“इकहत्तर बरस के हो चुके नीतीश क्या एक बार प्रधानमंत्री बनने की दिली ख्वाहिश को पूरा करने की जल्दबाजी में हैं?”
अवसरवाद या आपद् धर्म जैसे शब्द मौजूदा दौर में अंतरात्मा की आवाज या आया राम गया राम जैसे मुहावरों की तरह ही अर्थ खो चुके हैं। यहां तक कि बिहार के सदाबहार तथा ‘हरदलमुफीद’ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए ‘पलटू राम’ जैसे शब्द भी उस तरह चस्पां नहीं हो पा रहे, जैसे 2017 में राष्ट्रीय जनता दल (राजद)-कांग्रेस-वामदलों के ‘महागठबंधन’ से अलग होकर वापस भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए में शामिल होने पर हुए थे। वजह कोई अबूझ पहेली भी नहीं है क्योंकि 2014 से ही दूसरे दलों और उनके नेताओं को तोड़कर अपने विस्तार और सत्ता में काबिज होने के लिए कुछ भी करने को तैयार भाजपा का मुंह 2019 के बाद सुरसा जैसा फैल गया। तो, क्या अब भाजपा से तौबा करके महागठबंधन के शिखर पर चढ़ जाना नीतीश के लिए अस्तित्व रक्षा का आपद् धर्म है? या कई हलकों में जैसी चर्चा है, 71 बरस के हो चुके नीतीश एक बार प्रधानमंत्री बनने की दिली ख्वाहिश को पूरा करने की जल्दबाजी में हैं? आखिर 2024 के लोकसभा चुनावों में अब बीसेक महीने ही बचे हैं। गणित बेहद उलझा हुआ है, मगर राजनीति फुटबॉल या क्रिकेट या कहिए हर खेल की तरह अनिश्चय और अकूत संभावनाओं का खेल है। तो, आइए इसके कुछ विस्तार की चर्चा करें।
बिहार के सियासी घटनाक्रम में किंतु-परंतु कई तरह के हैं और गुत्थियां सुलझाना आसान तो कतई नहीं दिखता। मसलन, नरेंद्र मोदी और उनकी टोली के तौर-तरीकों के लगभग ऐसे ही एहसास से 2013 में एनडीए छोड़ने और 2015 में महागठबंधन की जीत के बाद नीतीश देश भर में सभी भाजपा विरोधियों को जोड़ने और पुराने जनता दल कुनबे को समेटने निकल पड़े थे। कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा से लेकर हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को एक मंच पर लाने की उनकी कोशिशें बेमानी साबित हुई थीं। इससे नीतीश का दिल ऐसा टूटा कि वे मोदी को ‘मोटा भाई’ मानने को तैयार हो गए। तो, फिर से उस कोशिश की कामयाबी की संभावना कितनी हो सकती है?
स्थितियां हालांकि काफी बदली हैं और चढ़ती महंगाई, बेरोजगारी की वजह से भाजपा से मोहभंग भी भारी है। अब विपक्ष में वह जोश-जज्बा भी नहीं दिखता जो 2019 के पहले तक दिख रहा था। ऐसे में क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि बिहार की चिंगारी से विपक्ष की राख में वैसी ही ज्वाला धधकने लगेगी,जैसी 1974 में जेपी आंदोलन ने जलाई थी? लेकिन कोई जयप्रकाश है कहां, जिसका कद पुश्त भर ऊंचा हो और पद-सत्ता की लालसा से जो दूर हो!
