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भिखारी से बनें कारोबारी

लगभग 35 साल पहले 65 वर्षीय सुनील घोषाल बंगाल में अपने गांव हरोका से भागकर वृंदावन आ गए थे। वह बताते हैं कि उनके शरीर में कुष्ठ रोग के हल्के से कुछ दाग उभर आए थे। इस वजह से उनके घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी गई। किसी मेहमान के आने पर घोषाल को छिपा दिया जाता। एक रोज उनकी बड़ी बहन को लड़के वाले देखने आए तो घोषाल को एक कमरे में बंद कर दिया गया। ऐसी जिंदगी से तंग आकर अगले ही दिन वह बिना किसी को बताए घर से भाग गए। कुछ दिन उत्तर प्रदेश की खाक छानते रहे फिर वृंदावन आकर बस गए।
भिखारी से बनें कारोबारी

बिजनेस की शुरूआत कैसे हुई

कुछ काम करने को नहीं मिला तो उन्होंने भी दूसरों की तरह वृंदावन में बांके बिहारी के मंदिर के बाहर भीख मांगनी शुरू कर दी। वह कहते हैं ‘ यही सबसे आसान काम था। हालांकि मैं भीख नहीं मांगना चाहता था लेकिन इसके अलावा और कोई चारा नहीं था।‘ एक रोज सासाकावा इंडिया लैप्रोसी फाउंडेशन की कार्यकारी निदेशक विनिता शंकर और उनकी टीम के सदस्यों ने वृंदावन का दौरा किया। घोषाल समेत उनकी सहमती से कुछ भिखारियों को इक्ट्ठा किया। संस्था से जुड़े आफताब बताते हैं कि हमने उनसे पूछा कि वे लोग क्या काम कर सकते हैं। पढ़े-लिखे न होने की वजह से वे लोग दुकान खोल सकते थे या कपड़े सिलाई का काम कर सकते थे। कुछ ने कहा कि वे रिक्शा चला सकते हैं। संस्था की ओर से इन्हें 2 लाख 44 हजार रुपये दिए गए। यह रकम  इनके  नाम एक बैंक खाता खोलकर उसमें जमा करा दी गई। इनमें से आठ लोगों ने रिक्शा खरीदा, 4 लोगों ने दुकान खोली, आठ ने सिलाई का काम शुरू किया। फिर इन लोगों ने यह काम शुरू कर अपने साथ के और भिखारियों को अपने काम में सहयोगी के तौर पर रखा। अहम यह था कि इनमें से किसी को भी ये रुपये लौटाने नहीं थे लेकिन फिर से भीख मांगने के काम पर लौटने की मनाही थी। पांच सौ रुपये मासिक बैंक में जमा करवाने थे। ताकि मूल रकम जस की तस बनी रहे और अगर कोई दूसरा भी भीख मांगने का काम छोड़ना चाहे तो छोड़ सके।

 

एक से दो दुकानें की

सुनील घोषाल बताते हैं कि उन्होंने संस्था से दुकान खोलने के लिए 32,000 रुपये लिए। घोषाल ने बिस्किट, नमकीन और छोटी-मोटी जरूरतों की एक बहुत छोटी से दुकान खोली और उसी दुकान से एक और दुकान खरीद ली। अब घोषाल के पास दो दुकाने हैं। दोनों उनकी अपनी हैं। दूसरी दुकान उन्होंने साइकिल मरक्वमत की खोली जो चौराहे पर होने की वजह से अच्छी चलती है। घोषाल कहते हैं कि जल्द ही वह कार पंक्चर का काम शुरू करने वाले हैं। इसी प्रकार जो-जो लोग भीख नहीं मांगना चाहते थे वे इन लोगों के साथ होते चले गए।

 

रिक्शा से ई-रिक्शा

इसी प्रकार जिन आठ लोगों ने साइकिल रिक्शा ली थी, एक साल के अंदर- अंदर उन लोगों ने साइकिल रिक्शा से ई-रिक्शा ले ली। निमई बताते हैं कि तीन भाइयों में वह सबसे बड़े हैं। उनके बीमार माता-पिता इस हालत में हैं कि काम नहीं कर सकते। वे चंदे की रसीद काटकर जो मिल जाता था उस से घर चलाते थे। जब कभी चंदा नहीं मिलता था तो वह दिन बहुत बुरा कटता। निमई ने शुरू-शुरू  में संस्था से पैसे ले साइकिल रिक्शा खरीदी लेकिन कुछ ही सालों बाद हाल ही में उसने ई-रिक्शा खरीद ली है। उसका कहना है कि अब जोर नहीं लगाना पड़ता है और सवारी भी जल्दी पहुंच जाती है। ई-रिक्शा उसने अपनी बचत और सूझ से ली।

 

बच्चे पढ़ाने का सपना पूरा किया

भीख मांगने वाले विश्वनाथ की कहानी बहुत रोचक है। उसने भी सभी की तरह  10,000 रुपये ले साइकिल रिक्शा चलाने का काम शुरू किया। विश्वनाथ, के दो बेटे और एक बेटी है। लेकिन तपती दोपहर में उसे रिक्शा चलाने का काम मुश्किल लगा। उसने एक ऐसा ठेला लिया जिसमें मोटर लगवाई और पानी की सप्लाई का काम शुरू किया। विश्वनाथ इतना खुश है कि कहता है मैडम मेरे सभी बच्चे आज प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं। मैं कुछ ही मिनट में पानी यहां से वहां पहुंचा देता हूं। विश्वनाथ की तमन्ना थी कि उसके बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ें।

 

भीख की दलदल

यह संस्था भारत के 17 राज्यों में कुष्ठरोग से पीडि़त भीख मांगने का काम कर रहे लोगों के बीच काम कर रही है। विनिता शंकर का कहना है कि अगर ये लोग भीख मांगने का काम बंद करें और समाज की मुख्यधारा में आ जाएं तो अपने आप ही कुष्ठ रोग के प्रति लोगों की गलत धारणाएं दूर होती जाएंगी। 

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