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इंटरव्यू । ‘मैं और कपिल शर्मा अलग दुनिया से आते हैं’: नंदिता दास

अभिनेत्री से निर्देशक बनीं नंदिता दास का नाम भारतीय सिनेमा में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में लिया...
इंटरव्यू । ‘मैं और कपिल शर्मा अलग दुनिया से आते हैं’: नंदिता दास

अभिनेत्री से निर्देशक बनीं नंदिता दास का नाम भारतीय सिनेमा में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में लिया जाता है। एक प्रभावशाली अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचान बनाते हुए उन्होंने एक संवेदनशील निर्देशक तक की यात्रा तय की है। वे उन चुनिंदा कलाकारों में हैं, जिन्होंने मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, मणिरत्नम और अडूर गोपालकृष्णन जैसे महान फिल्मकारों से लेकर अमिताभ बच्चन, सौमित्र चटर्जी, ममूटी, संजय दत्त और आमिर खान जैसे अभिनेताओं के साथ भी स्क्रीन शेयर की है। नंदिता दास लीक से हटकर बनी फिल्मों के लिए जानी जाती हैं। उनकी आगामी फिल्म ज्विगाटो भी एक ऐसा ही सार्थक प्रयास है। इसमें देश के मशहूर स्टैंड-अप कॉमेडियन कपिल शर्मा मुख्य भूमिका में हैं, नंदिता दास ने गिरिधर झा से अपनी आगामी फिल्म, अपने फिल्मी सफर और कपिल शर्मा के बारे में बातचीत की। साक्षात्कार के मुख्य अंश:

आपकी फिल्म ज्विगाटो बहुत चर्चा में है। अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में फिल्म ने शानदार प्रदर्शन किया है। अब जब फिल्म 17 मार्च को रिलीज होने जा रही है, फिल्म को लेकर किस तरह की उत्सुकता है?

मैंने हमेशा ही परिणाम से अधिक प्रक्रिया को महत्व दिया है। लेकिन यह भी सत्य है कि फिल्म की निर्देशक होने के कारण आपका ध्यान फिल्म के परिणाम पर भी होता है। फिल्म को लेकर जिस तरह के रुझान अभी तक सामने आए हैं, वह उत्साह बढ़ाने वाले हैं। हर दर्शक को फिल्म से कुछ अलग सीखने को मिलेगा। मुझे खुशी है कि ज्विगाटो की शुरुआत टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव से हुई। मैंने टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में ही अपनी फिल्म फायर (1996)और फिराक (2008) से बतौर एक्टर और निर्देशक शुरुआत की थी। इसके बाद बुसान अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव और इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ केरल में भी ज्विगाटो को बेहतरीन समर्थन मिला है। ज्विगाटो की कहानी भारतीय पृष्ठभूमि की है, बावजूद इसके अंतरराष्ट्रीय दर्शक भी इससे जुड़ रहे हैं। यह सुखद है। मेरे फिल्म निर्माण का उद्देश्य यही होता है कि वह जरूरी बात जो मैं कहना चाहती हूं, वह अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे। मैं ज्विगाटो की रिलीज को लेकर बेहद उत्साहित हूं।

फिल्म ऐसे फूड डिलीवरी बॉय के जीवन पर आधारित है, जो कोविड के दौरान नौकरी खो देता है, आपको इस विषय पर फिल्म बनाने का विचार कब आया?

इसकी शुरुआत मित्र समीर पाटिल से बढ़ती बेरोजगारी पर एक चर्चा से हुई। कोविड के दौरान हम डिलीवरी बॉय पर अत्यधिक निर्भर हो गए थे। लेकिन हम उनकी समस्याओं से अनभिज्ञ थे। यह स्थिति हमें सोचने पर मजबूर कर रही थी। हम इस बात को आगे बढ़ाकर एक शॉर्ट फिल्म की कहानी लिखने लगे थे। तभी अप्लॉज एंटरटेनमेंट के सीईओ समीर नायर ने मुझे कहानी को विस्तार देने और एक फीचर फिल्म के रूप में कहानी कहने का सुझाव दिया। उनके सुझाव पर जब मैंने कहानी को विस्तार देना शुरू किया तो धीरे-धीरे गहरे उतरती चली गई। मैंने उन जटिलताओं को समझा और महसूस किया, जिसमें तकनीक विकसित होने से एक सामान्य आदमी उलझ जाता है। फिल्म उसी आम आदमी के जीवन के छोटे से छोटे बिंदु को रेखांकित करती है। इस तरह की फिल्में कम ही बनती हैं, जो शहर में मेहनत करने, संघर्ष करने वाले कामगारों के जीवन पर आधारित होती है। ज्विगाटो भी संघर्ष की ऐसी ही दास्तां है, जिसमें उम्मीद भी है।

