हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने भी आज पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर राजनीतिक खतरों पर चर्चा की है। आखिरकार, ऐसे सभी नेताओं की सुनवाई राहुल गांधी के दरबार में नहीं हो पाती है। सोनिया गांधी सुनकर सांत्वना देती रहती हैं लेकिन फैसले लटके रहते हैं। पार्टी के पुराने मशालची ही जब कांग्रेस का घर जलाने में लगे रहते हैं, तो दीवारें कितनी सुरक्षित रह सकती हैं। उत्तराखंड के विद्रोहियों ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि राहुल गांधी ने दो वर्षों में एक बार भी मिलने का समय नहीं दिया।
दूसरी तरफ सत्तारूढ़ रहे हरीश रावत ने भी माना कि पार्टी की मजबूरियों के कारण उन्हें भ्रष्ट व्यक्ति को मंत्रिमंडल में रखना पड़ा, लेकिन उसकी मनमानी और गड़बड़ी नहीं चलने दी। राहुल गांधी और उनके सलाहकार यदि समय रहते असंतुष्टों की बात सुनते रहते और संगठन-सरकार में भी आवश्यक सुधार करते रहते, तो संभवतः यह नौबत नहीं आती। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने प्रादेशिक अथवा राष्ट्रीय स्तर पर भी कोई महत्वपूर्ण फेरबदल नहीं किए। जमीन से कटे लोगों को प्रदेश का प्रभारी बनाया गया। दक्षिण भारत के अंग्रेजीदां लोगों को हिंदी भाषी प्रदेशों के नेता-कार्यकर्ताओं से सामंजस्य रखने की जिम्मेदारी दी गई। भारतीय प्रशासनिक सेवा में यह नीति चल सकती है, लेकिन राजनीतिक पार्टी प्रशासनिक शैली में कैसे चल सकती है?
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के विरुद्ध अभियान चलाने में तो कांग्रेस संसदीय दल के एक वरिष्ठ नेता अग्रणी रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में चुनाव लड़े बिना वह मुख्यमंत्री पद के आकांक्षी रहे। पर्दे के पीछे भाजपा नेताओं से सुविधाजनक रिश्तों के कारण उन पर लगे आरोपों की कभी जांच नहीं होती, लेकिन वे राजा वीरभद्र सिंह का सिंहासन डगमगाने और उन्हें हटाने का मसाला अवश्य देते रहते हैं। केरल में चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री के विरुद्ध कांग्रेसी नेता सार्वजनिक बयान दे रहे हैं। असम के विद्रोही ने पहले ही भाजपा की शरण ले ली थी। पश्चिम बंगाल में कई नेता बाहर हो गए या केवल भारी पराजय की संभावना से त्रस्त हैं। ऐसी स्थिति में पार्टी की नाव कौन पार लगाएगा?