भले क्रांतियों का टेलीविजन प्रसारण हो या न हो, लेकिन युद्ध हमेशा प्रसारित होते रहेंगे। असली फुटेज न हो, तब भी वीडियो गेम की क्लिप, एआइ के बनाए वीडियो या कोई पुराना वीडियो दर्शकों को रोमांचित कर सकता है। टीवी और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फर्जी सामग्री उनकी टीआरपी और एजेंडे के लिए कारगर हो सकती है। भारत और पाकिस्तान के बीच चार दिनों की लड़ाई में कमोबेश दोनों तरफ मीडिया ने इस कदर अतिरंजित खबरें प्रसारित की, जिससे उसकी भूमिका पर सवाल उठे।
मसलन, भारत ने 22 अप्रैल को पहलगाम में आतंकी हमले के जवाब में 6-7 मई की दरमियानी रात को पाकिस्तान और पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में कुछ जगहों पर लक्षित हवाई हमले किए, जहां आतंकी प्रशिक्षण केंद्र बताए जाते हैं। भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की खबर आने के फौरन बाद एक्स, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ऐसे वीडियो की बाढ़ आ गई, जिसमें दावा किया गया कि पाकिस्तान ने पांच भारतीय विमानों को मार गिराया।
सीएनएन ने पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ से पांच भारतीय विमानों को मार गिराने के दावे के सबूत मांगे, तो उन्होंने कहा, “सब सोशल मीडिया पर है। हमारे नहीं, बल्कि भारतीय सोशल मीडिया पर।” कोई शीर्ष फौजी अधिकारी सोशल मीडिया वीडियो का हवाला दे, यह सूचना युद्ध में नई निचाई है, जिसमें फैक्ट या फर्जी के बीच फर्क की रेखा बेहद धुंधली है। हालांकि संघर्ष विराम के बाद भारतीय वायु सेना के डीजीएमओ ए.के. भारती ने इतना ही कहा कि हमारे सभी पायलट सुरक्षित हैं और नुकसान लड़ाई का हिस्सा है।
पाकिस्तान में मीडिया फर्जी वीडियो के जरिए ‘कामयाबी की कहानी’ का ढिंढोरा पीटता रहा। एआरवाइ न्यूज, जियो टीवी वगैरह के एंकर चीख-चिल्ला रहे थे कि पहलगाम आतंकी हमला पाकिस्तान को बदनाम करने के लिए भारत की अपनी करतूत है। बेशक, इस नैरेटिव की शुरुआत पाकिस्तान सरकार और फौज ने ही की। एआरवाइ की कुछ सुर्खियां देखें, ‘भारत के एस-400 डिफेंस सिस्टम को तबाह करने के लिए जेएफ-17 थंडर उड़ान भर रहा है’, ‘भारत का कायराना हमला, पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई दुनिया में सबसे तगड़ी’ और ‘एस-400 ठप, राफेल गिरा, भारत की हार का सीधा सबूत’ आदि।
मीडिया में कवरेज की कुछ झलकियां
अब, भारत के टीवी न्यूज चैनलों पर मचे धमाल को देखें। पृष्ठभूमि में सायरन और हूटर की आवाज के बीच एंकरों ने जोरदार नारे लगाए। परदे पर कंप्यूटरजनरेटेड इमेज और एनिमेशन के जरिए विमानों के उड़ने और दागने के नजारे दिखाए। ऐसी ब्रेकिंग न्यूज चलाई, जिससे लोगों में उन्माद भर उठा। वे बता रहे थे, कैसे पाकिस्तान बिखरने की कगार पर है।
