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केंद्र और राज्यों में नया महाभारत- मोदी के सामने नई चुनौतियां

आजाद भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा मंजर कम ही दिखा होगा कि केंद्र के साथ राज्यों के टकराव एक नहीं, कई...
केंद्र और राज्यों में नया महाभारत- मोदी के सामने नई चुनौतियां

आजाद भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा मंजर कम ही दिखा होगा कि केंद्र के साथ राज्यों के टकराव एक नहीं, कई कानूनों, प्रक्रियाओं और संसाधनों के बंटवारे पर उठ खड़े हुए हैं। बड़ी बात यह है कि राज्यों का विरोध नए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), 2019 और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) तथा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) जैसी पहल को लेकर ही नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) के नए स्वरूप तथा दखलंदाजी और यहां तक कि बजट आवंटन को लेकर भी है। अलबत्ता देशव्यापी एनआरसी और एनपीआर में नई जानकारियों के संबंध में सरकार ने फिलहाल कदम पीछे खींच लिए हैं, लेकिन पिछले झारखंड के चुनावों और मौजूदा दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा के तीखे प्रचार अभियान पर गौर करें तो ऐसा लगता है कि भाजपा इस टकराव को अपने सियासी हक में इस्तेमाल करना चाहती है। ऐसे में, यह सवाल चिंताजनक हद तक घुमड़ने लगा है कि क्या मौजूदा केंद्र-राज्य टकराव भीषण सियासी घमासान का रूप ले सकता है और संघीय व्यवस्था में अत्यधिक केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों के खिलाफ नई मुहिम का आगाज कर सकता है? क्या सुप्रीम कोर्ट को हमारी संघीय व्यवस्था की संवैधानिकता की नई व्याख्या करनी पड़ सकती है?

इस टकराव के अक्स संसद के बजट सत्र में लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में दिख रहे हैं। कांग्रेस सहित विपक्ष न सिर्फ सीएए को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताकर राज्यों से संबंधित नियमों के तहत फिर से बहस के लिए अड़ा दिखा, बल्कि कई दिनों तक हंगामा ही बरपा रहा। इसमें भाजपा के कुछ नेताओं की राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और सीएए को लेकर देशव्यापी प्रदर्शनों के खिलाफ टिप्पणियों वगैरह ने आग में घी का काम किया। शायद इन प्रदर्शनों की आंच देखकर ही 4 फरवरी को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में कहा, “देशव्यापी एनआरसी पर अभी सरकार में कोई बात नहीं हुई है और एनपीआर अपडेट करने की प्रक्रिया में कोई दस्तावेज दिखाने को नहीं कहा जाएगा। सीएए 10 जनवरी 2020 को अधिसूचित हो चुका है पर उसके नियम बनने तक उस पर कुछ होने नहीं जा रहा है। उसके बाद ही जिन्हें नागरिकता चाहिए, उन्हें आवेदन करना पड़ेगा।” उन्होंने असम के डिटेंशन सेंटरों पर भी सफाई दी कि कुछ नया नहीं हुआ है और न नए नागरिकता कानून के तहत वहां से किसी की रिहाई हुई है। यही नहीं, इस बार राष्ट्रपति के बजट सत्र के अभिभाषण में भी एनआरसी का जिक्र नहीं था, जबकि पिछले साल जुलाई के अभिभाषण में था। ये बातें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी 22 दिसंबर 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान की रैली में कह चुके हैं। लेकिन विपक्ष और दूसरे लोगों की शंकाएं इस पर हैं कि एनआरसी अभी नहीं तो कब? क्योंकि गृह मंत्री अमित शाह संसद में सीएए की बहस के दौरान और रैलियों में यह “क्रोनोलॉजी” बता चुके हैं कि सीएए के बाद एनपीआर और एनआरसी की बारी है।

टकराव के मोर्चेः संसाधन आवंटन

वैसे, सरकार के कदम पीछे खींचने के संसद में हालिया बयान से ही टकराव थम जाएगा, इसकी गुंजाइश कम है। आखिर टकराव के और भी मुद्दे बदस्तूर कायम हैं। 1 फरवरी को बजट पेश होने के बाद केरल के वित्त मंत्री डॉ. थॉमस आइजाक ने कहा, “यह बजट हमारे राज्य के खिलाफ युद्ध का विगुल बजाने जैसा है। अब तक के इतिहास में केरल के लिए इतना कम आवंटन कभी नहीं हुआ।” इसमें अगर 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों में राज्‍यों की हिस्सेदारी घटने और जीएसटी की बकाया रकम को जोड़ लें तो यह कितना बड़ा मुद्दा बन सकता है, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। पहले ही जीएसटी काउंसिल की बैठक में गरमगरमी हो चुकी है और अगली बैठक में इसकी गुंजाइश है। राज्यों के संसाधन घट रहे हैं, इससे यह टकराव बेशक बड़ा बनने जा रहा है।

