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यादें: वह कहानी, जिसके अंत में शुरुआत थी- 'देखो तुम भी खत मेरा आते ही..."

ऐसा नहीं था कि इस तरह की यह पहली घटना थी पर अब तक किसी ने ऐसा नहीं किया था पर इस गाँव में ऐसा कुछ नहीं हुआ...
यादें: वह कहानी, जिसके अंत में शुरुआत थी- 'देखो तुम भी खत मेरा आते ही...

ऐसा नहीं था कि इस तरह की यह पहली घटना थी पर अब तक किसी ने ऐसा नहीं किया था पर इस गाँव में ऐसा कुछ नहीं हुआ था। राजेश्वर सिंह लउंडा (नचनिया) के घर जाकर बैठ गए हैं। जिउता अपने टोले में हाथ हिला- हिलाकर सबको बता रहा था - "हम उधर से निकले तो क्या देखते हैं कि तस्लीम नचनीयवा साड़ी पहिने राजेश्वर बाबू को चाय दे रहा था। कप में और बाबू साहेब कपवा पकड कर उसका हाथ धर अपने पास बिठा लिए और उसको देखकर गा रहे थे - साथी तेरा प्यार पूजा है, तेरे सिवा कौन मेरा दूज..."- बताओ अपना ना सही गाँव-घर-उम्र का लिहाज करते?"- नयी उम्र के कुछ छोकरे उनकी बातों में रस ले रहे थे पर पुरनिया आधी बात सुन अपने काम में लग गए थे। कुछ बातें बिना पँखों के मुँह-कानों का डैने खोंस चौतरफा घूम जाती हैं और इसमें चक्रवृद्धि ब्याज की दर से और मसाले जोड़ते जाती हैं। जिउता से होता मामला लाला टोला, मियां टोली और बाबू टोले तक नहीं जाती ऐसा संभव था भला! नब्बे साला बीरेंद्र सिंह ने यह सुना तो जांघों तक उठी धोती को थोड़ा और ऊपर सरकाते हुए अपने टोले के युवकों से ठसक से बोले -"शौक शौक की बात है। ठाकुरों, जमींदारों के लिए ये कोई नया काम है जी? हमलोगों को एक नाली, दुनाली दुनू चलता है। असल है बंदूक। असल मर्द है राजेश्वर सिंहवा।"- इसके बाद क्या बचता है। उम्मीद थी, बाबू टोले में ही इस खबर से असल बम फूटेगा पर ये बात यहाँ आते-आते फुस्स!! अब सबसे पुरनिया बीरेंद्र बाबू ही ऐसा कह बैठे।

राजेश्वर सिंह लउंडा नाच के तस्लीम नचनियवा के पीछे परसाल से ही लटपटाये हुए थे। उन्होंने अपने बबुआन के एक बियाह में तस्लीमवा को नाचते देख लिया था। ऐसी लोच, ऐसी अदाएँ और नजाकत से "चूड़ी मजा ना देगी,कंगन मज़ा न देगा", "हम जानते हैं तुम हमें बर्बाद करोगे, दिल फिर भी तुम्हें देते हैं" पर नाचा तो दो साल के विदुर राजेश्वर सिंह का पोर पोर उस पर न्योछावर हो गया । उन्होंने अपना दिल नमरी के साथ तस्लीमवा के आँचर में डाल दिया था और जैसे ही उसने "कितने दिनों के बाद है है आयी सजना रात मिलन की" का पार्ट खेला तो बाबू साहब ने बगल में बैठे साथी रिपुसूदन सिंह की जांघ कचकचाकर दबा दिया। रिपुसूदन ने कराहते हुए कहा -" आराम से रजेसर भाई, सब्र कीजिए। अभी भर रात है।"-
तस्लीम नचनिया चंपारण की ओर का था जो लगन के सीजन में कमाने इधर के एक नाच में आता था। और राजेश्वर सिंह के बगल के गाँव में सीजन भर एक और पार्टी के साथ रहता था। वह देखने में औसतन नचनियों और लउंडो से डेग भर आगे था। बताने वाले यह बताते हैं कि जब वह स्टेज पर अपने पूरे धज में उतरता तो दिव्या भारती को फेल कर देता था। और उसके मटकते कूल्हों को देख मुर्दा उठकर उसका नाच देखने बैठ जाता। इलाके के नचदेखवा सबका दावा था कि दस-बीस कोस तक ऐसा काँच, हड़ाह और कटाह नचनिया कोई नहीं है। वह केवल देखने भर को सुंदर नहीं था बल्कि वह आठवीं पास भी था और उसको नाच के अलावा सोरठी बिरजाभार, सती बिहुला आदि मुँह जबानी याद था। वह ग़ज़ल खेमटा सब गा लेता है। उसके नाच पार्टी का कार्यक्रम उसी के मंगलाचार से होता था। जब वह "नजरिया फेरअ ए हरि/आयिल बानी तोहरी दुअरिया नगरिया ए हरि" गाता तो उसके कंठ से मानो सरस्वती फूटती और जब "तेरी मोहब्बत मेरी जवानी/बनके रहेगी कोई कहानी" पर नाचता तो पूरा जवार आँखें फाड़ें, मुँह खोले केवल उसी को देख रहा होता। वह रूप बदल लेता। ऐसा था तस्लीम, बिना स्नो पाउडर के भी एकदम हीरोइन। आर्केस्ट्रा के जमाने में भी तस्लीम का नाच देखकर बढ़िया से बढ़िया बाई जी पानी भरती थी। फिर विदुर राजेश्वर सिंह उसमें जादू से कैसे बचे रहते। पता नहीं क्यों और किस समय पर उनको उस नचनिये में खुद के जीवन के खालीपन का एक भराव दिखा। उन्होंने रोज सहदुल्लेपुर (पड़ोस वाले गाँव) जाकर उस नचनियाँ के किराये के दरवाजे को खोद मारा। अब यह रोज-रोज का आना था कि उनकी बातों की ईमानदारी तस्लीम के लिए भी राजेश्वर बाबू का दिली करार "कहना ना तुम ये किसी से/आज से , अब से और अभी से/मैं तेरा बस तेरा"- पक्का हो गया था। परसाल से की जा रही मेहनत अब रंग चढ़ी।

