पंजाब के एक गांव के बगीचे में आम के पौधों की रोपाई के दौरान तीन वर्ष का पुत्र नन्हे हाथों से घास के तिनके बोने लगा। पिता ने पूछा, ‘‘बेटे, क्या कर रहे हो?’’ बेटे ने तुतलाते हुए कहा, ‘‘पिताजी, बबूके बो रहा हूँ।’’ बंदूकों को बबूके बोलने और सही उच्चारण ना कर पाने वाले इस बच्चे के दिमाग में बंदूकों वाली बात आने के विशेष कारण थे। इसके परिवार की दो पीढ़ियों की हर सांस दासता की जंजीरें तोड़कर देश की स्वतंत्रता हेतु संकल्पबद्ध थी अतः इस बालक के श्रीमुख से बंदूकें बोने की बात निकलना आश्चर्यजनक नहीं था। महाराजा रणजीतसिंह की सेना में शामिल पूर्वजों की विरासत में मिली अपूर्व देशभक्ति के संकेत बच्चे ने बचपन में ही दे दिए थे। दादा सरदार अर्जुनसिंह और पिता किशनसिंह के वहमोगुमान में भी नहीं था कि उनका ये बेटा अपनी अभूतपूर्व वीरोचित शहादत से अपना नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज कराएगा।
ये विलक्षण, अवतारी बालक भगतसिंह थे जो 23 वर्ष की उम्र में ही ‘‘युगपुरुष’’ बन गए। ‘पूत के पाँव पालने में दिखते हैं’ कहावत को चरितार्थ करते हुए, खिलौनों से खेलने की बजाए, देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत, उन्होंने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़कर अंग्रेज़ों को भारत से भगाने का सपना देखा। 23 वर्ष की उम्र में देश के लिए हँसते हुए प्राण न्यौछावर कर, बलिदान होने का जज़्बा भगतसिंह के अलावा किसमें हो सकता था? भगतसिंह ने क्रांति का प्रतीक बनकर देश के युवाओं को महत्वपूर्ण सन्देश देकर सही दिशा दिखाई। उन्होंने अपने रक्त से स्वतंत्रता के वृक्ष को सींचकर ऐसी मजबूती प्रदान करी कि उस वृहदाकार, विराट वटवृक्ष की क्रांति रुपी शाखाओं का विकास रोकना अंग्रेज़ों के बूते की बात ही नहीं रही। भगतसिंह ने जीवित आँखों से बेशक स्वतंत्रता का सूर्योदय नहीं देखा पर अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने पर विवश होने में उनके अनुपम बलिदान का महती योगदान है।
भगत सिंह की जयंती विशिष्ट तिथि है, जो आगामी पीढ़ियों को वीरता की विरासत सौंपकर युवाओं के प्रेरणास्त्रोत बन गए। भगतसिंह स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानियों में सबसे प्रभावशाली, महान क्रांतिकारी थे। स्वतंत्रता संग्राम का लोकप्रिय नारा ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ भगतसिंह की देन है। सांडर्स वध के बाद पोस्टर्स में उल्लिखित इस नारे के बारे में बम कांड के बाद सबको ज्ञात हुआ कि प्रथम बार भगतसिंह के मुख से ये नारा प्रस्फुटित हुआ था।
पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) के पास लायलपुर के बंगा गांव में सितंबर, 1907 को प्रातः दिव्य सूर्योदय हुआ जब किशनसिंह के घर में, माता विद्यावती के मातृत्व को धन्य करते हुए भगतसिंह अवतरित हुए। दादा अर्जुनसिंह, पिता किशनसिंह, चाचा अजीतसिंह और स्वर्णसिंह स्वतंत्रता सेनानी थे अतः देशभक्ति का जज़्बा बालक की नस-नाड़ियों में रक्त के साथ प्रवाहित था। भगतसिंह के पिता और चाचा स्वर्णसिंह बंदी थे जो संयोगवश उनके जन्म के दिन रिहा हुए इसलिए उनका नाम भागनवाला (भाग्यशाली) रखा गया। दादी जयकौर को बधाइयाँ देते हुए लोगों ने कहा कि, ‘‘मांजी, आपका पोता बड़ा भाग्यवान है जिसके आने के साथ ही आपके बेटे भी घर आ गए।’’ सुंदर शिशु भगतसिंह के मुख पर तेजोमय आभा और आकर्षण था जिसे देखकर सभी मोहित होते थे।
भगतसिंह और बड़े भाई जगतसिंह का लालन-पालन दादा अर्जुनसिंह की देखरेख में और शिक्षा गाँव के प्राथमिक विद्यालय में आरंभ हुयी। भगतसिंह की बातचीत का सलीका, कुशाग्र बुद्धि, सुंदर हस्तलिपि, मिलनसार स्वभाव और उच्च विचारों ने उन्हें सबका चहेता बना दिया। उनके चाचा अजीतसिंह 1909 में देश से निर्वासित होकर विदेशों में क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित करते रहे, मार्च में स्वदेश लौटे और 15 अगस्त 1947 को शहीद हुए। दूसरे चाचा स्वर्णसिंह कैदियों पर होने वाले अमानवीय अत्याचारों और ना खाने लायक खाना मिलने के कारण क्षय रोग से ग्रसित होकर तेईस वर्ष की उम्र में शहीद हो गए। पिता भी कई बार गिरफ्तार हुए अतः तीसरी कक्षा में ही भगतसिंह क्रांति को समझने लगे थे और माँ तथा चाचियों के दुःख को महसूस करते थे। माँ को दिलासा देते, बड़ी चाची हरनामकौर से कहते, ‘‘चाची जी, आप दुखी ना हों, मैं अंग्रेज़ों को देश से बाहर निकालूंगा और चाचा जी को वापस लाऊंगा।’’ छोटी चाची हुक्मकौर से कहते, ‘‘मैं अंग्रेज़ों से बदला लूँगा।’’
भगतसिंह की अध्ययन में अत्यधिक रुचि थी इसलिए चौथी कक्षा में ही क्रांतिकारियों द्वारा लिखित ढेर सारी पुस्तकें पढ़ डालीं जिससे बुद्धि का विकास हुआ और छोटी वय में उनकी बातें, विचार परिपक्व हो गए, फलस्वरूप सारा गाँव और अध्यापक भी उनका आदर करने लगे। विद्यालय में होने वाली प्रार्थना-हवन में भगतसिंह ने कभी भाग नहीं लिया क्योंकि उनका चिंतन इतना गहरा हो चुका था कि उन्हें पूजा-पाठ और धर्मान्धता से समाज सुधार संभव नहीं लगता था। भगतसिंह कलम के धनी, विचारक, चिंतक, लेखक, दार्शनिक विद्वान थे जिनका हिंदी के अलावा उर्दू, अंग्रेज़ी, संस्कृत, पंजाबी, बंगला और आयरिश भाषाओं पर समान अधिकार था और वे समाजवाद के अच्छे व्याख्याता, मर्मज्ञ वक्ता भी थे। सिख होते हुए भी, आर्य समाजी दादा ने भगतसिंह और उनके भाई जगतसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार कराते वक़्त दोनों पोतों को भुजाओं में समेट कर संकल्प लिया कि, ‘‘मैं इस यज्ञवेदी के समक्ष दोनों वंशधरों को देश की बलिवेदी पर होम होने के लिए अर्पित करता हूँ’’, मगर भाई जगतसिंह की ग्यारह वर्ष की अल्पायु में मृत्यु हो गयी।
