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पलड़े को बराबर करने की कोशिश

अगर सरकार की मंशा सही रही तो अभी पूरी तरह बिल्डरों के पक्ष में झुके जायदाद क्षेत्र में खरीददारों की भी हो सकेगी सुनवाई
पलड़े को बराबर करने की कोशिश

 

 

दिल्ली में आंखों के एक प्रतिष्ठित अस्पताल के वरिष्ठ नेत्र चिकित्सक डॉ. आनंद पिछले कई वर्षों से परेशान हैं। उनकी परेशानी की वजह है दिल्ली एनसीआर क्षेत्र का एक बिल्डर जिसने हरियाणा के भिवाडी में सस्ते दामों पर प्लॉट देने का सपना दिखाकर उनसे 6 लाख रुपये से अधिक वसूल लिए। बाद में पता चला कि उस बिल्डर के पास वहां जमीन ही नहीं है। जाहिर है कि डॉ. आनंद ठगे जा चुके थे। कमाल की बात है कि ठगी करने वाला यह बिल्डर दिल्ली एनसीआर में कई प्रोजेक्ट बना चुका है इसलिए डॉ. आनंद ने उसपर सहज ही भरोसा कर लिया। बाद में पता चला कि इस बिल्डर ने उनकी तरह कई लोगों को धोखा दिया है और हरिद्वार में तो इस तरह की ठगी के कारण उसे गिरफ्तार भी किया गया। थक हार कर डॉ. आनंद ने इस बिल्डर के खिलाफ दिल्ली पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराई क्योंकि बिल्डर कंपनी का मुख्यालय दिल्ली में ही है। इस शिकायत पर पुलिस ने जांच करने की बात कही मगर कई महीने बीत जाने के बावजूद बिल्डर के खिलाफ प्राथमिकी तक दर्ज नहीं की गई है।

देश के रीयल एस्टेट (जायदाद) क्षेत्र में इस प्रकार ठगे जाने और फिर पुलिस तथा अदालतों के चक्कर लगाने वाले डॉ. आनंद पहले व्यक्ति नहीं है बल्कि हकीकत तो यह है कि ऐसे हजारों लोग हैं जो रीयल एस्टेट क्षेत्र को बदनाम करने वाली कंपनियों के शिकार बने हैं। उपभोक्ताओं तथा कारोबारियों के बीच सारी जिंदगी की जमापूंजी दांव पर लगाने वाले संबंध के बावजूद इस क्षेत्र की निगरानी के लिए देश में कोई नियामक तंत्र मौजूद नहीं है। अगर प्रॉपर्टी डेवेलपर कोई गड़बड़ी करता है तो उसके खिलाफ प्रभावी कार्रवाई करवाने में उपभोक्ता लाचार हो जाता है। बिना पर्याप्त राशि पास में हुए सिर्फ मकान खरीदने वालों के पैसे के भरोसे डेवेलपर नई परियोजना शुरू कर देते हैं और बाद में इस परियोजना के लिए जमा हुए पैसे के भरोसे दूसरी जगह परियोजना आरंभ करते हैं। इसके कारण पहली परियोजना नकदी के अभाव में वर्षों लटकी रह जाती है और जो उपभोक्ता पैसे लगा चुके होते हैं वे मारे-मारे फिरते हैं। वैसे भी इस सेक्टर को देश का सबसे असंगठित क्षेत्र माना जाता है और इसके लिए एक नियामक के गठन की जरूरत लंबे समय से महसूस की जाती रही है। इसी वजह से अगस्त, 2013 में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की आवास एवं शहरी गरीबी उपशमन मंत्री गिरिजा व्यास ने रीयल एस्टेट (नियमन एवं विकास) विधेयक, 2013 को राज्यसभा में पेश किया। हालांकि पेश करने के तुरंत बाद इसे शहरी विकास से संबंधित संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया ताकि समिति इसकी समीक्षा कर अपने सुझाव दे सके।

