वहीं इस निर्णय को लागू करने में रही कमियों, गड़बड़ियों, गंभीर असुविधाओं, अमीर की अपेक्षा दैनन्दिन आजीविका कमाने वाले गरीबों की गंभीर वित्तीय समस्या अब तक सरकार को भी कुछ हद तक समझ में आ जानी चाहिए थी। जमीनी राजनीति करने वाले भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को भी कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों से समस्याओं का अहसास हुआ होगा। प्रधानमंत्री ही नहीं भाजपा अध्यक्ष की पृष्ठभूमि गुजरात की है। गुजरात सहित विभिन्न प्रदेशों के बाजारों में एक पट्टी लिखी दिखाई पड़ती है- 'भूल-चूक लेनी देनी।’ प्रतिपक्ष भी जानता है कि नोटबंदी का ऐतिहासिक फैसला अब वापस नहीं हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोची समझी राजनीतिक रणनीति के तहत अपने कार्यकाल की आधी अवधि के बाद अपने लोकप्रिय चुनावी वायदे को पूरा करने के लिए यह तोप चलाई है। इस राजनीतिक-आर्थिक गोलाबारी ने सबको हिला दिया है। वहीं साधन संपन्न उद्यमी, व्यापारी, संस्थान, बैंक से जुड़े लोग तात्कालिक गुबार के बाद आर्थिक क्रांति की नई रोशनी की आशा संजोए हुए हैं। खासकर शहरी नई पीढ़ी का बड़ा वर्ग डिजिटल लेन-देन को पसंद करता है। सरकार कैशलेस अर्थव्यवस्था को यथाशीघ्र लागू करना चाहती है। वहीं बैंकों में निजी या व्यावसायिक लेन-देन बढ़ने एवं इस नोटबंदी से जमा विपुल राशि आने पर भाजपा सरकार कुछ विकास एवं कारोबारी के लिए नए महत्वपूर्ण वित्तीय घोषणाएं कर सकी है।
नए वित्तीय वर्ष (2017-18) के आम बजट में वित्तीय सुधारों, करों में राहत, जी. एस. टी. लागू करने के लाभ, उद्योग धंधों के लिए ब्याज दरों में कमी के प्रावधान की गुंजाइश बन सकती है। लेकिन यह स्मरण रखना होगा कि हर आंदोलन और क्रांति के बाद करोड़ों लोगों की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। चुनावी वायदों और उन पर आंशिक अमल के बाद भी सूखे गले की प्यास की तरह चाह बढ़ जाती है। भारत की जनता बहुत धैर्यवान है। यह 'आशा पर आकाश टिका है’ वाली स्थिति को गले उतारती रहती है। नोटबंदी ने गली-मोहल्ले से लेकर राजमार्गों, छोटे-छोटे कल-कारखानों, दुकानों इत्यादि में काम करने वाले मजदूरों के लिए बड़ी संख्या में रोजी-रोटी का संकट पैदा कर दिया है। उन्हें काम देने वाले लघु-मध्यम उद्यमियों के लिए भी तात्कालिक वित्तीय संकट और उलझन की स्थिति है। भारत सरकार के छठे आर्थिक सेंसेस (2013-14) के अनुसार देश में लगभग 5 करोड़ 80 लाख लघु निजी व्यापारिक संस्थान हैं, जिनमें करीब 13 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। पिछले दो वर्षों में इसमें वृद्धि की अनुमानित संख्या 15 से 17 करोड़ बताई जाती है। नोटबंदी से उनके दु:ख-दर्द की दास्तां सड़कों पर देखी-सुनी जा रही है। इस कष्ट के बावजूद लाखों भोले-भाले लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर प्रश्न चिह्न नहीं लगा रहे हैं। दूरदराज के गांवों-खेतों-खलिहानों में काम करने वालों को भी संघर्ष की आदत है। कभी प्रकृति से लड़ना होता है, कभी पुरानी सामाजिक कुरीतियों अथवा बदलती अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से निपटना होता है। उन्हें तो छोटे-बड़े नोट और सिक्कों का हिसाब भी दूसरों से समझना पड़ता है। कभी इलाके के दबंग साहूकारों से मदद या ज्यादती झेलनी पड़ी, तो कभी सहकारी आंदोलन में उपजे कई नेताओं अथवा अधिकारियों द्वारा रिश्वतखोरी एवं धमकियों का सामना करना पड़ा। इसलिए भ्रष्टाचार से मुक्ति के हर अभियान में हिंदुस्तान का आम आदमी झंडा लिए खड़ा रहता है। लेकिन अब उसे जयकार के साथ सरकारी खजाने से बजट में अच्छी राहत की उम्मीद है। जैसा भी हो काला या सफेद धन-अरबों रुपया बैंकों में आ गया है। जन-धन के खाते में तो उसने नाम मात्र की राशि जमा की। मतलब, वह भी अपनी मेहनत की कमाई थी। गरीब को गैस की सब्सिडी भी तभी मिल सकती है, जब उसके पास किसी मकान मालिक से किराए के कमरे का प्रमाण हो या अधिकृत कॉलोनी में काई कच्चा-पक्का मकान होने पर आधार कार्ड बना हो। बहरहाल, उसे मजदूरी बढ़ने, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और इलाज की अच्छी मुफ्त सुविधा, दुकान या कारोबार के लिए इंस्पेक्टर राज से मुक्ति और बैंक से कर्ज लेने पर ब्याज-दरों में कमी जैसी कामनाएं हैं। आप पूंजी निवेश अमेरिका, यूरोप, चीन, रूस या खाड़ी के देशों से लाएं, अधिकाधिक लोगों को रोजगार दिलवाने की व्यवस्था करवाएं। फिलहाल तो बेरोजगारी ही बढ़ती गई है। बैंक से कर्ज पर ब्याज दरों में कमी का दूसरा असर निम्न या मध्यम वर्ग द्वारा जमा की गई धनराशि पर मिलने वाले ब्याज की दरों में भी कटौती होगी। चिंता यही है कि बैंकों की तिजोरी बड़ी कंपनियों के लिए खुलती जाए और पेंशनभोगी लोगों अथवा बचत करने वाली महिलाओं को घाटा हो जाए। नई क्रांति के बहुत पेंच हैं। इनकम टैक्स, जी.एस.टी. ही नहीं हर राज्य में समय-समय पर नए शुल्क लगते रहते हैं। मतलब सरकार को रेगिस्तानी पहाड़ से भी मीठे पानी की गंगा लानी है। सरकार कोशिश करती रहे, लोग भूल-चूक भी माफ करते रहेंगे।