13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी मेले के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में सभा के लिए बीस हज़ार से अधिक स्त्री-पुरुष और बच्चे इकट्ठे हुए। बाग के चारों ओर मकान थे और अंदर जाने का एक ही मार्ग था। अचानक जनरल डायर ने पचास अंग्रेज़ों और सौ सशस्त्र भारतीय सिपाहियों के साथ प्रवेश किया और सिपाहियों को हुक्म दिया कि निहत्थे, शांति से बैठे लोगों और मासूम बच्चों पर कारतूस खत्म होने तक गोलियां दागें। १६०० राउंड फायर हुए, भागने की जगह ना होते हुए भी लोग भागे और अधिकतर कुएं में कूद गए, बाग शवों से पट गया, रात भर घायल और लाशें वहीं पड़े रहे।
इस भीषण नरसंहार के बारे में सुनते ही बारह वर्ष के भगतसिंह, घर से विद्यालय के लिए निकले पर बस में बैठकर जलियांवाला बाग पहुँच गए। उस भयावह माहौल में भी निडरता से उन्होंने रक्तरंजित मिट्टी उठाकर श्रद्धापूर्वक माथे से लगायी और थोड़ी मिट्टी शीशी में भरकर घर लौट आए। घरवालों को चिंतातुर देखकर, इस घटना से बेहद दुखी, उन्होंने बताया कि अंग्रेज़ों ने हज़ारों निर्दोषों की हत्या कर दी है और वो वहां की रक्त सनी मिट्टी लाये हैं। उन्होंने उस शीशी के आगे सम्मानपूर्वक फूल चढ़ाये और ये क्रम कई दिनों तक चलता रहा। 1921 में तेज़ होते आंदोलन में ‘स्वदेशी का प्रचार-विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार’ कार्यक्रम शामिल था। उनकी संगठनशक्ति और वाकपटुता के कारण दोस्त उनके साथ घर-घर जाकर विदेशी वस्त्र इकट्ठे करके चौराहों पर होली जलाते जिसमें उन्हें विशेष आनंद आता।
भगतसिंह बीए में पढ़ रहे थे जब दादी और माता-पिता ने शादी के लिए उनको मनाने की कोशिश की तो उन्होंने पिता को पत्र लिखा कि, ‘‘मेरी ज़िंदगी का मकसद देश की आज़ादी है, दुनियावी आराम, ख़्वाहिशें नहीं और मुझे दादाजी की यज्ञोपवीत के वक़्त की गयी प्रतिज्ञा पूरी करना है। यदि मेरा विवाह गुलाम भारत में हुआ तो मेरी दुल्हन मृत्यु होगी। उम्मीद है आप मुझे माफ़ करेंगे’’ और लाहौर से कानपुर पहुँच गए। कुछ दिन अखबार बेचे, फिर गणेशशंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ अख़बार में ‘बलवंतसिंह’ के नाम से संपादन का काम संभाला। दादी के सख़्त बीमार होने पर पिता ने अख़बार में विज्ञापन छपवाया और कई स्त्रोतों से उन तक खबर पहुंचाई कि उनकी शादी नहीं की जाएगी, तब वो घर लौटे और उनको देखकर दादी स्वस्थ हो गयीं।
5 फरवरी, 1922 को गोरखपुर के ‘चौरीचौरा’ में कांग्रेस का जुलूस निकलते समय भीड़ ने इक्कीस सिपाहियों और थानेदार को थाने में बंद करके आग लगा दी जिससे सब स्वाहा हो गए। इसपर गाँधी ने आंदोलन स्थगित करने का आवाहन किया जिसका पुरज़ोर विरोध हुआ। इस निर्णय से भगतसिंह के मस्तिष्क में हिंसा-अहिंसा को लेकर द्वन्द छिड़ गया, उन्होंने गांधी के अहिंसा-दर्शन का खंडन किया और उनका मोहभंग हुआ। उन्होंने 19 वर्षीय ‘करतारसिंह सराबा’ को अपना नायक माना जो सशस्त्र गदर की तैयारी करते समय पकड़े गए और हँसते हुए फांसी पाकर शहीद हुए थे। ‘चौरीचौरा’ के बाद भगतसिंह क्रांतिकारी आंदोलन द्वारा ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसक तरीकों की वकालत करने लगे।