कपिल शर्मा फिल्म के सरप्राइज पैकेज हैं। यह फिल्म और किरदार उनकी छवि से विपरीत है, आपने उन्हें अपनी फिल्म के लिए क्यों चुना? क्या उन्होंने सहजता से फिल्म स्वीकार की?

मैं छह वर्षों से टीवी से दूर हूं इसलिए मैंने कपिल की कोई भी प्रस्तुति नहीं देखी थी। लेकिन कास्टिंग के दौरान, मैंने कपिल शर्मा और करण जौहर की एक वीडियो देखी, जिसमें दोनों किसी अवॉर्ड फंक्शन में हंसी-मजाक कर रहे थे। मुझे कपिल का अंदाज सच्चा, सरल, सहज और स्वाभाविक लगा। फिर मैंने कपिल के टीवी शो के कुछ और वीडियो देखे। उन्हें देखकर मुझे यह लगा कि कपिल ज्विगाटो के लिए सबसे अच्छी पसंद रहेंगे। मैं नहीं जानती थी कि कपिल फिल्म का हिस्सा बनना चाहेंगे या नहीं। मैं सीधा कपिल के पास पहुंची और हमारी पहली मुलाकात के बाद ही यह तय हो चुका था कि हम साथ काम करने वाले हैं। इसके बाद की कई मुलाकात और रिहर्सल्स से हम समझ चुके थे कि कुछ बहुत विशेष और शानदार तैयार होने जा रहा है।

जहां एक तरफ आप संवेदनशील फिल्में बनाने के लिए जानी जाती हैं, वहीं दूसरी तरफ कपिल की छवि हास्य कलाकार की है, क्या इसे बेमेल जोड़ीनहीं कहा जाएगा?

हम सभी की यह आदत है कि किसी के बारे में बहुत कम जानकारी होने के बावजूद हम उसे किसी खास दायरे, दृष्टिकोण में कैद कर देते हैं। यह सत्य है कि हम दोनों बिल्कुल अलग दुनिया से आते हैं। ज्विगाटो का प्रोजेक्ट नहीं होता तो शायद हम कभी नहीं मिलते। मैं कपिल से मिली तो वे आश्चर्य से भर उठे कि किस तरह मैं उनके पास इस विषय की स्क्रिप्ट लेकर आई हूं। आश्चर्य की बात यह भी थी कि कपिल ने मेरी फिल्म फिराक और मंटो (2018) देखी थी। हमने जीवन को लेकर बातें की। हमें अच्छा लगा कि अलग तरह का काम करने के बावजूद, हम दोनों काम को लेकर समर्पित हैं। मुझे ऐसा लगता है कि दर्शकों को यह जोड़ी पसंद आएगी। फिल्म में परिस्थितिजन्य हास्य है लेकिन अन्य भावनाएं भी हैं। मैं चाहती हूं कि दर्शक खुले दिमाग के साथ इस फिल्म को देखें। कपिल के लिए यह हर तरह से नया बदलाव था। टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में यह देखना दिलचस्प था कि सब दर्शक कपिल से हास्य भूमिका की उम्मीद कर रहे थे और कपिल ने बिल्कुल ही अलग रंग पेश किया।

अभिनेता के तौर पर आप कपिल शर्मा को किस तरह आंकती हैं?

बहुत से लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि कपिल शर्मा ने टीवी की दुनिया में कदम रखने से पहले काफी समय तक थियेटर किया था। कपिल हमें अमृतसर की नाट्यशाला में भी ले गए, जहां से उन्होंने अभिनय का सफर शुरू किया था। कपिल ने हमें अपने मेंटर से मिलवाया। इस मुलाकात से हमें महसूस हुआ कि कपिल जमीन से जुड़े हुए व्यक्ति हैं। यह गुण अभिनेता के तौर पर उनकी मदद करता है। कपिल बहुत समर्पण के साथ काम करने वाले कलाकार हैं और यही कारण है कि मैंने उन्हें अपनी फिल्म में कास्ट किया।

ज्विगाटो पिछली फिल्म फिराक और मंटो से किस तरह भिन्न है?

