया का गीत है। हर रात के ख्वाब की सुबह होनी ही है। महेश बाबू पसरने की तैयारी में थे कि छोटी वाली बहन ने मेसेज दिया - 'बाबूजी बुला रहे हैं।'- 'बाबूजी! इस समय?' दिल धड़का - खैर! महेश बाबू ओसारे में पहुँचे। बाबूजी चौकी पर पाँव लटकाए बैठे हुए थे। उन्होंने धीरे से पूछा - "बताए नहीं, लेट काहें हुआ? पंचर से ?? खैर आप रहने दीजिए। आपको हम बताते हैं - पंचर काहे हुआ।"- मन के मुकर्रर वित्त मंत्री जी का बजट झोले से बाहर आ गया था। अब कुछ बाकी न रहा, घर में ऐसा पहली बार हुआ कि विपक्ष बहुमत में आ गया। महेश को उस रोज पता चला माएँ भी पत्थरदिल होती हैं। जबकि सोनू निगम 'माँ का दिल- माँ का दिल' गा-गाकर मन में यह बिठा चुका था कि इससे बढ़कर कोई ...लेकिन यहाँ दिल तो माँ के स्टैंड को देखते हुए कहना चाह रहा था - 'यू टू मम्मी' पर महेश ने अंग्रेजी भी ठीक से नहीं पढ़ी थी।
अब तबाही मची। बिना अतिरिक्त संवाद के मच्छरदानी का बाता साइड से तीन चार पड़ गया। किसी पिटाई में कमेंट्री बाहर से भी होती है यह भी उस रोज मालूम चला जब ब्रूटस बनी माताजी कह रही थी 'अभी ये हाल है तो आगे चलकर तो डाका ही डालेगा यह लड़का। - लेकिन अभी 'दिलवाले' और 'बेवफा सनम' की कीमत इतने भर से नहीं चुकाई जानी थी। ' अभी तो उन्हें और बेइज्जत होना था' । पिताजी ने एक अजीबोगरीब आदेश दिया - 'स्वेटर और शर्ट उतारो'। आदेश का पालन महेश के चौंकने के दौरान ही हुआ। तब तक दूसरी अधिसूचना भी जारी हो गयी - 'बनियान भी'। - ठंड का मौसम और यह सजा। यह तो महेश ने नहीं सोचा था। तब तक तो उसने जैक लण्डन वाला कथा संग्रह 'जिंदगी से प्यार और अन्य कहानियाँ' भी नहीं पढ़ी थी, जिसमें दर्ज एक कहानी का नायक एक रोज साइबेरिया के माइनस वाले टेम्परेचर में गुजरता है। यह साईबेरिया नहीं था पर बिना कपड़ों के वह मौसम साईबेरिया का सबसे छोटा भाई तो कम से कम बना हुआ था। महेश घर के बाहर निकाल दिए गए। वह दुआर पर टूअर-टापर जैसी शक्ल बनाकर राख की कंबल ओढ़ चुके घूरे में चिंगारी तलाशने लगे। इसी क्रम में कनखी से खिड़की की ओर कभी देखते कि कहीं माँ उन्हें केकुरते देख ले। तो अभयदान मिले। मच्छरदानी के बाता का दर्द ठंड से कम जान पड़ रहा था। रात का गहराना चालू था पर 'दिलवाले' का कोई गीत न तो जुबान पर आ रहा था ना गर्मी लेने का कोई उपाय सूझ रहा था। काँख में दोनों हथेलियों को दबाए महेश बाबू लेदी कट्टा मशीन के पास रखे पुआल के ढेर पर बैठ गए। खैर घंटे भर में माँ की ममता जागी और महेश पूस की रात का नायक होने से बचा। तुम बच गए 'हल्कू' वरना उस रोज महेश बाबू द्वारा साहित्य से रिप्लेस हो सकते थे।
महेश ने बाद में एक रोज कहा - "अजय देवगन किसी रोज मिलो तो हम भी बताएंगे कि बेटा देवगन! अकेले केवल तुम ही नहीं हो, जिसने इश्क में जेल काटी थी और जिसे पागलपन का दौरा आया था । इस धरती पर कुछ और भी दिलवाले रहे हैं, जिनकी अपनी एक दुनिया थी और एकतरफा प्यार, तड़प और अज्ञात नायिकाओं के सपने थे। देवगन मियाँ 'होंगे तेरे बड़े चाहने वाले आशिक हमसा कहाँ'।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)