भगतसिंह ने ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन करके जोशीले नौजवानों को जोड़ा और शहीदों के बलिदान दिवस मनाने, नयी योजनाएं बनाने, सभाएं करने और जुलूस निकालने की क्रांतिकारी गतिविधियां शुरू कीं। उनके मंसूबे बड़े थे पर जेब में पैसा नहीं था अतः कभी अख़बार बेचे, कभी चने खाकर पानी पिया पर गतिविधियां नहीं रुकीं क्योंकि मातृभूमि को स्वतंत्र करने का स्वप्न देखते इस जूनूनी, दीवाने को अपनी सुध ही नहीं थी।
‘दशहरा बम कांड’ में अज्ञात व्यक्ति के बम फेंकने से कुछ लोग मरे और पचासों घायल हुए। 29 जुलाई, 1927 को अमृतसर पहुंचते ही पुलिस ने ‘दशहरा बम कांड’ के आरोप में निर्दोष भगतसिंह को गिरफ्तार कर लिया पर वास्तविक कारण ‘काकोरी डकैती कांड’ के फरारों और दल की गतिविधियों के बारे में पूछताछ करना था। भगतसिंह को लाहौर किले में 15 दिन अमानवीय यातनाएं दी गयीं जिनमें सोने ना देना, लगातार सवाल पूछना, घंटों खड़े रखना और सबसे भयंकर यातना थी मुंह पर तारकोल का लेप करके उसको आग में सेंकना जिससे गरम लौ से दम घुटे और वो सारे भेद बता दें, पर फौलाद से निर्मित वीर ने मुंह नहीं खोला, फिर उन्हें बोर्स्टल जेल भेजा गया। पिता के प्रभाव और दोषी साबित ना होने के कारण 60 हज़ार रूपये, (जो उन दिनों बहुत बड़ी रकम थी) की जमानत पर वो मुक्त किए गए।
3 फरवरी, 1928 को साइमन कमीशन भारत आया तो बम्बई में ‘साइमन वापस जाओ’ के नारों के साथ हड़ताल और जोरदार प्रदर्शन हुआ। अक्टूबर में कमीशन लाहौर आ रहा था तो भगतसिंह ने लाहौर स्टेशन पर जुलूस में सामने रहकर काले झंडे दिखाने हेतु लाला लाजपतराय और बाकियों को तैयार किया। क्रांतिकारियों के शोर से बेतरह विचलित और भयभीत, पुलिस सुपरिंटेंडेंट स्कॉट ने सहायक सांडर्स को उनपर लाठियां बरसाने का आदेश दिया जिसमें लालाजी को छाती और कंधों पर काफी चोटें आयीं। घायल होने के बावजूद लालाजी ने हज़ारों की संख्या में इकट्ठी भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि, ‘‘मैं घोषणा करता हूँ कि मुझे जो चोटें लगी हैं वो भारत में अंग्रेजी राज के कफ़न की कील साबित होंगी।’’ 17 नवंबर को लालाजी की मृत्यु हुयी तो जनता का क्रोध उफन पड़ा और अवसर की अनुकूलता देखकर दूरदर्शी भगतसिंह ने लालाजी की मृत्यु के अपमान का बदला लेने हेतु स्कॉट को खत्म करने का प्रस्ताव रखा। 17 दिसंबर को भगतसिंह और राजगुरु ने चंद्रशेखर आज़ाद और सुखदेव के सहयोग से स्कॉट के धोखे में सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर दी। दूसरे दिन सुबह जगह-जगह चिपके पोस्टर्स में लिखा था, ‘‘नौकरशाही सावधान! सांडर्स को मारकर लालाजी की शहादत का बदला ले लिया गया है। हिंदुस्तान की जनता निष्प्राण नहीं, राष्ट्र के सम्मान हेतु वो प्राणों की बाजी लगा सकती है।’’ भगतसिंह और उनके साथी हर क्षण खतरों से खेलते थे पर जीवन के प्रति उतने ही निर्लिप्त, निर्मोही थे।