फिर भी संसदीय चुनावों के गणित चौंका सकते हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। पहले चुनाव विज्ञानी रहे और अब किसान आंदोलन में सक्रिय स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव इस गणित का एक अलग हिसाब बताते हैं। वे देश के चुनावी नक्शे को तीन पट्टियों में बांटते हैं। एक, पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक फॆले देश के तटीय इलाके के साथ पंजाब और कश्मीर को मिला दें तो लोकसभा की इन 190 सीटों में पिछली बार भाजपा को सिर्फ 36 सीटें और साथी दलों के साथ 42 सीटें मिली थीं। इनमें बंगाल से 18 सीटें थीं, जो राज्य की मौजूदा राजनीति के मद्देनजर अगले चुनाव में घटकर इकाई अंक में आ सकती हैं। ओडिशा में भी सीटें घट सकती हैं। दूसरे, भाजपा के लिए सबसे मजबूत उत्तर-पश्चिम का इलाका है जिसमें हिंदी पट्टी के राज्य शामिल हैं। इसमें बिहार और झारखंड को हटाकर अगर गुजरात को जोड़ दें तो यहां कुल 203 सीटों में उसे 182 सीटें मिली थीं, जिसमें तीन सीटें सहयोगी दलों की थीं। यहां हरियाणा, हिमाचल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस या क्षेत्रीय पार्टियों ने थोड़ा भी दम लगाया तो भाजपा की सीटें घट सकती हैं। तीसरी और आखिरी मध्यवर्ती पट्टी है जिसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र, झारखंड और बिहार हैं (इसमें पूर्वोत्तर के राज्यों को भी जोड़ लें)। इसमें भाजपा को 88 और साथियों के साथ 130 सीटें मिली थीं। इसमें शिवसेना को 18, जदयू को 16, लोजपा को छह सीटें मिली थी। अब यही गठजोड़ गड़बड़ा गया है। इस गणना से योगेंद्र यादव के कयास के मुताबिक कुल 530 में से भाजपा को 235 से ज्यादा सीटें मिलती नहीं दिखतीं, बशर्ते हालात आज जैसे बने रहते हैं।
सत्ता और सियासतः पटना के राजभवन में शपथ-ग्रहण के बाद तेजस्वी और नीतीश कुमार
बेशक, यह दलील दी जा सकती है कि सत्ता और धन की अकूत ताकत और विरोधियों को कंगाल करने के लिए तमाम केंद्रीय एजेंसियों तथा संवैधानिक संस्थाओं के कथित ‘दुरुपयोग’ के बावजूद चुनावी गणित भाजपा को कमजोर कर सकती है, जैसा कि लगातार राज्यों के चुनावों में दिखा है और हाल में उत्तर प्रदेश में भी दिखा जहां इसी साल हुए चुनावों में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के गठजोड़ को भाजपा के 3 करोड़ 80 लाख वोटों के मुकाबले 3 करोड़ वोट मिल गए थे। शायद राज्य में भाजपा के हाथ सत्ता नहीं होती तो नतीजे कुछ और भी हो सकते थे। यह भी वजह है कि भाजपा हर राज्य में येन-केन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज होना चाहती है। बिहार में हालांकि सत्ता उसकी विरोधी हो गई है। तो, क्या नीतीश और तेजस्वी यादव अपनी सत्ता इतना मजबूत कर पाएंगे कि भाजपा को उसके पुराने यानी 2010 के स्तर पर पहुंचा सकें? यकीनन, इसके लिए उन्हें दस लाख नौकरियों और बीस लाख रोजगार देने के अपने वादे पर खरा उतरना होगा, जिसे पटना के गांधी मैदान की रैली में 15 अगस्त को नीतीश ने दोहराया, लेकिन क्या राज्य का खजाना इसकी इजाजत देता है?
