कहां तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने पहले बजट को पेश करते हुए अलग इतिहास रचा था। दावा था कि हम पुरानी परंपरा तोड़ रहे हैं। बजट अब बही-खाता कहलाएगा। हम नए भारत का निर्माण कर रहे हैं। इस सपने को हम पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाकर पूरा करेंगे। लक्ष्य था हर साल सात फीसदी की विकास दर से आगे बढ़ना। पर लग रहा सपना हकीकत से कोसों दूर है। क्योंकि हम लगभग वहीं पहुंच गए हैं, जहां से मोदी सरकार ने करीब छह साल पहले देश की कमान संभाली थी। जीडीपी के ताजा आंकड़ों के अनुसार ग्रोथ 26 महीने के निचले स्तर पर पहुंच गई है। चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में ग्रोथ 4.5 फीसदी पर आ गई है। इसके पहले 2012-13 की चौथी तिमाही में ग्रोथ रेट 4.3 फीसदी थी।
आंकड़ों से साफ जाहिर है कि जहां हमें 2022-23 तक पांच लाख करोड़ डॉलर की इकोनॉमी बनने के सपने को पूरा करने के लिए 7-8 फीसदी की ग्रोथ रेट हासिल करनी है। वहीं हम लगातार उससे दूर होते जा रहे हैं। बिगड़ती हालत का अंदाजा भले ही वित्त मंत्री जी को पहले से हो लेकिन उसे स्वीकार करने से हमेशा परहेज करती रही हैं। ज्यादा दिनों की बात नहीं है, करीब 100 दिन पहले तक वह यह मानने को तैयार नहीं थीं कि अर्थव्यवस्था में स्लोडाउन है। हालांकि 27 नवंबर को उन्होंने राज्यसभा में यह स्वीकार किया, कि इकोनॉमी में स्लोडाउन है। लेकिन मंदी जैसी स्थिति नहीं है। इस मामले में आउटलुक ने देश के बड़े अर्थशास्त्रियों से जब बात की, तो उनका साफ कहना था कि अर्थव्यवस्था बहुत गंभीर स्थिति में पहुंच गई है। तकनीकी रूप से भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था में मंदी की स्थिति फिलहाल नहीं आ सकती है। क्योंकि ऐसा होने के लिए कम से कम दो तिमाही तक ग्रोथ रेट निगेटिव होनी चाहिए, जिसकी आशंका नहीं है। लेकिन जिस तरह 2017-18 की चौथी तिमाही से लगातार ग्रोथ रेट गिर रही है, वह मंदी जैसी ही स्थिति है। जब तक सरकार इसकी गंभीरता को नहीं स्वीकार करेगी, उस वक्त तक सहीं इलाज नहीं हो पाएगा। हाल ही में सरकार ने जो कदम उठाए हैं, वह बीमारी को पूरी तरह से दूर नहीं कर पाएंगे। अर्थशास्त्रियों ने आरबीआइ की मौद्रिक नीति पर भी सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के गहरे संकट की वजह से सस्ते कर्ज का फायदा केवल बड़ी कंपनियों को मिल रहा है। जबकि अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले छोटे और मझोले उद्योग अभी भी संकट में फंसे हुए हैं। सरकार ने जो कॉरपोरेट टैक्स में कटौती आदि के कदम उठाए हैं, उससे देश की इकोनॉमी की धुरी यानी असंगठित क्षेत्र को फायदा नहीं मिल रहा है। जबकि नोटबंदी और जीएसटी की मार सबसे ज्यादा उसी पर पड़ी थी। रोजगार का संकट भी वहीं पर ज्यादा है। एक अहम बात जो बेहद समझना जरूरी है, कि घटती आय की वजह से लोगों ने अपने खर्च में भी कटौती करनी शुरू कर दी है। जाहिर है ऐसी स्थिति में मांग नहीं बढ़ेगी। सरकार को उनकी जेब में पैसे बढ़ाने के उपाय करने होंगे। ऐसा नहीं हुआ तो स्थिति और बिगड़ेगी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ताजा आंकड़ों पर कहा है “यह स्पष्ट रूप से अस्वीकार्य है। हमारे देश की आकांक्षा 8-9% की दर से बढ़ना है। अर्थव्यवस्था की स्थिति अपने समाज की स्थिति का प्रतिबिंब है। अब विश्वास का हमारा सामाजिक ताना-बाना अब फट गया है।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझना होगा कि उनकी सरकार लोगों की आकांक्षाओं के भरोसे ही आई थी। अब देखना यह है कि वह उस भरोसे को टूटने से कैसे बचाते हैं।