हाल में संपन्न बिहार विधान परिषद के स्थानीय प्राधिकार कोटे की सभी 24 सीटों के चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा-जदयू गठबंधन भले 13 सीटों पर कब्जा जमाने में सफल रहा, लेकिन गरमागरम सियासी चर्चा तो राजद नेता तेजस्वी प्रसाद यादव के नए सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग की ही है। इन चुनावों में भाजपा को सात, जदयू को पांच, पशुपति कुमार पारस ग्रुप के रालोजपा को एक सीट पर जीत मिली जबकि एनडीए के पास पहले इन 24 में से 21 सीटें थीं। विपक्षी राजद, जिसके पास इनमें से सिर्फ दो सीटें थीं, को इस बार छह और कांग्रेस को एक सीट पर विजय मिली। चार सीटों में निर्दलीयों ने जीत हासिल की।
इस बार तेजस्वी ने पांच भूमिहार उम्मीदवारों को टिकट दिया, जिनमें तीन विजयी हुए। कुल मिलाकर, राजद ने कुल 24 में 10 सवर्ण उम्मीदवार उतारे, जिनमें पांच भूमिहारों के अलावा चार राजपूत और एक ब्राह्मण था।
राजद के इतिहास में यह पहला मौका था जब पार्टी ने 40 फीसदी सीटों पर अगड़ी जाति के उम्मीदवारों को खड़ा किया था। सियासी गलियारों में इसे तेजस्वी का नया ‘भूमाय’ (भूमिहार-मुस्लिम-यादव) समीकरण कहा जा रहा है।
गौरतलब है कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने बिहार में संयुक्त रूप से लगभग 30 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम-यादव (माय) समीकरण के बल पर पंद्रह वर्षों तक अपनी सत्ता चलाई थी, लेकिन 2005 में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके लिए माय समीकरण असरदार साबित नहीं हुआ। इसका एक प्रमुख कारण राज्य में सवर्ण जातियों का जदयू-भाजपा गठबंधन का भरपूर समर्थन भी रहा है। इसलिए, तेजस्वी अब सभी जातियों को साथ लेकर चलने की बात कह रहे हैं और सोची-समझी रणनीति के तहत इस चुनाव में उन्होंने 40 प्रतिशत सवर्ण उम्मीदवारों को टिकट दिया।
पिछले तीस वर्षों से भूमिहार लालू के सबसे बड़े विरोधी रहे हैं और एनडीए की जीत में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। तो, क्या भूमिहार वोटर भविष्य में राजद को समर्थन दे सकते हैं? यह बड़ा सवाल है।
इस चुनाव में राजद के छह प्रत्याशियों ने सफलता पाई, जिनमें तीन भूमिहारों के अलावा एक राजपूत उम्मीदवार भी शामिल है। यह भी दिलचस्प है कि राजद में माय समीकरण को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया और नौ यादव और एक मुस्लिम को भी टिकट दिया, लेकिन उनमें जीत सिर्फ एक यादव उम्मीदवार की ही हुई। सियासी जानकार इसे तेजस्वी की नया राजनीतिक ताना-बाना बुनने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं, हालांकि एनडीए के नेता इन परिणामों का अगले लोकसभा या विधानसभा चुनाव पर किसी तरह के असर की संभावना से इनकार कर रहे हैं। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह कहते हैं कि लालू का सवर्णों के खिलाफ “भूरा बाल साफ करो” का नारा भले ही पुराना पड़ गया हो पर लोग उसे भूले नहीं हैं। उनका कहना है कि जिनका राजद से कोई निजी स्वार्थ सध रहा हो, वे ही उस ओर जाएंगे, चाहे वे किसी भी जाति के क्यों न हों।
राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि पहले ऊपरी सदन में राजद एमएलसी की संख्या चार थी और अब बढ़ कर छह हो गई। जाहिर है, वोट प्रतिशत भी बढ़ा और संख्या भी। वे आगे कहते हैं कि आधुनिक राजनीति में प्रयोग हमेशा होते रहते हैं। खासकर, गहरी जाति फीलिंग वाले राज्य बिहार में कई उपजातियां भी हैं। ऐसे में कास्ट इक्वेशन और एलायंस से तो इनकार किया ही नहीं जा सकता।
जटिल जातिगत बुनावट वाले राज्य बिहार में राजद के पार्टी की राजनीतिक परंपरा से अलग हट कर सवर्ण जातियों में खासकर भूमिहारों को अधिक टिकट देने से अगले संसदीय चुनाव के समीकरण पर चर्चाएं शुरू हो गई हैं। तेजस्वी कहते हैं, “मैं नया हूं और नया बिहार बनाना चाहता हूं, जिसमें जात-पांत बहुत मायने नहीं रखती।” लेकिन समाज और राजनीति में गहरी रुचि रखने वाले जानकार इसे राजनीतिक स्टंट से अधिक कुछ नहीं मानते। उनका मानना है कि राजपूतों के राजद से बिदकने के कारण तेजस्वी ने भूमिहार कार्ड खेला है। एम-वाय तो पहले से ही था अब जुगाड़ में ‘भू’ को जोड़ने के लिए नया फार्मूला टिकट देकर फिट करने की जुगत में लग गए हैं। बहरहाल, तेजस्वी के नए प्रयोग का बिहार की सियासत पर क्या असर पड़ता है, यह तो अगले चुनाव में ही पता चलेगा।