मोदी सरकार मरने भी नहीं देती और जीने भी नहीं। मनरेगा में न काम दिया जा रहा है और न ही पैसा। सरकार आधा पेट खाने को देगी तो तड़प तड़प कर ही मरेंगे।
यह कहना है सीतापुर से आई रामबेती का। शुक्रवार को नरेगा संघर्ष समिति की एक प्रेस कांफ्रेस में शोधकर्ताओं ने मनरेगा के दावों का खुलासा किया। इस कांफ्रेस में आई रामबेती ने कहा कि मनरेगा में न तो समय पर काम मिलता है और न मजदूरी का भुगतान किया जाता है। मौजूदा समय में हालत बंधुबा मजदूरों जैसी हो गई है। अगर काम मिलता है तो पैसा मिलेगा, इस की कोई गारंटी नहीं है। राजस्थान के उदयपुर के आदिवासी इलाके कोटड़ा ब्लाक से आए धर्मचंद ने कहा कि मनरेगा में काम मांगने पर कहा जाता है कि अभी मंजूरी नहीं आई है जिसके कारण छोटा किसान पलायन कर रहा है। काम का दाम भी नहीं दिया जा रहा है।
मनरेगा मामले की अदालत में पैरवी कर रहे एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा कि मनरेगा योजना को मोदी सरकार बंद करने की साजिश रच रही है। जानबूझकर मजूदरों की मजदूरी देने में देरी की जा रही है और समय पर पैसा नहीं दिया जा रहा है। देरी से दिए जाने वाले पैसे पर ब्याज की गणना भी गलत तरह से की जा रही है। जितना बजट आवंटित होना चाहिए उससे आधे का बजट दिया जाता है और वह भी पूरा नहीं मिल पाता। योजना में पंचायत स्तर पर बजट की मांग का ब्यौरा लिया गया तो 80 हजार करोड़ रुपये का आकलन किया गया लेकिन बजट 48 हजार करोड़ रुपये आवंटित किया गया यानी सीधे तौर पर 40 हजार करोड़ रुपये का गला घोंटा जा रहा है।
याचिकाकर्ता तथा स्वराज अभियान के योगेंद्र यादव ने कहा कि पिछले कई सालों से मजूदरों का पैसा रोक कर रखा गया है। शोधकर्ताओं ने एक स्टडी की है जिसमें केंद्र सरकार के दावों को पोल खुल गई है। कोर्ट ने 2016 में बकाया पैसा देने को कहा था लेकिन नहीं दिया गया। ग्रामीण विकास मंत्रालय इस वित्तीय वर्ष में 85 फीसदी पैसे के भुगतान का दावा करती है लेकिन स्टडी बताती है कि केवल 32 फीसदी का ही भुगतान किया जा रहा है। पहले तिमाही में ही 90 फीसदी खर्च कर लिया जाता है तो बाकी का पैसा कहां से दिया जाएगा यानी जानबूझकर देरी की जाती है और इस देरी के लिए ब्याज की गणना भी सही से नहीं का जाती। संघर्ष समिति के निखिल डे, स्टडी से जुड़े राजेंद्र और सकीना ने भी मनरेगा पर सरकार की मंशा पर सवाल उठाए।