वैसे भी नचनिया को कौन इतना मान देता जितना बाबू साहब से मिल रहा था। अब वह लता बनने को चला कि बाबू साहब बरगद बनने आमादा थे यह तो नहीं मालूम पर मामला गंभीर होने लगा था। बाबू साहब बाजार से कभी मीट,कभी मछरी लेकर उसके यहाँ पहुँच जाते और वह भी मन से बनाकर खिलाता भी था। धीरे-धीरे दिल और पेट दोनों एकमत हो चले थे।

राजेश्वर सिंह को तस्लीम नचनिया उनके समय के जिस बिंदु पर मिला था, कुछ योगदान उसका भी था। अब उनके आधे मन को पूरा करने वाला एक संगी मिल गया था। पैसे की कमी न थी। पुश्तैनी जायदाद भी खूब थी पर मन! उसके अभाव का क्या? तस्लीम के यहाँ उनकी रोज की आवक ने उससे एक जुड़ाव तो दे ही दिया था। कहते वाले यह भी कहते हैं कि जिस तरह पासी के बहँगी से टंगा ताड़ी का लबनी डोलता है वैसे ही बाबू साहब, तस्लीमवा के डांर के दाँये बाँये डोलते फिरते।
बाद में, इस आत्मीयता और संगत का रंग थोड़ा और गाढ़ा हुआ तो सिंह साहेब ने उसको अपने गाँव में बसा लिया। उन्होंने गाँव के एक कोने में ही उसका दो कमरे का एसबेस्टस की छत वाला घर बनवाकर दे दिया और उनके पूरे दिन या कहें कि अब देर शाम तक अड्डा वही रहता। अब तस्लीमवा के साटा का दिन होता तो बाबू साहब का दिन घर पर बीतता। घर काम इतनी सफाई से हुआ था कि किसी को पता नहीं चला कि गाँव के सिवान पर इस नचनिये का घर कौन बनवा रहा है। तपेश्वर काका बताते हैं कि 'नचनियवा के साथ उन्होंने एक आदमी भी रखा था जो इस बात पर नजर रखता था कि कोई नाच पार्टी वाला तस्लीमवा से "क्या करते थे साजना/तुम हमसे दूर रहके" गीत पर न नचवावे। वह खालिस उनका गीत था, केवल अपने लिए।"- पर बातें हैं बातों का क्या?