भूमि अधिग्रहण कानून और भोजन का अधिकार कानून की ही तरह इस विधेयक को भी उस समय राहुल गांधी के ड्रीम विधेयकों की श्रेणी में रखा गया था। संप्रग सरकार ने इस विधेयक को तैयार करने में राज्यों, विशेषज्ञों और इससे प्रभावित होने वाले सभी पक्षों से गहन विचार-विमर्श किया था और इसके आधार पर केंद्रीय कैबिनेट ने इसे मंजूरी दी थी मगर एक वर्ष बीत जाने और देश में नई सरकार आ जाने के बावजूद इस दिशा में कुछ खास काम नहीं हुआ है। देश के नए आवास एवं शहरी गरीबी उपशमन मंत्री एम. वेंकैया नायडू का कहना है कि सरकार इस विधेयक की समीक्षा करेगी और इस विधेयक के बारे में बिल्डरों एवं निजी क्षेत्र की चिंताओं को सुना जाएगा और इसमें शामिल किया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि पिछली सरकार द्वारा तैयार विधेयक में जो खामियां हैं सरकार उन्हें दूर कर इसे संसद में पेश करेगी। हालांकि नायडू ने इस विधेयक को पारित कराने के लिए कोई समय सीमा तय करने से भी इनकार कर दिया मगर उनके मंत्रालय के सूत्र बताते हैं कि संसद के अगले सत्र में ही इस विधेयक को सरकार पेश करने की कोशिश कर रही है।

पिछली सरकार द्वारा तैयार विधेयक के कई प्रावधानों पर बिल्डर लॉबी की गहरी आपत्ति है। पहला प्रावधान तो यह है कि देश के हर निजी बिल्डर को इसके तहत रीयल एस्टेट नियामक के पास अपना रजिस्ट्रेशन करवाना अनिवार्य होगा। दूसरा प्रावधान यह है कि सभी सरकारी विभागों से जरूरी अनुमति मिलने के बाद ही कोई नई परियोजना उपभोक्ताओं के लिए आरंभ की जा सकेगी। तीसरा प्रावधान यह है कि हर परियोजना में वित्तीय लेनदेन की सारी जानकारी नियामक को देनी होगी और किसी एक परियोजना में जुटाई गई कुल राशि का 70 फीसदी हिस्सा उस परियोजना के पूर्ण होने तक बिल्डर किसी दूसरी योजना में नहीं लगा सकते। अगर कोई बिल्डर संपत्ति खरीद समझौते की शर्तों का उल्लंघन करता है तो उसपर कड़ा जुर्माना लगाने का प्रावधान भी इस विधेयक में शामिल किया गया है। देश के रीयल इस्टेट डेवेलपर्स के राष्ट्रीय संगठन क्रेडाई के एक बड़े अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि सरकार के इस कदम से पहले से ही मंदी की मार झेल रहे रीयल इस्टेट क्षेत्र की कमर टूट जाएगी। सबसे पहला असर तो इस विधेयक का यह होगा कि नए और छोटे डेवेलपर इस क्षेत्र में कदम ही नहीं रख पाएंगे क्योंकि उनका सारा समय सरकारी महकमों से जरूरी अनुमतियां हासिल करने में ही निकल जाएगा। जो बड़े डेवेलपर हैं उनके लिए ये अनुमतियां हासिल करना कदरन आसान होगा। जाहिर है कि इससे इस सेक्टर में प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जाएगी। दूसरी बात परियोजना की 70 फीसदी राशि को ब्लॉक कर देने से संबंधित है। किसी परियोजना की कुल लागत का 70 फीसदी उस परियोजना के लिए रिजर्व रखने का प्रावधान तो समझ में आता है लेकिन परियोजना के तहत जुटाई गई कुल राशि का 70 फीसदी ब्लॉक करना समझ से परे है। इससे तो नई परियोजनाओं को शुरू करने की प्रक्रिया ही थम जाएगी। इस अधिकारी ने यह भी कहा कि 1933 से लेकर 2003 तक पूरी दुनिया में विकास में सबसे बड़ी भागीदारी आवासीय क्षेत्र की रही है मगर यदि इस विधेयक को इसी तरह पारित किया गया तो भारत में रीयल एस्टेट क्षेत्र की कमर टूट जाएगी। बिहार, झारखंड, दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में कई आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी कर चुके बिहार के एक बड़े बिल्डर भी यही सारे तर्क सामने रखते हैं। उनका साफ कहना है कि सरकार को इस बारे में कोई भी कदम उठाने से पहले बिल्डरों के पक्ष पर जरूर ध्यान देना चाहिए।

बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में आवासीय परियोजनाएं बनाने वाले मध्यम दर्जे के बिल्डर प्रशांत कुमार आउटलुक से बातचीत में कहते हैं कि नया कानून उनके जैसे खिलाडि़यों को बाजार से बाहर कर देगा। प्रशांत पटना में कई मकान अबतक बनाकर बेच चुके हैं। उनका कहना है कि नियामक के गठन के बाद हर वित्तीय लेन-देन की जानकारी उसे देनी होगी। सुनने में तो यह प्रावधान अच्छा लगता है मगर हकीकत यही है कि इससे भ्रष्टाचार को और बढ़ावा मिलने का रास्ता खुल जाएगा। बिल्डर मकान के खरीददारों को काला धन में भुगतान के लिए प्रेरित करेंगे जिससे स्थिति और खराब हो जाएगी।

हालांकि इनके तर्क से उपभोक्ता सहमत नहीं हैं। दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा (वेस्ट) के एक बड़े बिल्डर सुपरटेक के प्रोजेक्ट में घर खरीदने वाले राकेश कुमार बताते हैं कि आवासीय परियोजनाओं के देर होने की वजह ही यही है कि बिल्डर एक परियोजना का सारा पैसा निकालकर दूसरी, तीसरी परियोजनाओं में लगा देते हैं। नतीजा यह होता है कि कोई भी परियोजना समय पर पूरी नहीं हो पाती। राकेश का साफ कहना है कि बिल्डर एक परियोजना पूरी करने के बाद आराम से दूसरी परियोजना शुरू कर सकते हैं। राकेश यह भी कहते हैं कि रीयल एस्टेट क्षेत्र के लिए नियामक का होना जरूरी है ताकि उपभोक्ता अपनी शिकायत लेकर वहां जा सकें। अभी तो यह सेक्टर पूरी तरह बिल्डरों के पक्ष में झुका हुआ है। कई बिल्डर अब बाजार के दबाव में इस बात के लिए राजी होने लगे हैं कि अगर परियोजना में अस्वाभाविक देरी हुई तो वे उपभोक्ताओं को हर्जाना देंगे। मगर हकीकत यह है कि पहले तो बिल्डरों द्वारा यही तर्क दिया जाता है कि देरी बाजारीय या प्राकृतिक वजहों से हुई इसलिए वे जुर्माना देने के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। अगर कोई कोई बिल्डर जुर्माना देने के लिए तैयार हो भी जाए तो रकम इतनी कम होती है कि उससे उपभोक्ता को कोई लाभ नहीं होता। राकेश का साफ कहना है कि उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा और इस सेक्टर को नियमित करने की जरूरत को देखते हुए रीयल एस्टेट विधेयक को जल्द से जल्द कानूनी रूप दिया जाना चाहिए।

 

विधेयक की खास बातें

-इस विधेयक में अपार्टमेंट, कॉमन एरिया, कारपेट एरिया, विज्ञापन, रीयल एस्टेट प्रोजेक्, प्रोस्पेक्टस आदि को परिभाषित किया गया है ताकि इस ÿæð˜æ ·¤æ SßSÍ ¥õÚU ·ý¤×Õh çß·¤æâ ãUæð â·ð¤