जी टीवी के एंकर ने जोरदार आवाज में ऐलान किया, ‘पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद पर कब्जा,’ ‘पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ बंकर में छिपे।’ जी के साथ-साथ गुवाहाटी स्थित एनकेटीवी और प्रतिदिन टाइम ने भी यही हकारा लगाया। कोलकाता स्थित एबीपी आनंदा के मुताबिक, ‘पाकिस्तानी फौज में बगावत,’ ‘फौजी हुक्मरान जनरल आसिम मुनीर हटाए गए और गिरफ्तार हुए’। रिपब्लिक और एबीपी की ब्रेकिंग न्यूज, ‘भारतीय नौसेना के विमानवाहक पोत आइएनएस विक्रांत ने मिलकर किया पाकिस्तान का कराची बंदरगाह तबाह।’ असमिया समाचार चैनल न्यूज लाइव ने बताया कि भारतीय हमलों में पाकिस्तान के 12 शहर बर्बाद। एबीपी ने कहा कि बलूचिस्तान पाकिस्तान से आजादी से कुछ कदम दूर, बलूच बागियों का क्वेटा में पाकिस्तानी फौज के ठिकाने पर जबरदस्त हमला। इंडिया टीवी और ईटी नाउ के मुताबिक, भारत ने एक एफ-16 पाकिस्तानी जेट को मार गिराया और उसके पायलट को पकड़ा।
कवरेज इतना जोरदार था या जो भी वजह रही हो कि केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने भी कराची पर भारत के हमले के बारे में एक्स पर पोस्ट किया। हालांकि बाद में उन्होंने इसे हटा दिया।
लेकिन अगले दिन सेना की संतुलित प्रेस ब्रिफिंग से इन उन्मादी गुब्बारों की हवा निकल गई। 8-9 मई की दरमियानी रात के घटनाक्रम की विस्तृत जानकरी दी गई और सब कुछ फर्जी साबित हो गया। ब्रीफिंग में बताया गया कि पाकिस्तानी फौज ने ‘ड्रोन हमले किए’ और नियंत्रण रेखा पर भारी गोलाबारी की, जिसका ‘‘माकूल जवाब दिया गया और उनमें कई ड्रोन मार गिराए गए।’’ उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के हथियार से लैस एक यूएवी को बठिंडा सैन्य ठिकाने को निशाना बनाने के पहले मार गिराया गया। ब्रीफिंग के मुताबिक, लेह से सर क्रीक तक 36 जगहों पर लगभग 300 से 400 ड्रोन घुसपैठ की कोशिश हुई, जिसका मकसद भारत की वायु रक्षा प्रणालियों की खुफिया जानकारी लेना था। फिर, ‘‘हमले के जवाब में पाकिस्तान में चार वायु ठिकानों पर हथियारबंद ड्रोन लॉन्च किए गए। एक ड्रोन उनके एंटी राडार सिस्टम को नष्ट करने में कामयाब हुआ।’’ लेकिन, ‘‘भारतीय सशस्त्र बलों ने आनुपातिक और जिम्मेदारी से जवाब दिया।’’
खैर, फर्जी खबरें और गलत सूचनाएं कहीं ज्यादा तेजी से फैलती हैं और ज्यादातर मामले में उनके खंडन से उनसे पैदा हुआ उन्माद और भ्रामक नजरिया खत्म नहीं होता। लाइव कवरेज, सोशल मीडिया और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर में अफवाहों-अटकलों की रफ्तार प्रकाश की गति से ज्यादा तेज हो सकती है और ऐसी विकृत तस्वीर पेश कर सकती है, जो काफी समय तक मिटाए न मिटे।
दरअसल सूचना युद्ध का मतलब सिर्फ फर्जी खबरें फैलाना नहीं होता, बल्कि सावधानीपूर्वक तैयार किए गए प्रचार के साथ नैरेटिव गढ़ना होता है। जैसा कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने 30 नवंबर, 1943 को तेहरान सम्मेलन में कहा था, ‘‘युद्ध के समय, सच्चाई इतनी कीमती होती है कि उसे हमेशा झूठ के अंगरक्षकों के साथ रहना चाहिए।’’ युद्ध में हर पक्ष संवेदनशील जानकारी को सावधानीपूर्वक छुपाए रखने की कोशिश करता है। यह सामरिक और कूटनीतिक रणनीति का हिस्सा होता है। लेकिन हर ऐरा-गैरा रणनीतिक विशेषज्ञ बन जाए और टीवी एंकर हुंकार भरने लगें, तो नुकसान ही ज्यादा कर बैठते हैं।