दरअसल भाजपा का 2014 के पहले कुल वोट आधार 14-15 प्रतिशत हुआ करता था और उसमें भी नीतीश के समीकरणों का योगदान था। 2014 में पार्टी का वोट प्रतिशत 25 प्रतिशत तक पहुंचा और कमोबेेश वह कायम रहा। इसे मोदी का असर भी कह सकते हैं और जदयू वगैरह के साथ होने से कुछ अतिपिछड़ी जातियों में पैठ का मामला भी हो सकता है। वैसे, 2014 में भाजपा को रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी का सहयोग हासिल था, लेकिन पिछले कुछ चुनावों में राजद (तकरीबन 22 प्रतिशत), जदयू (20 प्रतिशत), कांग्रेस (7.5 प्रतिशत) और वामदलों (करीब 13 प्रतिशत) की वोट हिस्सेदारी बरकरार रही तो भाजपा के लिए अपने कुछ छोटे-मोटे सहयोगियों के साथ भी मैदान मुश्किल हो जा सकता है। उसका घोषित मकसद कुल 243 सीटों में से 200 पर निशाना साधना है। अब बिना बैसाखी के अपने पैरों पर खड़े होने के मौके से प्रदेश भाजपा के कुछ नेता खुश भी बताए जाते हैं, लेकिन जगह-जगह नीतीश के “धोखे” के खिलाफ धरने पर बैठे नेता यही कयास लगा रहे हैं कि रोजगार और कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर मौजूदा सरकार फेल हो जाएगी। तो, दावा उम्मीद पर ही टिका लगता है।
इसके अलावा, नीतीश के अलग होने और फटाफट नई सरकार बनाने के दावे के पहले दिन यानी 9 अगस्त को रविशंकर प्रसाद जैसे नेताओं से मामला नहीं संभला तो बियावान में धकेल दिए गए सुशील कुमार मोदी को आगे लाया गया। सुशील मोदी ने यह चेतावनी देने में भी देर नहीं की कि “तेजस्वी वगैरह के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले (आइआरसीटीसी मामला) की सीबीआइ जांच आगे बढ़ चुकी है“, लेकिन तेजस्वी कहते हैं कि “डराओ और खरीदो की राजनीति यहां नहीं चल सकती। सीबीआइ, ईडी जैसी एजेंसियां चाहे तो मेरे घर में दफ्तर बना लें।“
यानी भाजपा में वह उत्साह नहीं दिख रहा, जो हाल में पटना में 30-31 जुलाई को भाजपा के प्रमुख संगठनों की कार्यकारिणी की बैठक में दिखा था। उसमें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा पहुंचे थे। नड्डा शायद उत्साह भरने के लिए यह ऐलान कर बैठे कि “आने वाले वर्षों में सभी क्षेत्रीय दल समाप्त हो जाएंगे, सिर्फ भाजपा ही बची रह जाएगी।“ कथित तौर पर यही आखिरी कील साबित हुआ। राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कहा कि “इससे तो हमारी पार्टी में टूट कराने के षड्यंत्र की आशंका की पुष्टि हुई।“ तेजस्वी ने कहा, “क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म करने का मतलब विपक्ष को खत्म करना और विपक्ष को खत्म करने का मतलब लोकतंत्र को खत्म करना है। लोकतंत्र की जननी बिहार को भला यह कहां बर्दाश्त होगा।“
यह कहना भी सही नहीं हो सकता कि यह अचानक हुआ है क्योंकि 16 अगस्त को मंत्रिमंडल का गठन जितनी सहजता से हुआ, वह लंबे विचार-विमर्श के बिना असंभव-सा लगता है। यह भी कयास उतना दमदार साबित नहीं हुआ कि नीतीश सब कुछ राजद के मत्थे डालने की कोशिश करेंगे ताकि आगे हर आरोप से बरी रहें। उन्होंने गृह विभाग अपने पास ही रखा और वित्त भी जदयू के खाते में ही है। दरअसल केंद्र में आरसीपी सिंह को मंत्री बनाने और अरुणाचल प्रदेश में जदयू के छह विधायकों को भाजपा में शामिल करने के साथ ही यह सिलसिला शुरू हो गया था।
बहरहाल, अब देखना है कि आगे सियासत किस करवट बैठती है। यह तो कोई नहीं कह सकता कि मोदी-शाह की जोड़ी चुप बैठी रहेगी। तो, आगे और दिलचस्प घटनाक्रम देखने-सुनने को तैयार रहिए।