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दशकों चले संघर्ष के बाद इन आदिवासी महिलाओं ने सिस्टम से 'छीन' कर हासिल लिए हक और बचा लिया पर्यावरण

"कौन कहता है आसमां में सूराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों" मशहूर शायर दुष्यंत कुमार की...
दशकों चले संघर्ष के बाद इन आदिवासी महिलाओं ने सिस्टम से 'छीन' कर हासिल लिए हक और बचा लिया पर्यावरण

"कौन कहता है आसमां में सूराख नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों"

मशहूर शायर दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां ओडिशा की उन आदिवासी महिलाओं के अदम्य साहस और दृढ़ इच्छाशक्ति पर बिल्कुल सटीक बैठती है, जिनके बारे में हम आपको इस आर्टिकल में बताने जा रहे हैं।

ये कहानी है भारत के पूर्वी तट पर बसे राज्य ओडिशा के नयागढ़ जिले के जंगलों की। यहां की आदिवासी महिलाएं आज से नहीं बल्कि दशकों से इन जंगलों की रक्षा कर रहीं हैं। आंकड़ों में कहें तो 1984 से। औपचारिक रूप से एक दशक लंबे चले अनथक संघर्ष के बाद आखिरकार कानूनी रूप से अपने वन अधिकार हासिल कर लिए हैं। नयागढ़ जिले के 24 गांवों में फैले इन जंगलों पर अब इन महिलाओं ने आधिकारिक रूप से अधिकार प्राप्त कर लिया। यह अधिकार औपचारिक रूप से हासिल कर लेने के बाद इन्हें 14 सामुदायिक अधिकार प्राप्त हुए हैं, जिन्हें कम्युनिटी फॉरेस्ट रिसोर्स राइट (सीएफआरआर) कहा जाता है। आदिवासी महिलाओं के संघर्ष से प्राप्त ये अधिकार इन गांवों को

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के अंतर्गत दिए गए हैं। केंद्र सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक " इस कानून का असली उद्देश्य ही ये है कि ये आदिवासी जैव विविधता, वन्य जीवन, जल स्रोतों की रक्षा हो, यहां के मूल निवासियों को गैरकानूनी बेदखली से बचाया जाए, और यहां के मूल निवासियों पर इससे पहले होते रहे अत्याचारों दूर करने संबंधी निर्णय ये स्वयं लें।


नयागढ़ जिले की इन ग्रामीण आदिवासी महिलाओं ने लगातार 10 सालों तक तमाम तरह के दबाव और उपेक्षा झेलने, लोगों द्वारा मजाक उड़ाए जाने के बावजूद वन और पर्यावरण के साथ अपने असली और स्वाभाविक सम्बन्ध को साबित कर दिया। इन आदिवासी महिलाओं का संघर्ष ये भी साबित करता है कि क्यों इन आदिवासियों को जल-जंगल-जमीन का असली रक्षक कहा जाता है। महान लेखिका और कालजई उपन्यास 'हजार चौरासी मां' की रचयिता स्वर्गीय महाश्वेता देवी ने आदिवासियों और जल-जंगल-जमीन के आपसी संबंध को एक पंक्ति में बखूबी व्यक्त किया है। वह कहती है, "The forests are the abode of the tribals, where their culture and wisdom thrive in harmony with nature."

रायगढ़ की इन आदिवासी महिलाओं की कामयाबी इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि 2011 की जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि इस जिले में महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत पुरुषों के 82% के मुकाबले केवल 64% है। इसके अलावा अगर लिंगानुपात की बात की जाए तो प्रति हजार  पुरुषों पर मात्र 915 महिलाएं हैं, जबकि बाल लिंगानुपात की स्थिति और भी खराब है। प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या मात्र 855 है। ऐसी खराब और विषम सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद किसी व्यक्तिगत अधिकार की बजाय जल-जंगल-जमीन संबंधित अधिकारों की रक्षा के लिए किया गया इन आदिवासी महिलाओं का संघर्ष बताता है कि हालात चाहे जितने भी विपरीत हों अगर नियत सही हो तो नियति भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। इन महिलाओं का संघर्ष इस बात की भी तस्दीक करता है कि आपका अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और स्वभाव से संवेदनशील होना इस बात का मोहताज नहीं होता कि आपने आदिवासी समाज में जन्म लिया है अथवा दलित समाज में। विपरीत हालातों में जन्म लेने के बावजूद आप अपने जीवट के दम पर कुछ भी हासिल कर सकते हैं। रायगढ़ जिले की महिलाओं ने जो मिसाल पेश की है, वह अन्य राज्यों में रह रहे आदिवासी और वंचित तबके की महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए भी एक उदाहरण है।

