गीता प्रेस गोरखपुर के अध्यक्ष और सनातन धर्म की प्रसिद्ध पत्रिका कल्याण के संपादक राधेश्याम खेमका का शनिवार को दोपहर साढ़े 12 बजे निधन हो गया। राधेश्याम खेमका ने 40 सालों से गीता प्रेस में अपनी भूमिका का निर्वाहन करते हुए अनेक धार्मिक पत्रिकाओं का संपादन किया। उनमें कल्याण प्रमुख है। बता दें कि गीता प्रेस ने बेहद कम दामों में धार्मिक पुस्तकों को घरों घर पहुंचाया है। वर्तमान में कागज के दाम बढ़े, परिवहन खर्च बढ़े। कच्चे सामानों के दाम बढ़े लेकिन गीताप्रेस ने महंगाई का बोझ पाठकों पर नहीं पड़ने दिया। गीताप्रेस ज्यादातर पुस्तकें आज भी पूर्व की ही कीमत पर उपलब्ध करा रहा है।
गीता प्रेस की स्थापना 1923 में हुई थी और इसके संस्थापक जयदयाल गोयनका का एक ही उद्देश्य था भगवद् गीता का प्रचार। साथ ही कहा जाता है कि गीताप्रेस की स्थापना ही इसी उद्देश्य से हुई थी कि पाठकों तक धार्मिक पुस्तकें सस्ते दाम पर पहुंच सकें। गीताप्रेस आज भी अपने स्थापना उद्देश्यों पर कायम है और पाठकों तक सस्ती पुस्तकें पहुंचाने का प्रयास कर रहा है। अब भी गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित हनुमान चालीसा का मूल्य मात्र 2 रुपए और श्रीमद्भगवतगीता की कीमत 4 रुपए है।
गीता प्रेस से कुल 15 भाषाओं में लगभग 1800 तरह की पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला, उड़िया, असमिया, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, उर्दू, पंजाबी व नेपाली भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। इन सभी भाषाओं में पाठकों की अच्छी संख्या है।
गीता प्रेस पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों का भी व्यापक प्रभाव रहा है। 1926 में जब गीता प्रेस की प्रसिद्ध पत्रिका कल्याण की पहली अंक प्रकाशित हुई तो उसका पहला लेख महात्मा गांधी ने लिखा था। इस दौरान गीता प्रेस के प्रबंधकों से महात्मा गांधी ने एक अनुरोध किया कि गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों में विज्ञापन ना प्रकाशित किया जाए। महात्मां गांधी के एक अनुरोध मात्र से ही गीता प्रेस प्रबंधन ने आज तक गीता प्रेस की किसी भी किताब में कोई भी विज्ञापन नहीं लिया। 1923 में गीता प्रेस की स्थापना के बाद 1926 में जब यहां से कल्याण पत्रिका प्रकाशित होनी थी, तब उसके संपादक हुनमान प्रसाद पोद्दार बनाये गये थे। हनुमान प्रसाद ने इस समय गांधी जी से कल्याण पत्रिका में एक लेख लिखने का आग्रह किया था। जिसके लिए गांधी जी खुशी खुशी तैयार हो गये। उन्होने उसी समय कहा कि इस पत्रिका में कोई विज्ञापन न छापा जाए। जिसके बाद से गीता प्रेस ने कभी अपनी किताबों और पत्रिकाओं में कोई विज्ञापन नहीं छापा। साथ ही गीता प्रेस किसी से चंदा या अनुदान भी नहीं लेता है।