भगतसिंह का लेनिन के समाजवाद की ओर झुकाव हो गया था, साथ ही वो कॉलेज के समय से ही फ्रांसीसी अराजकतावादी ‘वेलां’ से प्रभावित थे जिसने फ्रांस की असेंबली में बम फेंकने की हिम्मत की थी। भगत सिंह ने पंजाबी, उर्दू अखबारों के लिए अराजकतावाद पर ‘बलवंत’, ‘रंजीत’ और ‘विद्रोही’ जैसे छद्म नामों से लेखों की श्रृंखला प्रकाशित की। ‘वेलां’ से प्रेरित, उन्होंने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली असेंबली में बम फेंककर अपना उद्देश्य स्पष्ट करने का निर्णय लिया। उन्होंने असेंबली में दो बम फेंके, ‘‘इंकलाब जिंदाबाद’’ के नारे लगाए और फेंके गए पत्रकों में लिखा, ‘‘व्यक्तियों को मारना आसान है लेकिन विचारों को नहीं मार सकते। महान साम्राज्य नष्ट हो गए पर विचार जीवित रहे।’’ भगतसिंह ने कहा, "वे मुझे मार सकते हैं लेकिन मेरे विचारों को नहीं, मेरा शरीर कुचल सकते हैं, लेकिन मेरी आत्मा नहीं कुचल पाएंगे।’’
12 जून, 1929 को अदालत ने बम विस्फोटों के दुर्भावनापूर्ण, गैरकानूनी इरादे का हवाला देते हुए तीनों को आजीवन कारावास का फैसला सुनाया। भगतसिंह ने पूर्वनिर्धारित योजना के अंतर्गत 14 जून से भूख हड़ताल प्रारंभ की। पुलिस ने ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना’ के बम कारखानों पर छापा मारकर क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया। 10 जुलाई, 1929 को विशेष सत्र अदालत में 28 आरोपियों के खिलाफ मुकदमा शुरू हुआ जिसमें कमजोरी के कारण भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त स्ट्रेचर पर लाए गए और उनकी खराब शारीरिक हालत देखकर लोग बेहद दुखी हो गए।
असेंबली बम कांड के बाद झाँसी में चंद्रशेखर आज़ाद के पास क्रांतिकारी इकट्ठे हुए जो भगतसिंह के बारे में जानने को उत्सुक थे। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त की अखबारों में छपी तस्वीर देख, सबकी आँखों में आंसू थे। आज़ाद के सामने एक साथी का पैर भगतसिंह की तस्वीर पर पड़ा तो आज़ाद गरज उठे पर तुरंत संयत होकर, सबको संबोधित कर बोले कि, ‘‘ये अब शहीद हैं, देश की संपत्ति हैं, देश इनको पूजेगा। अब इनका दर्जा हमसे बहुत ऊंचा है। इनके चित्र पर पैर रखना देश की आत्मा रौंदने के बराबर है।’’ ये कहते हुए आज़ाद का गला भर्रा गया, जिससे साबित होता है कि आज़ाद का हृदय कितना कोमल था और साथियों से उन्हें कितना प्यार था।
भगतसिंह और साथियों ने जेल में गोरे बनाम देशी कैदियों के इलाज में पूर्वाग्रही अंतर के विरोध में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की घोषणा की और ‘राजनीतिक कैदियों’ के रूप में पहचाने जाने की मांग की। भूख हड़ताल ने प्रेस का ध्यान आकर्षित किया और उन्हें अपनी मांगों के पक्ष में जनता का समर्थन मिला। 13 सितंबर को 63 दिनों के उपवास के बाद यतीन्द्रनाथ दास की मृत्यु ने अधिकारियों के प्रति नकारात्मक जनमत तेज कर दिया। भगतसिंह ने 5 अक्टूबर, 1929 को पिता और कांग्रेस नेतृत्व के अनुरोध पर 116 दिन का उपवास तोड़ दिया। भगतसिंह देश को अंग्रेज़ी शासन से मुक्त करने तक सीमित नहीं थे बल्कि अपनी विचारधारा से लोगों को जागरूक भी करते थे।