हालांकि इनके संघर्ष कि यह कहानी सुनने में जितनी आकर्षक लगती है इनका सफर उतना ही कांटों से भरा था।
अपने अधिकारों के संघर्ष के लिए इन चौबीस गांवों में से एक गांव रानपुर में बनाई गई प्रखंड स्तरीय महिला समिति की अध्यक्ष शशि प्रधान कहती हैं कि "महिलाओं के लिए यह जंगल केवल रोजी-रोटी का जरिया नहीं है। बल्कि यह इन जंगलों और पेड़ों को अपने परिवार की तरह मानती हैं इसीलिए वर्ष 1984 से इन जंगलों की रक्षा कर रहीं हैं। जंगल के संरक्षण और उसकी रक्षा करने का यह काम पिछले कई दशकों से अनवरत चल रहा है जिसका परिणाम उन्हें अब जाकर जाकर मिला है"।

भारत के पितृसत्तात्मक समाज में बनी बनाई व्यवस्था के चलते जंगल जैसी अपेक्षाकृत दूरदराज और खतरनाक जगहों पर काम करने की जिम्मेदारी आमतौर पर पुरुषों की समझी जाती है। लेकिन शशि इस बारे में भी एक दिलचस्प तथ्य बताती है। बकौल शशि, "कई दशकों पहले तक जब जंगलों की जिम्मेदारी पुरुषों के पास थी, तब तक इनका मैनेजमेंट सही तरीके से कभी नहीं हो पाया। जब तक पुरुषों के हाथ में बागडोर रही तब तक आपसी संवाद भी ठीक तरीके से नहीं हो पा रहा था।  उसके बाद ही वह ऐतिहासिक समय आया जब महिलाओं ने जंगलों की रक्षा की जिम्मेदारी अपने हाथों में ली  सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये है कि बस जिम्मेदारी ही नहीं उठाई बल्कि अपने कानूनी अधिकार हासिल करने की दिशा में निर्णायक संघर्ष भी शुरू कर दिया।

नयागढ़ की एक अन्य आदिवासी महिला सविता प्रधान ने हमें बताया की हमें कई तरह के संघर्ष करने पड़े  जैसे जब यह लड़ाई हमने शुरू की तो बाहर से आकर कुछ लोग हमारे पेड़ों पर हमला करते थे और पेड़ों की छाल निकालने की कोशिश करते थे। लेकिन हमने हार नहीं मानी। हम बाद में जाकर पता करते थे कि वह लोग कहां के हैं और उनके गांवों के उनके ब्लॉक अध्यक्ष के साथ मीटिंग करते थे और उनके वाहनों को भी कई बार ज़ब्त करवा देते थे।

सदियों से यहां के लोगों के लिए यह जंगल उनकी रोजी-रोटी का भी सहारा रहे हैं। जंगलों में फल और सब्जी के अलावा जड़ी-बूटियां और कुछ ऐसी झाड़ पाई जाती हैं, जिनमें औषधीय  गुण होते हैं। आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध ना होने से पहले लंबे समय तक यहां के निवासी बीमार होने पर इन्हीं जड़ी बूटियों और झाड़ के सहारे इलाज किया करते थे। अगर आमदनी की बात की जाए तो इन जंगलों में की जाने वाली काजू की खेती यहां के लोगों के लिए आय का सबसे बड़ा स्रोत है। सैकड़ों बीघे जमीन पर काजू की खेती की जाती है। जिससे कई परिवारों के सैकड़ों सदस्यों का भरण-पोषण लंबे समय से होता। यह परिवार साल में औसतन 2 से 3 लाख रुपए के बीच कमाई कर लेते हैं। जिसमें से हर परिवार 5000 इमरजेंसी फंड के तौर पर गांव की फारेस्ट कमेटी को दे देता है। इस फंड का इस्तेमाल गांव में अचानक किसी के गंभीर बीमार होने पर किया जाता है।

ओडिशा में लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता नित्यानंद राय कहते हैं कि "तटीय राज्य होने के चलते ओडिशा लंबे समय से क्लाइमेट चेंज संबंधी घटनाओं को लेकर एक संवेदनशील राज्य रहा है। समय-समय पर इसे बाढ़, सूखे और तूफान का सामना करना पड़ा है। ऐसे संवेदनशील राज्य में महिलाओं द्वारा यह लड़ाई जीतना कोई सामान्य बात नहीं है। बल्कि इसे ओडिशा और भारत के इतिहास में सैकड़ों सालों तक याद रखा जाएगा।"

अतः उस समाज में जहां आज भी पीरियड्स के दौरान लड़कियों औऱ महिलाओं को किचन और पूजाघर से दूर कर दिया जाता हो, डिलीवरी के बाद कई दिनों तक महिला को अछूत मानते हों और प्रत्येक 1 लाख महिलाओं में से 64.5% महिलाओं ( उपरोक्त आंकड़े एनसीआरबी के 2021 के डेटा से साभार) को हिंसा का सामना करना पड़ता हो, ऐसे समाज में नयागढ़ की इन आदिवासी महिलाओं की ये जीत एक मील का पत्थर तो स्थापित करती ही है।

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