केरल और पश्चिम बंगाल में भी संघ के प्रचारक वर्षों से सक्रिय रहे हैं। आखिरकार, राम माधव तो संघ से भाजपा में प्रतिनियुक्ति पर आए हैं। उन्हें असम का प्रभार जम्मू-कश्मीर के साथ सौंपा गया था। अमित शाह के विश्वस्त महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने बंगाल का मैदान संभाला था। कांग्रेस पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियों के निष्ठावान कार्यकर्ता पिछले दो दशकों में पश्चिम बंगाल में किनारे होते गए। कम्युनिस्ट पार्टियों और उससे जुड़े संगठन भी संघर्ष के बजाय समझौतों और सत्ता के अवगुणों में फंसते चले गए। ममता बनर्जी मूलतः कांग्रेस पार्टी में ही ईमानदारी और प्रखर नेत्री के रूप में सामने आई थीं। पार्टी नेतृत्व ने जोड़-तोड़ की राजनीति में ममता की उपेक्षा की। प्रणव मुखर्जी को भी राष्ट्रपति पद से कुछ वर्ष पहले प्रधानमंत्री बना दिया गया होता, तो बंगाल सहित कई राज्यों में कांग्रेस आज बेहतर हालत में होती। केरल में के. करुणाकरण और तमिलनाडु में जी. के. मुपनार के बाद कोई सही नेतृत्व कांग्रेस पार्टी को नहीं मिला। सन 2014 के लोक सभा चुनाव से भी कांग्रेस पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया। केरल में चांडी और असम में तरुण गोगोई की विफलताओं और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद उन्हें नहीं हटाया गया। तमिलनाडु में गले तक भ्रष्टचार के आरोपों में फंसी द्रमुक के जेल भुगते नेताओं से गठबंधन किया। इसका नुकसान उसे होना ही था।
वैसे भाजपा को अपनी पीठ थपथपाने के साथ यह बात ध्यान रखनी होगी कि असम में कांग्रेस से ही हाल में आए हेमंत बिस्वाल के कारण भाजपा को बड़ी सफलता में सुविधा हुई। अन्यथा उसका आंकड़ा ऊंचाई नहीं छू पाता। मतलब बिस्वाल और ममता के साथी बदले भेस में कांग्रेसी ही हैं। अब पार्टी और सरकार को संघ की अपेक्षाओं के साथ असम गण परिषद, शिव सेना, अकाली दल की मांगों-अपेक्षाओं को भी कुछ प्राथमिकता देनी होगी। वहीं राज्य सभा में आर्थिक ममालों से जुड़े विधेयकों पर ममता, जयललिता की पार्टियों का सहयोग लेने के लिए नए प्रयास करने होंगे। जयललिता के साथ नरेंद्र मोदी के सौहार्द्रपूर्ण संबंध रहे हैं। कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान में मोदी को जयललिता एवं ममता बनर्जी की विजय से कुछ संतोष ही हुआ है। मतलब, कमल के साथ तालाब में कुछ कांटेदार बेल भी फैली हुई हैं। राजनीतिक तालाब फूल के साथ कांटे-कीचड़, मछली और जल-जंतु भी कम नहीं हैं। सबसे बचते-बचाते भाजपा को अपनी नाव आगे ले जाना है।