इसके अलावा, लड़ाई के समय आलोचना करना भी जोखिम भरा होता है। मोटे तौर पर तमाम विपक्षी पार्टियों ने लड़ाई के दौरान सरकार की आलोचना से परहेज बरता। लेकिन सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी ऐसी जंग लड़ती देखी गई, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया था। वरिष्ठ पत्रकार वैष्णा रॉय को ऑपरेशन सिंदूर के नाम पर आपत्ति थी, उसे वे पितृसत्तात्मक मानती हैं। उन्हें सशस्त्र बलों पर सवाल उठाने के लिए सोशल मीडिया पर क्रूर ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा। कई हिंदू दक्षिणपंथी तत्वों ने धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी आवाजों को धमकाया कि उन्होंने सरकार या सेना पर सवाल उठाने की कोशिश की तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।
इंडियन आर्मी फैंस नाम से चलने वाले एक फेसबुक पेज ने लिखा, ‘‘ऑपरेशन सिंदूर के खिलाफ आपका कोई भी दोस्त नहीं होना चाहिए।’’ कई अति-राष्ट्रवादियों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सरकार के ईमेल साझा किए, जहां ‘राष्ट्र-विरोधी’ पोस्ट की रिपोर्ट की जा सकती है। कथित तौर पर 4.5 लाख से ज्यादा ‘फॉलोअर’ वाले दक्षिणपंथी प्रचार हैंडल जयपुर डायलॉग्स ने तो 9 मई को नियम-कायदे ही तय कर दिए। उसके मुताबिक, ‘‘सूचना युद्ध में धारणा ही युद्ध का मैदान है। अगर खबर पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाती है- चाहे सच हो या झूठ- तो उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें। उसे पोस्ट करें। उसे शेयर करें। उसे वायरल करें। सीमा पार दहशत फैलने दें। अगर खबर भारत को नुकसान पहुंचाती है- भले ही वह सच हो- तो उसे दफना दें। उसे दबा दें। फैलने से पहले उसे बेमानी कर दें।’’ उसमें साफ किया गया, ‘‘हर पोस्ट एक गोली है। अपने देश पर कभी गोली मत चलाओ।’’
हालांकि सरकार बार-बार मीडिया और आम जनता को गलत सूचना के झांसे में न आने और सिर्फ सरकार की ब्रीफिंग पर भरोसा करने की चेतावनी देती रही। लेकिन एक हिंदुत्व प्रचारक अभिजीत अय्यर-मित्रा ने गलत सूचना फैलाने के अधिकार का जोरशोर से बचाव किया। यह अधिकार किसने कब दिया, इस पर भला कौन गौर करे। अय्यर-मित्रा ने 8 मई को पाकिस्तान में तख्तापलट, पाकिस्तान के भाग रहे विमानों, पायलट के पकड़े जाने, एफ-16/जे-17 को मार गिराने और कराची/लाहौर पर हमले की फर्जी खबरें फैलाने में एक्स पर पोस्ट करके सकारात्मक मदद करने वालों को ‘‘शाबासी का ट्वीट’’ किया। ‘‘आपको पता नहीं कि आप कितने उपयोगी थे। आप मातृभूमि के इलेक्ट्रॉनिक युद्ध अंग बन गए हैं। कोई भी जो आपको ‘फर्जी खबर’ या ‘गलत सूचना’ फैलाने वाला कहता है, वह पाकिस्तान का पांचवां स्तंभ है।’’