एनआइए दखलंदाजी

इस बड़े मुद्दे के अलावा केरल और पंजाब की सीएए के खिलाफ अर्जियां संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत पहले ही सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुकी है। यह अनुच्छेद केंद्र-राज्य संबंधों की व्याख्या करता है। छत्तीसगढ़ सरकार एनआइए के नए प्रावधानों के खिलाफ सर्वोच्च अदालत में जा चुकी, जिसकी दलील है कि एनआइए कानून में 2018 में किए संशोधन राज्य-अधिकारों के खिलाफ हैं। एनआइए को लेकर महाराष्ट्र में एक नया अध्याय खुल गया है। हाल में वहां शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गठबंधन सरकार ने भीमा-कोरेगांव मामले की समीक्षा की पहल शुरू की तो फौरन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने उसे एनआइए को सौंप दिया, जिसमें कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हिंसा भड़काने और राजद्रोह के आरोप मढ़े गए हैं। इस पर राज्य सरकार की ओर से तीखा बयान आया। राकांपा प्रमुख शरद पवार ने कहा, “कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है इसलिए राज्य के अधिकारों में दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।” शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा, “हम कानूनी सलाह ले रहे हैं।”

ऐसे में, सवाल यह भी है कि क्या मौजूदा विवाद के मद्देनजर केंद्र-राज्य संबंधों की नए सिरे से व्याख्या की दरकार होगी? जैसा कि प्रखर बौद्धिक, राजनीति शास्‍त्री प्रताप भानु मेहता कहते हैं, “हमारी संघीय व्यवस्था पर नए सिरे से विचार की जरूरत है, क्योंकि केंद्र सुरक्षा या अन्य कारणों से राज्यों पर हावी होता जा रहा है और उनके अधिकारों में दखलंदाजी बढ़ रही है। इसका एक रूप सर्वसत्तावादी सोच है, तो दूसरे पूंजीवादी व्यवस्था की जरूरतें भी हो सकती हैं। फिलहाल जो दिख रहा है, उससे तो सत्तर और अस्सी के दशक में केंद्र की बढ़ती शक्तियों के खिलाफ विपक्षी हलकों से उठी मांग याद आ जाती है, जिसमें सबसे तीखा अकाली दल का आनंदपुर साहिब प्रस्ताव था।” राज्यों को अधिक अधिकारों की उस मांग से पहले आइए देखें, मौजूदा केंद्र-राज्य टकराव की बानगी कैसे खुली।

सीएए-एनआरसी विवाद

टकराव की मौजूदा गंभीरता इससे भी समझी जा सकती है कि फिलहाल छह विधानसभाओं केरल, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ में सीएए को असंवैधानिक करार देने वाले प्रस्ताव पारित हो चुके हैं। इस कतार में झारखंड की विधानसभा में भी प्रस्ताव आ सकता है क्योंकि दूसरी विपक्षी पार्टियों के साथ कांग्रेस नेतृत्व ने सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ मुहिम छेड़ दी है। महाराष्ट्र जैसी विधानसभाओं से भले प्रस्ताव पारित न हुआ हो लेकिन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ऐलान कर चुके हैं कि उनके राज्य में एनआरसी लागू नहीं होगी। उप-मुख्यमंत्री अजीत पवार ने कहा, “जिन राज्यों ने प्रस्ताव पास किया है, वे एक पार्टी शासित हैं। हमारे मुख्यमंत्री ने कहा है कि सीएए और एनआरसी से राज्य में किसी को परेशानी नहीं होने वाली है।” राज्य के गृह मंत्री, राकांपा नेता अनिल देशमुख ने मुंबई में कई दिनों से जारी धरनाकारियों को लिखित में आश्वासन दिया कि महाराष्ट्र में सीएए और एनआरसी से न घबराइए और जिन्हें इन मामलों में पुलिस ने हिरासत में लिया है, उन्हें रिहा कर दिया जाएगा।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो इसके खिलाफ लंबे समय से मुहिम चलाई हुए है और उन्होंने ऐलान किया है, “राज्य में सीएए, एनआरसी और एनपीआर तो उनकी लाश पर ही लागू हो पाएगा।” एनडीए के सहयोगी जदयू नेता, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कह चुके हैं, “एनआरसी उनके राज्य में लागू नहीं होगी और जहां तक सीएए की बात है तो उस पर बहस हो सकती है।” ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भी कहा, “एनआरसी की कोई दरकार नहीं है।” तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव भी सीएए, एनपीआर और एनआरसी का विरोध कर चुके हैं। इस तरह 13 राज्य केंद्र की नागरिकता संबंधी मुहिम की मुखालफत में खड़े हैं। यही नहीं, एनडीए के सहयोगी अकाली दल, अगप भी इसका विरोध कर रहे हैं, जो संसद में सीएए के पक्ष में वोट कर चुके हैं। इसके बरक्स भाजपाशासित गुजरात और हरियाणा ने सीएए के समर्थन में विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया है।