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कानून

 

पलड़े को बराबर करने की कोशिश

 

अभी पूरी तरह बिल्डरों के पक्ष में झुके जायदाद क्षेत्र में खरीददारों की भी हो सकेगी सुनवाई

 

सुमन कुमार

दिल्ली में आंखों के एक प्रतिष्ठित अस्पताल के वरिष्ठ नेत्र चिकित्सक डॉ. आनंद पिछले कई वर्षों से परेशान हैं। उनकी परेशानी की वजह है दिल्ली एनसीआर क्षेत्र का एक बिल्डर जिसने हरियाणा के भिवाडी में सस्ते दामों पर प्लॉट देने का सपना दिखाकर उनसे 6 लाख रुपये से अधिक वसूल लिए। बाद में पता चला कि उस बिल्डर के पास वहां जमीन ही नहीं है। जाहिर है कि डॉ. आनंद ठगे जा चुके थे। कमाल की बात है कि ठगी करने वाला यह बिल्डर दिल्ली एनसीआर में कई प्रोजेक्ट बना चुका है इसलिए डॉ. आनंद ने उसपर सहज ही भरोसा कर लिया। बाद में पता चला कि इस बिल्डर ने उनकी तरह कई लोगों को धोखा दिया है और हरिद्वार में तो इस तरह की ठगी के कारण उसे गिरफ्तार भी किया गया। थक हार कर डॉ. आनंद ने इस बिल्डर के खिलाफ दिल्ली पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराई क्योंकि बिल्डर कंपनी का मुख्यालय दिल्ली में ही है। इस शिकायत पर पुलिस ने जांच करने की बात कही मगर कई महीने बीत जाने के बावजूद बिल्डर के खिलाफ प्राथमिकी तक दर्ज नहीं की गई है।

देश के रीयल एस्टेट (जायदाद) क्षेत्र में इस प्रकार ठगे जाने और फिर पुलिस तथा अदालतों के चक्कर लगाने वाले डॉ. आनंद पहले व्यक्ति नहीं है बल्कि हकीकत तो यह है कि ऐसे हजारों लोग हैं जो रीयल एस्टेट क्षेत्र को बदनाम करने वाली कंपनियों के शिकार बने हैं। उपभोक्ताओं तथा कारोबारियों के बीच सारी जिंदगी की जमापूंजी दांव पर लगाने वाले संबंध के बावजूद इस क्षेत्र की निगरानी के लिए देश में कोई नियामक तंत्र मौजूद नहीं है। अगर प्रॉपर्टी डेवेलपर कोई गड़बड़ी करता है तो उसके खिलाफ प्रभावी कार्रवाई करवाने में उपभोक्ता लाचार हो जाता है। बिना पर्याप्त राशि पास में हुए सिर्फ मकान खरीदने वालों के पैसे के भरोसे डेवेलपर नई परियोजना शुरू कर देते हैं और बाद में इस परियोजना के लिए जमा हुए पैसे के भरोसे दूसरी जगह परियोजना आरंभ करते हैं। इसके कारण पहली परियोजना नकदी के अभाव में वर्षों लटकी रह जाती है और जो उपभोक्ता पैसे लगा चुके होते हैं वे मारे-मारे फिरते हैं। वैसे भी इस सेक्टर को देश का सबसे असंगठित क्षेत्र माना जाता है और इसके लिए एक नियामक के गठन की जरूरत लंबे समय से महसूस की जाती रही है। इसी वजह से अगस्त, 2013 में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की आवास एवं शहरी गरीबी उपशमन मंत्री गिरिजा व्यास ने रीयल एस्टेट (नियमन एवं विकास) विधेयक, 2013 को राज्यसभा में पेश किया। हालांकि पेश करने के तुरंत बाद इसे शहरी विकास से संबंधित संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया ताकि समिति इसकी समीक्षा कर अपने सुझाव दे सके

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