मैं उन कहानियों को कहना पसंद करती हूं, जो मेरे भीतर की चिंताओं को व्यक्त करती हैं, जो हमारे समय की दस्तावेज हैं। फिराक और मंटो का ऐतिहासिक महत्व था। वे उसी उद्देश्य से बनाई गई थीं। ज्विगाटो आज की कहानी है। इसमें फूड डिलीवरी बॉय के जीवन के चार दिनों को दर्शाया गया है कि वे चार दिन कितने चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं। यह मेरी तीसरी फिल्म है और मुझे उम्मीद है कि मैं आने वाले वर्षों में कई फिल्में बनाऊंगी। मगर सभी फिल्मों का केंद्रीय लक्ष्य आत्म संतुष्टि और आत्म अभिव्यक्ति ही होगा।

आपने फिल्म फिराक से अपने निर्देशन सफर की शुरुआत की लेकिन दूसरी फिल्म मंटो बनाने में आपको एक दशक का समय लगा, इतनी देरी का क्या कारण रहा?

अभिनय, लेखन, निर्देशन, निर्माण यह सभी मेरे जीवन में आहिस्ता-आहिस्ता आए। मैंने केवल अपनी अंतरात्मा को सुना और जीवन अनुभवों को समृद्ध होने दिया। मेरे भीतर एक बेचैनी है। बेचैनी अपने भीतर की भावनाओं को अभिव्यक्त करने की। मगर मैं किसी भी क्षेत्र में तकनीकी रूप से प्रशिक्षित नहीं हूं। इसलिए मुझे लिखने में समय लगता है। मैं कई बार एक ही कहानी को लिखती हूं। मैं फिराक के बाद कई और प्रोजेक्ट में भी व्यस्त रही थी। इस दौरान मेरे जीवन में मातृत्व सुख भी आया। इससे दूसरी फिल्म के निर्माण में विलंब हुआ। लेकिन अब मैंने निर्देशन के क्षेत्र में कमर कस ली है, इसलिए अब मेरी फिल्मों में देरी नहीं हुआ करेगी। मेरी रुचि विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने की है। मेरा संकल्प है कि मैं निरंतर हर क्षेत्र में सक्रिय रहूं और अपने दायित्व का निर्वहन करूंगी।

आपकी फिल्म मंटो को समीक्षकों और दर्शकों से जिस तरह की प्रतिक्रिया मिली है, क्या आप उससे खुश हैं?

मंटो मेरे लिए बहुत खास फिल्म थी। मैंने उसके निर्माण में छह साल खर्च किए थे। आज भी मैं जहां जाती हूं, लोग मुझसे मंटो का जिक्र करते हैं, मेरा सम्मान मंटो के हवाले से करते हैं। मेरे लिए मंटो कोई सामान्य फिल्म नहीं है बल्कि मंटोइयत का जश्न है। मंटोइयत से मेरा तात्पर्य ईमानदार, साहसी और स्वतंत्र सोच है। मुझे महसूस हुआ है कि लोगों ने मंटोइयत को ग्रहण किया है। आज क्लास रूम में देश के बंटवारे से जुड़े साहित्य पढ़ाते हुए, फिल्म मंटो का सहारा लिया जा रहा है। मैं मानती हूं कि समय ही कला की गुणवत्ता का मानक है। समय ही बताएगा कि मंटो किस लायक है और किस लायक नहीं।

25 साल पहले आपने दीपा मेहता की फिल्म फायर में काम किया जिसने एलजीबीटी रिश्तों को नई आवाज तो दी, लेकिन एक तूफान खड़ा कर दिया था। आज इस विषय पर कई फिल्में बन रही हैं लेकिन कहीं कोई विवाद या हैरानी नहीं होती। इस संदर्भ में आप हिंदी सिनेमा और भारतीय दर्शकों के विकास को किस तरह देखती हैं?