हालत यह है कि 10 मई को संघर्ष विराम की आधिकारिक घोषणा करने वाले विदेश सविच विक्रम मिसरी को भी नहीं बख्शा गया। ट्रोल आर्मी ने उनके परिवार और बेटी को लेकर भद्दी टिप्पणियां कीं। उन्हें अपना एक्स एकाउंट प्राइवेट करना पड़ा। मध्य प्रदेश के एक मंत्री ने प्रेस ब्रीफिंग देने वाली लेफ्टिनेंट कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर बेहद आपत्तिजनक बयान दिया, जिस पर जबलपुर हाइकोर्ट ने एफआइआर करने का निर्देश दिया। वहां के एक और मंत्री भी सेना को लेकर अशोभनीय बयान देने के लिए सुर्खियों में आए।
केंद्र सरकार ने पाकिस्तानी नैरेटिव, दुष्प्रचार और गलत सूचना को प्रसारित करने वाले सोशल मीडिया हैंडल और समाचार प्लेटफार्मों को ब्लॉक करने की कोशिश में कई भारतीय मीडिया प्लेटफार्मों के हैंडल भी ब्लॉक कर दिए, जिसे प्रेस और नागरिक समाज के एक वर्ग में प्रेस की आजादी पर हमला बताया। इसके विपरीत, पाकिस्तान में सरकार या सेना की आलोचना करने वाली आवाजें बंद तो नहीं की गईं, मगर उन्हें सुनने वाले थोड़े ही हैं।
ब्रिटिश उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल ने 1938 में अपने संस्मरण होमेज टू कैटालोनिया में लिखा था कि युद्ध की सबसे डरावनी हकीकत प्रचार, चीख-पुकार, झूठ और घृणा है। यह हमेशा ऐसे लोगों से आता है जो युद्ध नहीं कर रहे होते हैं। उन्होंने लिखा, ‘‘यह सभी युद्धों में एक जैसा होता है; सैनिक लड़ते हैं, पत्रकार चिल्लाते हैं, और कोई भी कथित सच्चा देशभक्त कभी भी मोर्चे के पास भी नहीं फटकता, सिवाय थोड़े से प्रचार दौरों के।’’
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के दो साल बाद, अमेरिकी मनोवैज्ञानिक और नाजी मुकदमों पर नजर रखने वाले गुस्ताव एम. गिल्बर्ट ने अपनी 1947 की पुस्तक न्यूरमबर्ग डायरी में लिखा कि एक बड़े नाजी अधिकारी हरमन गोरिंग ने 1946 में जेल में एक इंटरव्यू में कहा था कि आम लोग युद्ध नहीं चाहते, लेकिन राजनैतिक नेताओं की अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उन्हें युद्ध में घसीटना आसान होता है। गोरिंग ने कहा था, ‘‘लोगों को बताएं कि उन पर हमला हो रहा है और शांति की दुहाई देने वालों की देशभक्ति में खोट निकालें।’’
इन टिप्पणियों के दशकों बाद, हमें सच्चाई की तलाश करना है, जो फर्जी खबरों और मनगढ़ंत सुर्खियों के मकड़जाल की कई परतों में छुपा होता है। युद्ध तबाही लाता है। उनसे पूछिए जिनके जानमाल का भारी नुकसान होता है। वे सीमा के पास बसे लोग, सेना के जवान कोई भी हो सकते हैं। इसका असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। लेकिन मीडिया, खासकर टीवी न्यूज चैनलों के लिए युद्ध तमाशा है, ऐसा टूर्नामेंट जिसमें लोग जुनूनी हो उठते हैं, ड्राइंग रूम में पकौड़े, नमकीन के साथ कुछ गर्म या ठंडा पीते हुए। बंर्ट्रेंड रसेल ने अपने 1915 के निबंध द एथिक्स ऑफ वॉर में लिखा है, ‘‘युद्ध की तमाम बुराइयों में सबसे बड़ी बुराई विशुद्ध आध्यात्मिक बुराई है, घृणा, अन्याय, सच का खंडन...।’’