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चर्चाः चंदे पर पर्दानशीं रहने की कोशिश | आलोक मेहता

महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की विरासत वाली कांग्रेस पार्टी हो या डॉ. हेडगेवार और दीनदयाल उपाध्याय के अनुयायियों की भारतीय जनता पार्टी अथवा राममनोहर लोहिया के शिष्यों की समाजवादी पार्टी एवं जनता दल (यू)- चंदे का हिसाब-किताब सूचना के अधिकार के तहत सार्वजनिक करने को तैयार नहीं हो रहे।
चर्चाः चंदे पर पर्दानशीं रहने की कोशिश | आलोक मेहता

ये वही पार्टियां हैं, जो लाखों-करोड़ों सदस्यों के सदस्यता शुल्क और चंदे एवं चुनावी खर्च का विवरण चार्टर्ड अकाउंटेंट के जरिये आयकर विभाग और चुनाव आयोग को देती हैं। लेकिन बही-खातों की असलियत जनता को नहीं बताना चाहती हैं। केंद्रीय सूचना आयोग ने तीन साल पहले 2013 में अपने एक फैसले में पर्दानशीं पार्टियों को हिसाब-किताब बेपर्दा करने का आदेश दे रखा है। इस फैसले को नहीं माने जाने पर सूचना आयोग के समक्ष फिर एक याचिका आई। सुनवाई के दौरान कांग्रेस पार्टी ने फिर आपत्ति के साथ दलील दी कि ‘सार्वजनिक दलों को सूचना के अधिकार के तहत नहीं लाया जा सकता है। यही नहीं आयोग न तो कोर्ट है और न ही उसे इस मामले में निर्णय का अधिकार है। उसे अपने आदेश पर पुनर्विचार करना चाहिए।’ मज़ेदार बात यह है कि कांग्रेस पार्टी के नेता देश को सूचना का अधिकार दिलवाने का दावा जोर-शोर से करते रहे हैं। सूचना के अधिकार को कानून के रूप में माने जाने के लिए संसद में भी सभी दलों की सहमति रही है। दूसरी तरफ पार्टियां अपने आदर्शों, सिद्धांतों और सेवा भावना के दावे करने में भी किसी से कम नहीं हैं। परंपरा को गौरवशाली भी बताती हैं। यदि इतिहास पर नज़र डालें तो सही परंपरा यही थी कि घर-घर जाकर चंदा मांगा जाता था। सी.ए. की जरूरत नहीं होती थी। सामान्य कापी और रजिस्टर में हिसाब-किताब लिखा जाता और बड़े नेता भी न्यूनतम खर्च में पार्टी का काम करते थे। महात्मा गांधी तक तीसरी श्रेणी के डिब्बे में यात्रा करते थे। आजादी के बाद भी नेहरू या सत्तर के दशक तक इंदिरा गांधी या अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली पार्टियों के सहयोगी पांच सितारा संस्कृति से नहीं जुड़े थे। इसलिए चंदा और खर्च भी बहुत सीमित रहता था। धीरे-धीरे पार्टियों के बही-खाते के आंकड़े लाखों से करोड़ों में पहुंचने लगे और हर प्रदेश में संगठन या संबद्ध संस्‍थाओं के नाम बड़ी अचल संपत्ति (जमीन, इमारत इत्यादि) इकट्ठी होने लगी। बहरहाल, करोड़ों लोगों के समर्थन का दावा करने वाले राजनीतिक दलों को अपना बही-खाता भी सामने रखने में परेशानी क्यों होनी चाहिए? किस गरीब कार्यकर्ता या किसी अमीर कंपनी से कितना पौसा मिला और नेताओं ने कहां कितना खर्च किया- यह बताने से क्या बड़ी पोल खुल जाएगी? यदि धन सही ढंग से आया और दुरुपयोग नहीं हुआ, तो जनता जनार्दन को बताने में आनाकानी क्यों की जाए?  पारदर्शिता रखने से राजनीतिक दलों और नेताओं की साख कम होने के बजाय बढ़ जाएगी।

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