हम जानते थे कि फायर कॉन्ट्रोवर्शियल होगी, जिससे कई लोगों की भौहें तन जाएंगी। कुछ लोगों ने फायर को साहसिक कदम बताया और हमारी तारीफ की। कुछ ने हमारी आलोचना की और कहा कि इस फिल्म से सब लड़कियां लेस्बियन हो जाएंगी। सेंसर बोर्ड ने फिल्म को बिना एक भी कट के पास कर दिया। मैं नहीं जानती कि सेंसर बोर्ड की यह स्थिति आज है या नहीं। फायर के बाद भी कुछ एलजीबीटी रिश्तों पर फिल्में बनी हैं, जिन्हें लोगों के समर्थन और विरोध का सामना करना पड़ा है। मगर उनकी संख्या उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिए। इसके अलावा जिस संवेदनशील तरीके से एलजीबीटी रिश्तों पर फिल्म बनानी चाहिए, उस तरह से गिनी-चुनी फिल्में ही बनी हैं। यह जरूर है कि समाज में जागरूकता पैदा हुई है, जिसका असर समाज में देखा जा सकता है।

आप एक समय कलाकारों के साथ होने वाले रंगभेद के खिलाफ आंदोलन में शामिल थीं। क्या आज बड़ी हिंदी कमर्शियल फिल्म की कास्टिंग के दौरान भी रंगभेद के मामले आते हैं या बदलाव आया है?

कमर्शियल सिनेमा का मूल उद्देश्य है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा जाए। जब समाज खुद ही रंगभेद को बढ़ावा देने वाला है, गोरे रंग को लेकर समाज के मन में विशेष रुचि है तो फिर हिंदी सिनेमा भी उससे अछूता कैसे रह सकता है। इसलिए आज भी हिंदी सिनेमा में गोरे रंग के प्रति आकर्षण व्याप्त है। लेकिन यह जरूर है कि फिल्म, वेब सीरीज, विज्ञापन, मैगजीन समाज में फैली कुरीति, रूढ़िवादी सोच को बदलने का काम कर सकते हैं और बदलाव की राह प्रशस्त की जा सकती है। हिंदी सिनेमा में आपका रंग गोरा नहीं है तो आपको ग्रामीण महिला, झुग्गी झोपड़ी निवासी का ही किरदार निभाने के लिए मिलता है। गोरे रंग की महिला को ही प्रभावशाली किरदार निभाने का मौका मिलता है। हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम बदलाव की मुहिम को आगे बढ़ाएं। कोई किसी को कुछ भी करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। जब तक हम खुद उदाहरण नहीं पेश करते, कोई भी असर समाज पर नहीं होगा।

आपने एक समय पर अमिताभ बच्चन, संजय दत्त, आमिर खान के साथ फिल्मों में काम किया मगर फिर सब छोड़कर उन विषयों पर काम शुरू किया, जो आपके दिल के करीब थे। इसकी प्रेरणा कैसे मिली?

ये सभी लोग हिंदी सिनेमा के प्रतिभावान कलाकार हैं और मेरा सौभाग्य है कि मैं उनके साथ स्क्रीन साझा कर सकी। उनके अलावा सौमित्र चटर्जी और ममूटी जैसे क्षेत्रीय सिनेमा के भी ऐसे कई महान कलाकार हैं, जिनके साथ काम करना मेरा सौभाग्य था। मगर मैं कोई भी फिल्म सह-कलाकार या भाषा देखकर नहीं चुनती। मेरे लिए स्क्रिप्ट और किरदार ही सब कुछ है। मैं इसी बुनियाद पर फिल्म का चुनाव करती हूं। मजबूत कहानियों और किरदार के आधार पर ही मैंने अपने करियर की उन फिल्मों को साइन किया, जो दर्शकों को संवेदनशील और असरदार मालूम होती हैं।

आपने श्याम बेनेगल, मणिरत्नम से लेकर अडूर गोपालकृष्णन और दीपा मेहता के साथ काम किया है। क्या उनके काम से प्रभावित होकर ही आपने फिल्मकार बनने का निर्णय लिया?