राजेश्वर बाबू की पत्नी तो उम्र के ऐसे मुक़ाम पर यह दुनिया छोड़कर गयी, जिसे ना बुढापा कहा जा सकता था, ना जवानी। बड़े बेटे और दो बेटियों की शादी हो चुकी थी। एक बेटा इन्टर कॉलेज में जा रहा था। पत्नी थी तो उनमें घर के मालिक मुख़्तार का भाव दिए रहती थी पर अब वह तो थीं नहीं और बहू के आने के बाद उनका कमरा, बहू का हुआ था। फिर वह छोटे बेटे के कमरे से होते हुए अब ओसारे की ओर के बाहरी कमरे में शिफ्ट हो गए थे। वह दिन भर कभी चौक पर तो कभी बचपन के दोस्त रिपुसूदन के दुआर पर कितने दिन बैठते? उसके यहाँ उसका ही जीना मुहाल था। अब बिन घरनी घर भूत का डेरा वाली कहावत सौ फीसदी उन पर लागू हो रहा था। बड़ा बेटा कचहरी में ही व्यस्त रहता और छोटे बेटे को अपने संगवारियों से फुरसत न थी। बेटियाँ पहले ही पराया धन हो चुकी थी। अब राजेश्वर बाबू अपनी दुनिया में नितान्त अकेले थे। खेत पहले ही बटाई पर दिए जा चुके थे। रात तो फिर भी रेडियो पर गीतों और बीबीसी को सुनते कट जाती पर दिन लंबे और भयावह था। वह कैसे कटे? दरवाजे पर रोज केवल भर थाली भोजन दे देने से जिम्मेदारी पूरी हो जाती है क्या। उनके बसे बसाए घर में उनकी स्थिति यह थी कि वह 'ना' या 'हाँ' किसी में न थे। किसी निर्णय में भी शामिल न थे। जबकि उनकी किशोरावस्था और जवानी मेहनत के साथ सिनेमा, नाच, नौटंकी के रसगर माहौल में हुआ तैयार हुआ था। अब जिंदगी एक कमरे, दुआर और रेडियो में कैसे कट सकती थी।

ऐसे ही समय में तस्लीम की आवक हुई थी और बीच पानी में डोलती डोंगी को पतवार और मांझी दोनों मिल गए थे। अब तस्लीम गाँव के सिवान पर था। उसके यहाँ रोज आवक का असर था कि उसकी संगत में वह ढोलक, टिमकी, तबला बजाना भी सीख गए। उन दिनों जब-तब शामें तस्लीम की सोहबत में कटने लगी थी। तस्लीम कहता - "कितने दिनों के बाद है आयी सजना रात मिलन की" तो ये भी गुनगुना देते "करवट फेरअ ना बलमुआ तू हमारी ओरिया" और उनके ऐसा कहते तस्लीम नजाकत से चिकोटी काट देता - बै महाराज आप भी न! "नादान जवानी का जमाना गुजर गया/अब आ गया बुढ़ापा सुधर जाना चाहिए"- उसके इतना कहते माहौल में रस भर जाता। पचासे से साठे के बीच में झूलते तन-मन में रोमांच आ जाता। अब वह नियम से हजामत बनवाने और मूँछ रंगवाने लगे थे। बेटे-बहु ने हल्का नोटिस लिया कि इन दिनों बाबूजी घर की ओर बहुत ध्यान नहीं दे रहे, ना खाने की फिक्र ना आने-जाने का कोई तय समय। रोज तैयार होकर कहीं निकलते हैं और खाना नाश्ता एकदम कम कर दिया है फिर भी चेहरे पर चमक है। माजरा समझ नहीं आ रहा था। इन दिनों वह मुस्कुराते भी खूब रहते थे और गुनगुनाते भी खूब थे, रोज नए गीत - बात क्या है?- इधर तस्लीम और बाबू साहब की संगत का रंग और चटख हो रहा था। अब तस्लीम के ओसारे में डेक पर नए फिल्मी गीतों का कैसेट भी बजता था। बाबू साहब ही रिकार्डिंग सेंटर से कैसेट भरवाकर लाते - "ओ हरे दुपट्टे वाली" से "सूनी सूनी अँखियों में जुगनू चमक उठे" और "क्या करते थे साजना तुम हमसे दूर"- सब गीत।

