व्यभिचार से जुड़े दंडात्मक कानूनों को असंवैधानिक घोषित करते हुए उन्हें निरस्त करने का फैसला गुरुवार को पढ़ते हुए उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भारत में व्यभिचार को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में रखने संबंधी पुराकालीन कानून के उद्भव और विकास के पूरे घटनाक्रम का जिक्र किया है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, फैसला सुनाने वाले पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा ने अपने-अपने फैसलों में इसका जिक्र किया कि आखिरकार व्यभिचार भारत में अपराध कैसे बना।
दोनों ही न्यायाधीशों ने 1860 के कानून के तहत भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में शामिल इस पुराकालीन कानून को निरस्त करने का फैसला दिया।
न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि प्रावधान का असल रूप तब सामने आता है जब वह कहता है कि पति की सहमति या सहयोग से यदि कोई अन्य व्यक्ति विवाहित महिला के साथ यौन संबंध बनाता है तो वह व्यभिचार नहीं है।
यह रेखांकित करते हुए कि 1955 तक हिन्दु जितनी महिलाओं से चाहें विवाह कर सकते थे, न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा, 1860 में जब दंड संहिता लागू हुई, उस वक्त देश की बहुसंख्यक जनता हिन्दुओं के लिए तलाक का कोई कानून नहीं था क्योंकि विवाह को संस्कार का हिस्सा समझा जाता था।
पीठ में शामिल एकमात्र महिला न्यायाधीश न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने भी अपने फैसले में यह रेखांकित किया कि भारत में मौजूद भारतीय-ब्राह्मण परंपरा के तहत महिलाओं के सतीत्व को उनका सबसे बड़ा धन माना जाता था। पुरूषों की रक्त की पवित्रता बनाए रखने के लिए महिलाओं के सतीत्व की कड़ाई से सुरक्षा की जाती थी।
न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा, इसका मकसद सिर्फ महिलाओं के शरीर की पवित्रता की सुरक्षा करना नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना था कि महिलाओं की यौन इच्छा पर पतियों का नियंत्रण बना रहे।
न्यायमूर्ति नरीमन ने अपने फैसले में कहा, ऐसी स्थिति में यह समझा पाना बहुत मुश्किल नहीं है कि एक विवाहित पुरूष द्वारा अविवाहित महिला के साथ यौन संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं था। उस वक्त तलाक के संबंध में कोई कानून ही नहीं था, ऐसे में व्यभिचार को तलाक का आधार बनाना संभव नहीं था। उस दौरान हिन्दू पुरूष अनके महिलाओं से वकवाह कर सकते थे, ऐसे में अविवाहित महिला के साथ यौन संबंध अपराध नहीं था, क्योंकि भविष्य में दोनों के विवाह करने की संभावना बनी रहती थी।
उन्होंने कहा कि हिन्दू कोड आने के साथ ही 1955-56 के बाद एक हिन्दू व्यक्ति सिर्फ एक पत्नी से विवाह विवाह कर सकता था और हिन्दू कानून में परस्त्रीगमन को तलाक का एक आधार बनाया गया।
न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने अपने फैसले में इस तथ्य का जिक्र किया कि 1837 में भारत के विधि आयोग द्वारा जारी भारतीय दंड संहिता के पहले मसौदे में परस्त्रीगमन को अपराध के रूप में शामिल नहीं किया गया था।