यह सच है कि मैंने श्याम बेनेगल, मणिरत्नम, गोविंद निहलाणी, दीपा मेहता, मृणाल सेन जैसे फिल्मकारों के साथ काम किया है, जिनकी मैं हमेशा से मुरीद रही। मैंने उनके साथ काम करते हुए बहुत कुछ सीखा है। लेकिन सबसे बड़ी सीख मुझे यही हासिल हुई कि फिल्म मेकिंग में कोई नियम नहीं होते हैं। मुझे ऐसा महसूस होता है कि यदि आप सभी से सीख कर, आत्मसात कर अपने भीतर की प्रतिभा को अभिव्यक्त करते हैं, तो एक नयापन नजर आता है। मैंने जो जीवन में अनुभव हासिल किए हैं, जिन लोगों से मुलाकात की है, उन्हीं के आधार पर मैंने फिल्में बनाई हैं। मेरी फिल्म निर्माण की प्रक्रिया उन्हीं अनुभवों से समृद्ध हुई है।

क्या हिंदी सिनेमा आज आर्ट सिनेमा के कलाकारों को बड़ा मंच प्रदान कर रहा है? क्या इसके लिए ओटीटी प्लेटफॉर्म जिम्मेदार है?

यह सत्य है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म ने फिल्म देखने के तरीके को बदल दिया है। लेकिन हर तकनीक की तरह ही ओटीटी प्लेटफॉर्म के कुछ फायदे और कुछ नुकसान हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म के कारण आज लेखक, निर्देशक, अभिनेता के पास काम के अधिक अवसर हैं। आज फिल्म की पहुंच बढ़ गई है। फिल्में आज भाषा, प्रांत का दायरा पार कर चुकी हैं। इंडिपेंडेंट फिल्म बनाना तो आज आसान हो चुका है लेकिन सत्य यह भी है कि फिल्म रिलीज करना, फिल्म वितरण कार्य आज भी कठिन है। पैसे की कमी के कारण, आर्ट सिनेमा वाले निर्देशकों को समझौता करना पड़ता है। सच कहा जाए तो आज आर्ट सिनेमा खत्म-सा हो गया है।

क्या इसका कारण छोटे बजट की फिल्मों को मल्टीप्लेक्स में उचित स्क्रीन्स नहीं मिल पाना है?

हर अच्छी फिल्म को एक बड़ी ऑडियंस तो मिलनी ही चाहिए। मगर जो फिल्म मेरे लिए अच्छी है, वह किसी दूसरे के लिए बोरिंग हो सकती है। इसलिए हम फिल्म के कॉमर्स को नजरअंदाज नहीं कर सकते। फिल्म निर्माताओं को तो आर्थिक लाभ ही चाहिए होता है। इसलिए जब तक निर्माता, निर्देशक, मल्टीप्लेक्स मालिक और दर्शक नहीं चाहेंगे, तब तक छोटे बजट की फिल्मों को बड़ा स्पेस नहीं मिल पाएगा। यह दुखद है कि फिल्म मेकिंग जैसा माध्यम आर्थिक स्थिति की भेंट चढ़ जाता है। मुझे उम्मीद है कि किसी दिन मल्टीप्लेक्स इंडिपेंडेंट फिल्मों को उचित स्क्रीन जरूर देंगे। बाकी सकारात्मक पक्ष यह है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म के आगमन से छोटे बजट की फिल्मों की मल्टीप्लेक्स पर निर्भरता कम हो गई है। इस तरह छोटे बजट की फिल्मों और क्षेत्रीय सिनेमा को मंच मिल रहा है।

ज्विगाटो के बाद बतौर निर्देशक एवं एक्टर आपका कौन सा प्रोजेक्ट दर्शकों के बीच आएगा?

अब मैं निर्देशन के क्षेत्र में निर्भीक हो चुकी हूं इसलिए ज्विगाटो के बाद मैं अपनी अगली फिल्म शुरू करने जा रही हूं। हालांकि इस फिल्म का कार्य अभी शुरुआती दौर में है। इस फिल्म पर मैं पूरी ऊर्जा के साथ तभी काम करूंगी, जब ज्विगाटो पूर्ण रूप से दर्शकों तक पहुंच जाएगी। फिलहाल मैं एक्टिंग के मामले में बहुत सीमित हो गई हूं। मजबूत किरदार और स्क्रिप्ट मेरे सामने आती है तो मैं जरूर अभिनय करना चाहूंगी। कोविड के बाद से मैंने ज्यादा प्लान करना छोड़ दिया है। मैं जीवन के रोमांच और अनिश्चितता का आनंद लेना चाहती हूं।

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