थावे मेला में जब तस्लीमवा स्टेज पर नाच रहा था "तेरी चुनरिया दिल ले गयी" उसी समय मेले के एक दुकान से बाबू साहब ने सलमा सितारों वाली चुनरी उसके लिए खरीदी थी। अब राजेश्वर बाबू के सारे के सारे गीत तस्लीम को समर्पित थे। उनकी दुनिया तस्लीम के ओसारे से चौखट और चौखट से कमरे तक हो बढ़ गयी थी। उधर वह बढ़ रहे थे, इधर बातें। कब तक यह छुपता कि फलां बाबू तस्लीम लउंडवा के डांर (कमर) में अंझुरा गए हैं। पर खुलके बोलने की हिम्मत अभी किसी को नहीं थी। असल दिक्कत तब हुई जब जीन बाबा के ओर के दु बिगहवा की बटाई की हिस्सेदारी तस्लीम के ओसारे रखवाई गयी। बेटे को उसी रोज पता चला कि उसके बाबूजी लउंडा को दु बीघा जमीन बख्शीशनामा में दे दिए हैं। कानों से गुजरती बात इस हद तक जा पहुँची है? अब पानी सर के ऊपर था। वह अपने छोटे भाई के साथ एक रविवार घर की चौहद्दी से निकला और जाकर तस्लीम के देहरी पर खड़ा हो गया। पिताजी ठेका दे रहे थे और तस्लीम "ये दिल आपका है ये घर आपका है" पर सुर मिला रहा था। बेटे ने एक झटके में पास जाकर उनका ढोलक उठाकर जमीन पर पटक दिया और चिल्लाकर बोला -" घर की इज्जत घोलकर पी गए हैं क्या? अब तक लोगों की मुहामुंही सुन रहे थे तो कुछ नहीं कहा कि चलो कोई बात नहीं लेकिन अब साला इस लउंडा के लिए घर लुटाने पर आ गए हैं। आपकी मउगाई में ई हरामी हमलोगों का पटीदार बनने वाला है..."- तभी तस्लीम बीच में आ गया - " बबुआ! आप गलत समझ लिए है। हम पहिलही बाबू साहब को मना किये थे..." तब तक छोटे बेटे ने एक तमाचे से उसकी ज़ुबान बंद कर दी - "तुमको बीच में बोलने को कौन कहा रे मउगा? हट पीछे नहीं तो यहीं काट देंगे...- " बाबूजी से रहा न गया और यह बर्दाश्त करने जैसा था भी नहीं - "अरे रे, हमारी ही पैदाइश हमी को आँख! आंय!! इसको छुआ कैसे रे? तुमलोगों का क्या औकात है जो इसको छुओ..." लेकिन यह नक्कारखाने में तूती का विरोध सिद्ध हुआ। कहने को बुढ़ऊ बीरेंद्र बाबू जो कहें पर रात के अंधेरे और दिन का फर्क ये होता है कि ऐसे मामलों में अपना भी साथ खड़ा नहीं होता। बचपने के साथी रिपुसूदन सिंह भी बेटों की ओर से पैरवी में थे। उस रोज लोकाचार में और बात का बतंगड़ न बने राजेश्वर बाबू घर लौटा लिए गए। उनकी जिंदगी एक कमरा भर तय किया गया। जिस बेटे की पैदाईश में वह पूरे जवार को रात भर भोज कराते रहे, जिसको कंधे पर बिठाकर हर मेला, हर देवी-देवता स्थान घुमाया उसने उस रोज कहा था ' इस कमरे और दुआर से बाहर निकल गए तो दुनू टंगड़ी काट देंगे।'- एक रोज देर रात तक दोनों बेटे बेटियों के तेज-तेज बात करने की आवाज़ आती रही और बीच-बीच में महिला स्वर 'छि छि राम राम' में सुनाई देता रहा। राजेश्वर बाबू जिस कमरे में तय किए गए थे, उस कमरे की खिड़की का एक कान आँगन की ओर खुलता था। उनके सामने मुँह से बाबूजी से कुछ न कहने वाली बहु की तमकदार आवाज़ भीतर आयी - दीदी! अपने भाई से कह दीजिए किसी और को रख लें जो बुढ़ऊ को खाना दे दे। हमसे न होगा। क्या पता ऐसे लक्षण है किसी रोज किसी के साथ बदतमीजी कर दें! हमको कोई मार भी देगा तो हम अब उनकी खाना नहीं परोसेंगे"।

इस घटना को कुछ समय बीते। सब सामान्य हो चला था। लक्ष्मणरेखा तय थी। बस उसके प्रभाव में राजेश्वर बाबू एकाएक बूढ़ने लगने लगे थे। वह अब चुप रहते और रेडियो की बैटरी रेडियो में ही पिघल गयी थी। अब कौन बीबीसी और गीतमाला के गीत सुनें। उनके मन को तस्लीम के गाल पर पड़ा तमाचा रह-रहकर टीस देता था। उनके अपने बेटे ने उसको पीट दिया, यह दृश्य मन से जाता न था। उनको लगता जैसे अपनी चौखट पर बैठा वह मेरे लिए कह रहा होगा "दोस्तों इस जमाने को क्या हो गया/जिसको चाहा वही बेवफा हो गया"...पर सोचने का क्या है। मैं उसके लिए यह भी न कह सका कि 'मैं नहीं बेवफा'।