लेकिन टकराव टालने के संकेत और भी दिखे हैं। मसलन, हाल के दौर में केरल में सीएए के खिलाफ प्रस्ताव पर तीखा बयान देने वाले राज्यपाल ने विधानसभा सत्र की शुरुआत में अपने अभिभाषण में राज्य के प्रस्ताव का जिक्र किया। हालांकि, पहले वे इससे इनकार कर चुके थे, लेकिन बाद में कहा कि उन्होंने मुख्यमंत्री का सम्मान किया। दरअसल, केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन सीएए-एनआरसी विरोधी अभियान के एक तरह से अगुआ रहे हैं और सबसे पहले वहीं की विधानसभा में लगभग सर्वसम्मति से सीएए विरोधी प्रस्ताव पारित हुआ। वहां पहली दफा केंद्र के खिलाफ चिर प्रतिद्वंद्वी वाम लोकतांत्रिक मोर्चा और कांग्रेस की अगुआई वाला संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा एक मंच पर आए। हालांकि केरल के ही एक सम्मेलन में कांग्रेस नेता, सुप्रीम कोर्ट के वकील कपिल सिब्बल कह बैठे कि “संसद में पास कानून को लागू करने से राज्य इनकार नहीं कर सकते।” लेकिन कांग्रेस की ओर से फौरन खंडन आया कि सीएए जैसे असंवैधानिक कानून का विरोध करने का राज्यों को हक है और इसका पुरजोर विरोध जारी रहेगा। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा, “भाजपा की सरकार और उसके राज्यपालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत राज्यों का संघ है। स्थापित संसदीय परंपरा के अनुसार राज्य केंद्र से असहमत हो सकते हैं और उसे अनुच्छेद 131 के तहत चुनौती दे सकते हैं।” बाद में कपिल सिब्बल ने भी सफाई दी कि “राज्य संसद में पास कानून पर तब तक अमल नहीं कर सकते, जब तक सुप्रीम कोर्ट उसकी संवैधानिकता पर मुहर न लगा दे।”

सुप्रीम कोर्ट पर नजर

यही वह पेच है जिस पर सुप्रीम कोर्ट भी सवालों के घेरे में है। सुप्रीम कोर्ट में सीएए के खिलाफ 13 दिसंबर को सीएए के राज्यसभा से पारित होने के बाद एक ही हफ्ते में करीब 60 याचिकाएं आ गईं। उस पर सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अगुआई में तीन सदस्यीय बेंच ने अगली तारीख 22 जनवरी की लगा दी। तब तक तकरीबन 150 याचिकाएं अदालत में पहुंच गईं। इस पर केंद्र को जवाब देने का महीने भर का और समय दे दिया गया और हाइकोर्टों में लगाई गई तमाम याचिकाओं की सुनवाई पर रोक लगा दी गई। हालांकि प्रधान न्यायाधीश सीएए को संवैधानिक घोषित करने संबंधी एक याचिका पर यह कहकर नाराजगी जता चुके हैं कि “वे पहली दफा ऐसी याचिका देख रहे हैं कि संसद में पारित किसी कानून को संवैधानिक घोषित कर दिया जाए।” फिर भी सुप्रीम कोर्ट के रवैए पर बौद्धिकों के एक बड़े वर्ग में असंतोष है। प्रताप भानु मेहता कहते हैं, “जब देश भर में लोग कई तरह की आशंकाओं के साथ सड़कों पर उतर आए हैं और संविधान की रक्षा का अद्‍भुत नजारा पेश कर रहे हैं, तो न्यायपालिका का पहला काम तो यही होना चाहिए था कि तत्काल उन्हें आश्वस्त किया जाए।” वे आगे कहते हैं, “प्रधान न्यायाधीश को हिंसा रुकने तक विचार न करने के बदले यह कहना चाहिए था कि हम फिलहाल स्टे करके आश्वस्त करते हैं। न्यायपालिका ही आखिरी राहत का स्रोत होती है।”