1 मई, 1930 को लॉर्ड इरविन के निर्देश पर धीमी कानूनी कार्यवाही के कारण तीन न्यायाधीशों ने विशेष ट्रिब्यूनल की स्थापना करके आगे बढ़ने का अधिकार दिया। ये एकतरफा परीक्षण, अभियुक्त की उपस्थिति के बिना, सामान्य कानूनी अधिकारों के दिशानिर्देशों का पालन करता था। ट्रिब्यूनल ने 7 अक्टूबर 1930 को 300 पन्नों के फैसले में सांडर्स की हत्या में भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की संलिप्तता के अकाट्य सबूत पेश किए। भगतसिंह ने हत्या की बात स्वीकार करके मुकदमे के दौरान ब्रिटिश शासन के खिलाफ बयान दिए इसलिए उनके साथ राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च, 1931 को फांसी का आदेश दिया गया मगर तीनों को 23 मार्च, 1931 को 7 बजे शाम को ही फांसी दे दी गई। चेहरे पर मुस्कान के साथ ‘‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’’ और ‘‘डाउन विथ इम्पीरियलिज़्म’’ के नारे लगाते हुए इस वीर ने अपने दो साथियों के साथ ख़ुद फांसी के फंदे को हार की तरह गले में पहन लिया।
महानतम क्रांतिकारी भगतसिंह के अद्भुत जज़्बे, कार्यों और निष्पादन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने हेतु क्रांतिकारी मार्ग अपनाने के लिए लाखों युवाओं को प्रेरित किया। इतिहासकारों ने गलत धारणा को प्रचारित किया कि भगतसिंह के क्रांतिकारी विचार अतिशय हिंसात्मक थे इसलिए उनके विचारों की प्रासंगिकता शून्य होगी, पर असलियत में आज उनके विचार अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिक हैं। भगतसिंह ने अहिंसात्मक आन्दोलन की जगह स्वतन्त्रता के लिये हिंसात्मक क्रांति का मार्ग अपनाना उचित समझा। वह उन महान शख़्सियतों में से हैं जिन्हें भारत और पाकिस्तान में एक समान चाहा, सराहा और सम्मान किया जाता है। उनके ये विचार उनकी महानता सिद्ध करते हैं। ‘‘बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं होती। निर्दयी आलोचना और स्वतंत्र चिंतन क्रांतिकारी चिंतन के आवश्यक लक्षण हैं।’’ उनका सबसे प्रेरक उद्धरण है, ‘‘ज़िंदगी अपने दम पर जी जाती है, दूसरों के कंधों पर तो जनाज़े जाते हैं।’’
भगतसिंह ने छोटे भाई कुलतार को लिखी आखिरी चिट्ठी में चंद शेर लिखे थे।
उसे यह फ़िक्र है हरदम, नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें, सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफ़ा रहे, चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही, आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ, ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ।
मेरी हवाओं में रहेगी, ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी, रहे, रहे ना रहे…
शहीद-ए-आजम भगतसिंह की 114वीं जयंती पर, भारतमाता के लाड़ले, महान सपूत के अनमोल विचारों को अपनाना ही उन्हें सच्ची, वास्तविक श्रद्धांजलि होगी।
(लेखिका कला, साहित्य और सिनेमा की समीक्षिका हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं।)