दिन बीतते रहे, एक रोज सवेरे थाली पीटने की आवाज से उनकी नींद टूटी तो उन्होंने जाना कि वह अब दादा बन गए हैं। दादा ! मूल से सूद प्यारा होता है वह कमरे से निकले तो बेटे की आँखों में एक प्रश्नवाचक चिन्ह तैरता दिखा। मन मसोसकर भीतर लौट गए। इस एक पल में उनको अपनी उम्र और बढ़ती नजर आयी। लेकिन थोड़ी देर बाद छोटी बेटी आकर बोली - "देख लीजिए पोते को और आशीर्वाद दे दीजिए।"-एक पल में सारा दुःख स्वाहा हो गया खुशियाँ सामने थीं। उन्होंने हसरत से एक उंगली से पोते को छूने की कोशिश की, तभी पीछे से छोटे बेटे ने कहा - "बस अपनी तरह बनने का आशीर्वाद न दे दीजिएगा।" - एक क्षण में सारा सुख कपूर हो गया। इस एक वाक्य ने बाबू साहब के कलेजे पर किसी ने मुक्का मार दिया था। जिंदगी जानने के लिए जीना जरूरी नहीं है। अब वह इस जिनमे रोज मर रहे थे और तस्लीम की कोई खबर न मिलती थी।

सिंह परिवार में बड़े दिनों में कोई रौनक आयी थी। अब राजेश्वर सिंह घर में केवल नाम के मुखिया थे। पोते की छठी में सारा गाँव आमंत्रित था। देर रात तक भोज हुआ। अगली सुबह एक लड़के ने घर के चौखट पर आवाज लगाई - "कोई है जी? बाबू साहब"- इन दिनों बाबू साहब को नींद कम ही आती थी सो वही बाहर आए। लड़के ने उनको प्रणाम करके उसने एक लिफाफा थमा दिया। पीछे से बड़ा बेटा भी आ गया था। उसने लिफ़ाफ़ा मिलता देख लिया था। उसने लपककर लिफाफा बाबू साहब के हाथों से लिया। लिफाफे को खोलकर देखा गया तो एक चिट्ठी बाबू साहब के नाम थी। साथ में, दु बिगहवा जमीन के बख्शीशनामे का कागज़ और उस मकान की चाबी भी रखी हुई थी। बेटे ने चिट्ठी खोलकर बाबूजी को सुनाकर तेज आवाज में ही पढ़ा - "बाबू साहब, सलाम, आपसे बहुत मोहब्बत मिली। आपसे पहिले से जिस तरह से लोग मिले कोई इतना इज्जत एहतराम हमको नहीं दिए। हमारा घर में कोई नहीं है। कोई बोला था हमसे कि हमारे घर वालों ने हम जो हुए, जैसे हुए, वैसे ही घर से बाहर कर दिया था। आपने घर दिया। अब हम जा रहे हैं यहाँ रहने का कोई मतलब नहीं है। आपके एहसान और नेह के बदले में कुछ दे भी नहीं सकते। हम दुःखी नहीं हैं अब ऐसे व्यवहार की आदत हो गयी है। हम जा रहे हैं अपना ख्याल रखिएगा।

बाकी आपके जमीन का कागज़, घर की चाभी भेज रहे हैं पोते के लिए मेरा नजराना मानकर रख लीजिएगा। अब हम इधर का लगन नहीं कमाएंगे। अपने यहाँ जा रहे हैं। लेकिन नाच नहीं छोड़ेंगे। उसके बिना हम मर जाएंगे। आपको अल्लाह बहुत खुशी नवाज़े। बस आपके भरवाए कैसेट लेकर जा रहे हैं और एक आपका दिया वही चुनरीऔर दुशाला भी। वही चिन्हासी है अब। अपना ख्याल रखिएगा। पोता को हमरा दोआ, आसीर्बाद
सलाम
तस्लीम"

बेटे ने फुंफकारते हुए जमीन के कागज़, खाली मकान की चाबी रख ली और चिट्ठी को मिचोड़कर उसकी चिन्दी-चिन्दी कर बाबू साहब के पास फेंक दी। पिता वहीं चौकी पर थसमसाकर बैठ गए। इसके अगले दिन सुबह से बाबू साहब कहाँ गए किसी को नहीं पता न बेटे-बेटियों ने ढूँढने की कोशिश की। पूछने वालों को बताया गया कि वह बनारस के किसी आश्रम में चले गए हैं...हर चिट्ठी का जवाब भेजा जा सके यह जरूरी तो नहीं तस्लीम से साथ गाकर कसम खाने की बात अलग थी 'देखो तुम भी खत मेरा, आते ही खत लिखना...'

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

 

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