न्यायपालिका पर कश्मीर के मामले में भी सवाल उठे हैं कि बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस) जैसी याचिकाओं पर सुनवाई टाली गई, जबकि न्याय सिद्धांत में याचिकाएं एसओएस की तरह होती हैं, ताकि राज्य या सरकार की बेरहमी से लोगों के मूल अधिकारों की रक्षा हो सके। हालांकि, केंद्र-राज्य टकरावों के मामले में सुप्रीम कोर्ट के कई मशहूर फैसलों ने राज्यों के हक में नजीर कायम की है। इनमें सबसे प्रमुख एस.आर. बोम्मई बनाम केंद्र मामला है, जिसमें अनुच्छेद 356 के तहत केंद्र के अधिकारों पर कई तरह के अंकुश लगाए गए थे। राज्यपालों की नियुक्ति पर भी राज्य से सलाह लेने की बात की गई थी। लेकिन इन सभी प्रक्रियाओं पर हाल के दौर में अमल होते कम ही देखा गया है। कई राज्यों की शिकायत के बावजूद राज्यपालों की नियुक्ति की जाती रही है। खासकर बंगाल में राज्य सरकार और राज्यपालों के बीच कई तरह के टकराव दिखे हैं।

ऐसा रहा है टकराव का इतिहास

दरअसल, इसके पहले केंद्र-राज्य टकराव ज्यादातर सरकारों के गठन में राज्यपालों की भूमिका को लेकर ही रहे हैं। इसकी शुरुआत भी आजादी के बाद पहले चुनावों से ही हो गई थी। 1952 में मद्रास राज्य में कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट और किसान मजदूर पार्टी के मोर्चे ने बहुमत पा लिया। लेकिन राज्यपाल ने उसके नेता टी. प्रकाशम पंतुलु को सरकार बनाने का न्योता देने के बदले सबसे बड़े दल कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए बुलाया। लेकिन यह प्रक्रिया 1957 और 1965 में केरल में, फिर 1971 में बंगाल में, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में 1982 में नहीं अपनाई गई। 1983 में तेलुगु देशम के नेता रामा राव के मामले में भी राज्यपाल की भूमिका पर बवाल उठा। इन्हीं विवादों के मद्देनजर 1983 में सरकारिया आयोग का भी गठन हुआ, जिसने केंद्र-राज्य संबंधों पर अपनी विस्तृत सिफारिशें कीं। इसमें राज्यपाल की नियुक्ति न सिर्फ राज्य की सहमति के आधार पर करने, बल्कि उनका कार्यकाल भी पांच साल का तय करने की सिफारिशें हैं। इन सिफारिशों में यह भी है कि राज्यपाल केंद्र के एजेंट की तरह नहीं, राज्य के पदेन प्रमुख की तरह व्यवहार करें और राज्य सरकार की हर सलाह उन्हें माननी चाहिए।

दरअसल, विपक्ष यानी तब गैर-कांग्रेस विपक्ष लंबे समय से केंद्र की शक्तियों पर अंकुश लगाने की मांग कर रहा था। इनमें सबसे क्रांतिकारी मांग अकाली दल का आनंदपुर साहिब प्रस्ताव था। उस प्रस्ताव में केंद्र के जिम्मे रक्षा, विदेश और कुछेक संघीय मामलों के अलावा सबकुछ राज्यों के हवाले करने की मांग के अलावा यह भी था कि राज्यसभा के अधिकार लोकसभा से ज्यादा होने चाहिए, क्योंकि वह राज्यों की सभा है। तब कांग्रेस ने इसे देशहित के विरोध में बताया था। दलील यह थी कि हमारा संघीय ढांचा अमेरिका की तरह नहीं है, बल्कि यह इस मामले में अर्द्ध-संघीय है कि केंद्र से ही राज्य बंधे हैं। लेकिन तमाम विपक्षी पार्टियां राज्य-अधिकारों की हिमायती थीं। 1980 में तमाम विपक्षी पार्टियों के कई सम्मेलन भी लेकर हुए। हाल के दौर में तो अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, कर्नाटक में राज्यपालों की भूमिका संदिग्‍ध रही है।

बहरहाल, मौजूदा विवाद इस मायने में अलग है कि विपक्षशासित राज्य संसद में पास कानूनों को मानने से इनकार कर रहे हैं। ऐसे में, यह टकराव वह मुकाम हो सकता है जिससे संघीय व्यवस्था की नई व्याख्या की राह भी खुल सकती है।

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